परीक्षा की योग्यता

June 1945

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(श्री स्वामी सत्यभक्त जी महाराज, वर्धा)

(1)

पंडित जी बड़े जोर से व्याख्यान फटकार रहे थे। कह रहे थे कि- देखो भाइयों! धर्म की गति बड़ी सूक्ष्म है, शास्त्रों का मर्म अगाध है गुरुओं के ज्ञान की कोई सीमा नहीं! श्रद्धा से ही पार पाया जा सकता है, इसलिए श्रद्धा से काम लो! आजकल के लोगों की बुद्धि ही कितनी है जो हम गुरुओं की-शास्त्रों की-परीक्षा करने की गुस्ताखी करें!

इसके बाद पंडित जी ने ब्राह्मण जाति की महत्ता, गुणहीन ब्राह्मण की पूजा, साधु वेशधारियों की महत्ता, अमुक जाति के लोगों को न छूने में धार्मिकता, आदि का लम्बा-चौड़ा उपदेश सुना डाला।

सभा में एक युवक बैठा था, उसने बहस करना शुरू कर दिया और बहस में युवक की बातों का उत्तर पंडित जी से न बना, तब उनने बिगड़कर कहा- मैं जो कहता हूँ वह शास्त्र के अनुसार कहता हूँ। क्या शास्त्र पर विश्वास नहीं करते?

‘शास्त्र की जो बातें सच्ची या हितकारी मालूम होती हैं- उन पर विश्वास करता हूँ, जो ठीक नहीं मालूम होती-उन पर कैसे विश्वास करूं?’

‘तो तुम शास्त्र की परीक्षा करोगे?’

‘क्यों नहीं, आखिर बुद्धि परमात्मा ने किस लिए दी है।?’

‘शास्त्रों की परीक्षा के लिए दी है?’

‘शास्त्र ही क्या, हर चीज में से अच्छाई-बुराई जानने के लिए दी है।’

‘आजकल के लड़के ऐसे ही हैं! बनेगा तो एक श्लोक भी नहीं, पर शास्त्र की परीक्षा करेंगे! परीक्षा करने के लिए ये शास्त्रकारों के गुरु हो गये!’

‘पर परीक्षा करने के लिए श्लोक बनाने की जरूरत है’।

युवक को सेठ धनपतराय जी ने इशारे से दबा दिया। युवक का नाम ज्ञानदास था। वह धनपतराय का बेटा था धनपतराय ने ही यह उत्सव करवाया था जिसमें पंडित जी का प्रवचन हो रहा था।

ज्ञानदास के चुप रहते ही पंडित जी ने जरा जोर में कहा- देखिए! परीक्षक बनने के लिए हमें परीक्ष्य से बड़ा होना चाहिए। अध्यापक विद्यार्थी की परीक्षा ले सकता है। जो जिस विषय में अधिक योग्य नहीं, वह उस विषय की परीक्षा कैसे ले सकता है? क्या इसमें सन्देह है कि हमारी बुद्धि प्राचीन ऋषि महर्षियों की अपेक्षा बहुत तुच्छ है! तब हम उनकी या उनकी रचनाओं की परीक्षा कैसे कर सकते हैं?

सब ने कहा-सत्य वचन महाराज!

पंडित जी ने विजयी मुद्रा से चारों तरफ देखा।

(2)

रात में ठाकुर जी की आरती के बाद भजन होने वाले थे इसके लिए बाहर से अच्छे-अच्छे गवैये बुलाये गये थे, और गायन कला में जो जितना चतुर समझा जायगा उसे वैसा ही पारितोषिक मिलेगा- यह भी तय हुआ था। गवैयों का निर्णय जनता पर सौंपा गया था और उसमें पंडित जी मुख्य समझे गये, इसलिए गवैयों का निर्णय पंडित जी के हाथ में आ गया।

भजनों के बाद पंडित जी ने नम्बरवार गवैयों के नाम सुना दिये। जिसका गायन सबसे अच्छा था उसका नाम पहले लिया गया। इसी क्रम से नाम लेकर पंडित जी ने निर्णय दे दिया। जनता ने भी पंडित जी के निर्णय का समर्थन किया।

पंडित जी के निर्णय के अनुसार जब गवैयों को इनाम दिया जाने लगा, तब बीच में ज्ञानदास ने कहा- जरा ठहरिये! मेरी इच्छा है कि इस मौके पर पंडित जी का भी एक गायन हो जाय।

पंडित जी मुसकराते हुए बोले- भैया ज्ञानदास मैं गाऊँगा कैसे। मैं तो गाना जानता ही नहीं।

ज्ञानदास ने हाथ जोड़कर बड़ी नम्रता से कहा- यह कैसे हो सकता है पंडित जी महाराज! जब आप इन बड़े-बड़े गवैयों की परीक्षा ले सके। उन्हें नम्बर दे सके, तब आप इनसे अच्छा गाना नहीं जानते-इस बात पर कौन विश्वास करेगा?

एक श्रोता ने मजाक में कहा-अच्छा है भैया, जब कल पंडित जी लड्डुओं की परीक्षा करें तब उन्हें पाकाचार्य की जगह बिठा देना, क्योंकि पाकाचार्य की परीक्षा करने के कारण ये उससे होशियार ही कहलायेंगे।

पंडित जी यह उत्तर बहुत अच्छा लगा। उनने मुस्कराते हुए कहा- बहुत ठीक कहा भाई आपने। सो भैया ज्ञानदास, गायन की परीक्षा के लिए गायनाचार्य बनने की जरूरत नहीं होती, न रसोई की परीक्षा के लिए पाकाचार्य बनने की। फलाफल या अच्छे बुरे का संवेदन इनकी परीक्षा करा देता है।

ज्ञानदास ने फिर हाथ जोड़ कर कहा- पंडित जी अगर शास्त्र की परीक्षा के लिए श्लोक बनाने की योग्यता चाहिए, तो गायन की परीक्षा के लिए गायनाचार्य की योग्यता क्यों न चाहिए? आपने ही तो कहा था कि परीक्षक बनने के लिए हमें परीक्ष्य से बड़ा होना चाहिए! आपका कौन-सा सिद्धान्त ठीक माना जाय? क्या फलाफल से अर्थात् समाज के हित अहित से शास्त्र की परीक्षा नहीं की जा सकती?

पंडित जी का मुँह लटक गया। चारों तरफ से हंसी के फव्वारे छूटने लगे।

=कोटेशन============================

जो कर्त्तव्य परायण है, जिनमें कर्त्तव्य शक्ति है, वे किसी दूसरे का मुँह नहीं ताकते। वे अवसर नहीं ढूँढ़ते सिर्फ अवस्था देखते हैं और जैसी स्थिति रहती है उसी की गुरुता के अनुसार वे व्यवस्था करते हैं।

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