अस्थिर जग में स्थिर धर्म

June 1945

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(श्री अक्षय सिंह जी चौहान, आँवलखेड़ा)

हम अपने आस-पास की हर एक वस्तु को चलते, बदलते और विकसित होते हुए देखते हैं, जड़ और चेतन सभी पर यह नियम लागू होता है। मनुष्य का जीवन भी इस परिवर्तन के नियम से बचा हुआ नहीं है। नन्हा सा बालक क्रमशः शैशव, किशोरावस्था, यौवन और वृद्धावस्था को पार करता है और कुछ दिन बाद फिर वहीं लौट जाता है, जहाँ से वह आया था।

इस अस्थिर दुनिया में कोई वस्तु स्थिर नहीं है। जो आज है उसे कल किसी न किसी रूप में परिवर्तित होना ही पड़ेगा। सृष्टि का संचालन इसी विधान के अनुसार हो रहा है यदि वस्तुएं स्थिर और अचल, अजर, अमर हो जाये तो आगे का नवनिर्माण कार्य भी बन्द हो जायगा। यह संसार एक ईश्वरीय नाट्यशाला है, इस रंग मंच का सौंदर्य, आकर्षण और समारोह नटों के परिवर्तन और क्रिया कौशल पर निर्भर है। यदि नट लोग जहाँ के तहाँ एक स्थान पर ज्यों के त्यों मूर्तिवत् बिना हिले जुले खड़े रहे तो भला उस नाटक में क्या सुन्दरता रहेगी? यदि सूर्य, तारे, नक्षत्र, पृथ्वी, बादल आदि एक स्थान पर ही खड़े रहें, यदि पेड़, पौधे, जीव, जन्तु, मनुष्य सदा एक ही अवस्था में रहें, यदि एक ही ऋतु, एक ही समय सदा बना रहे तो जरा कल्पना तो कीजिए संसार कैसा अजीब, नीरस और कुरूप हो जायगा।

संसार की गतिशीलता अनिवार्य है। इसकी हर वस्तु को चलना और बदलना आवश्यक है। इस नियम में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। इस परिवर्तन के सुस्थिर नियम की वास्तविकता को समझकर यदि मनुष्य अपनी जीवन नीति निर्धारित करे तो अपने को अनेक दुख शोकों और पाप तापों से सहज ही बचा सकता है।

जैसे बहती हुई पानी की तरंगों या पौधों पर बिखरी हुई ओंस की लड़ियों से कोई ममता या मालिकी का भाव नहीं जोड़ता, उसी प्रकार संसार की वस्तुओं पर ममता न जोड़नी चाहिए। अपने या अपने संबंधी जनों के शरीर को हम आज देखते हैं, संभव है इनमें से कल ही किसी का अभाव सामने आ खड़ा हो। जिस धन, सम्पत्ति या परिस्थिति में आज हम प्रसन्नता अनुभव करते हैं संभव है कल ही उसका कोई रूप बदल जाय और अरुचिकर एवं अप्रिय परिस्थितियों का सामना करना पड़े। मानव जीवन में ऐसी हलचल, पूर्व तबदीलियाँ अक्सर आती रहती हैं। बड़े-बड़े अवतार, देवी-देवता राजा, ऋषि और पराक्रमी पुरुष भी इन झोंकों से बच नहीं पाते।

विश्व की गतिशीलता के नियम एवं उससे उत्पन्न होने वाले खतरों को हमें पहले से ही समझ लेना चाहिए और उसके लिए पहले से ही सावधान तथा तैयार रहना चाहिए। संसार की हर एक दृश्यमान वस्तु के लिए हमारा दृष्टिकोण यह रहना चाहिए कि वह गतिशील, नाशवान और परिवर्तन स्वभाव की है। कभी भी इसका स्वरूप बदल सकता है इसलिए उस वस्तु के स्वरूप पर अपना ममत्व केन्द्रित न करें। हाँ, उन वस्तुओं से अपना संबंध होने पर जो उत्तरदायित्व और कर्त्तव्य अपने ऊपर आ जाता है उस कर्त्तव्य धर्म से ममता अवश्य स्थापित करें। जिन कुटुम्बियों, परिजनों का आश्रय संबंध अपने से है उनके प्रति अपना जो कर्त्तव्य है वह कर्त्तव्य किसी प्रकार हाथ से न जाने पावे इसका पूरा-पूरा ध्यान रखें। परिवर्तनशील संसार की गतिवान वस्तुओं की एकरूपता और स्थिरता की आशा रखना भूल है, जो इस भूल को करते हैं उन्हें शोक और चिन्ता में डूबना पड़ता है। यह लोक और परलोक उसी को आनन्दमय बन सकता है जो अपने कर्त्तव्य, धर्म और उत्तरदायित्व को पूरा करने में अपना ममत्व और मोह दृढ़तापूर्वक स्थापित करता है।


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