दुर्भावनाओं को जीतो

June 1945

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यूरोप की लड़ाई खत्म हो गई, एशिया की खत्म होने जा रही है। ऐसे समाचार को सुनकर वर्तमान काल की अशान्ति से ऊबा हुआ मनुष्य आशा और उत्सुकता के साथ सोचता है कि काश, इन विभीषिकाओं से छुटकारा मिल जाय तो कैसा अच्छा हो।

अधिक साधन सम्पन्न योद्धा अल्प साधन सम्पन्न को गिरा लेता है, दो लड़ते हैं तो एक हारता ही है, इस हार-जीत से शक्ति एवं साधन सम्पन्नता का पता चलता है पर यह निश्चय नहीं होता कि इस हार या जीत से मनुष्य जाति उन भयंकर यंत्रणाओं से बचेगी जो युद्ध के कारण अनेक मार्गों द्वारा उसे सहनी पड़ती हैं। युद्ध में कितने मनुष्य मरे, कितने घायल हुए, कितने असमर्थ अपाहिज बने, कितने बन्दी हुए, कितने स्त्री, बच्चे, वृद्धों को अनाश्रित होना पड़ा, भुखमरी, अकाल, बीमारी आदि के कारण कितनों को ही प्राण त्यागने पड़े, इस प्रकार युद्ध के कारण मानव जाति को जो महान कष्ट सहने पड़ते हैं उनका स्मरण करने मात्र से रोमाँच हो जाते हैं। धन सम्पत्ति का जितना नाश होता है वह भी कंपा देने वाला है। जितनी पूँजी युद्ध में व्यय होती है उतनी यदि मनुष्य को सुखी बनाने में लगी होती, जितनी जनशक्ति को युद्ध का राक्षस खा गया उतनी को यदि मानव सुख शान्ति के ऊपर उत्सर्ग किया गया होता तो निस्संदेह यह संसार स्वर्ग बन जाता।

बाहरी दुनिया, भीतरी दुनिया का चित्र मात्र है। मनुष्यों के मन में जैसी भावनाएं घुमड़ती हैं बाहरी परिस्थितियां उसी के अनुकूल तैयार हो जाती हैं। दूसरों को लूटकर खुद ऐश करने की अन्याय मूलक मनोवृत्ति अशाँति का प्रधान कारण है। यह मनोवृत्ति जितनी ही उग्र होती जाती है, शोषण, दमन, अपहरण का उतना ही प्रचलन बढ़ता जाता है। जैसे रक्त में विषैले पदार्थ बढ़ जाने से शरीर फूट निकलता है। उसी प्रकार अन्याय के आधार पर उत्पन्न हुई असमानता बड़े असंतोष, रोष, ईर्ष्या, प्रतिशोध और प्रतिस्पर्धा के भयंकर रूप में फट पड़ती है, यही युद्ध है। रक्त में जब तक विष है तब तक निरोगता नहीं रह सकती, इसी प्रकार अन्याय-मूलक नीति व्यवस्था के रहते संसार में अमन रहना सम्भव नहीं।

इस महायुद्ध में कौन देश हार गया? कौन हारने वाला है? कौन जीत गया? कौन जीतने वाला है? यह कोई महत्वपूर्ण बात नहीं है। प्रधान प्रश्न यह है कि जिस विषमय नीति के कारण आये दिन युद्ध की विभीषिका सामने आ खड़ी होती है वह नीति हारी या नहीं? जिस विचारधारा के परिणामस्वरूप युद्ध और कलह उत्पन्न होते हैं वह परास्त हुई या नहीं? यदि वह पूर्ववत् जैसी की तैसी बनी हुई हो तो समझना चाहिये कि मनुष्य जाति के भाग्य में अभी ऐसे-ऐसे और भी युद्धों को देखना बदा है।

सच्ची शान्ति की स्थापना करनी हो तो उस दूषित विचारधारा को परास्त करना चाहिए जो युद्धों की जननी है। पारिवारिक, सामाजिक, जातिगत, धार्मिक और राजनैतिक युद्धों का मूल कारण दूसरों के हितों की परवा न करके अपना स्वार्थ साधन करना है। यह नीति जहाँ भी काम कर रही होगी वहीं कलह उत्पन्न होगा। संकीर्ण दायरे में सोचने वाले विचारक अपने देश या जाति के लाभ के लिए दूसरे देश या जाति के स्वार्थों की अवहेलना करने लगते हैं तो उसकी प्रतिक्रिया बड़ी दुखदायी और अशान्ति कारक होती है। यह आवश्यक नहीं कि अपने को सुखी बनाने के लिए दूसरों को लूटा खसोटा ही जाय, तो वह सम्पन्नता उसके लिए अन्ततः दुखदायी ही होती है। समानता, एकता, प्रेम, सहयोग, उदारता और बन्धु भावना के आधार पर सब देशों के मनुष्य आपस में मिलजुल कर रह सकते हैं, एक दूसरे के सुख को बढ़ाने में सहायक हो सकते हैं।

इन दुखदायी युद्धों को रोकने के लिए मनुष्य मात्र में उदारता और प्रेम की भावना का विस्तार करना होगा, देश और जाति के छोटे दायरे में सोचने की अपेक्षा समस्त मानव जाति के हित-अहित की दृष्टि से विचार करना होगा। “हम सुखी रहें और सब चाहे जैसे रहें” यह घातक नीति अनेक विभ्राट उत्पन्न करती है। सबके सुख में जो अपना सुख तलाश किया जाता है वहीं सुख वास्तविक और टिकाऊ होता है। अब समय आ गया है कि मानव जाति में प्रेम, एकता और समानता का जोरों से प्रचार किया जाना चाहिए। आत्म-त्याग, उदारता और परमार्थ का आचरण करने के लिए जनसाधारण को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। जन साधारण के विचार ऐसे परिपक्व होने चाहिए कि उसी विचारधारा की सरकारें कायम हों, शासन सूत्र के संचालकों को उसी नीति का अवलम्बन करना पड़े।

सिपाही सिपाहियों को परास्त कर सकते हैं, तोपें तोपों को तोड़ सकती हैं, परन्तु युद्ध से युद्ध को समाप्त नहीं किया जा सकता। आग से आग को नहीं बुझाया जा सकता। इसी प्रकार क्रोध, ईर्ष्या, घृणा, द्वेष, शोषण या दमन से कलह के दावानल को शान्त नहीं किया जा सकता। इसके लिए तो प्रेम का अमृतमय जल चाहिए। उदारता आत्म-त्याग और परमार्थ की मनोवृत्ति ही युद्धों का अन्त कर सकती है। विश्व की समस्त विवेकवान आत्माओं का अखण्ड-ज्योति आह्वान करती है कि सत्य प्रेम और न्याय के शस्त्रों द्वारा मनुष्य जाति में फैली हुई स्वार्थपरता और दुर्भावना को परास्त करो, बिना इस जीत के युद्ध की जीत का कोई महत्व नहीं है।

=कोटेशन============================

तुम जो दूसरे से चाहते हो, वही दूसरे को पहले दो, तब तुम्हें अनन्त गुणा होकर वही मिलेगा। सेवा चाहते हो तो सेवा करो, मान चाहते हो तो मान दो। यश चाहते हो तो यश दो। ठीक समझ लो दुःख देते हो तो बदले में तुम्हें दुःख ही मिलेगा, अपमान करते हो तो बदले में तुम्हें अपमान ही मिलेगा। जो तुम दोगे वही तुम्हें मिलेगा।

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बुद्धिमान बनने का तरीका यह है कि आज हम जितना जानते हैं भविष्य में उससे अधिक जानने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहें।

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बुरे कर्म का फल अच्छा हो ही नहीं सकता, बुरा कर्म करते हुए जो किसी को फलता-फूलता देखा जाता है वह उसके उस बुरे कर्म का फल नहीं है वह तो पूर्व के किसी शुभ कर्म का फल है जो अभी प्रकट हुआ है। अभी जो वह बुरा कर्म कर रहा है उसका फल तो आगे चल कर मिलेगा।

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