शिक्षा का आदर्श

June 1945

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(श्री गोपाल प्रसाद जी, ‘बंशी’ बेतिया)

जो उद्योग हममें से पशुपन निकाल दे, मक्कारी दूर कर दे, स्वार्थ नष्ट कर दे, अन्यायपूर्ण बल का उपयोग हटा दे, प्रकृति माता के भोगों को न्यायपूर्वक भोग करना सिखा दे, उस उद्योग का नाम शिक्षा है।

शिक्षा वह है, जिसके द्वारा मनुष्य कठिनाइयों को दूर भगाने के योग्य बन सके। जो बुद्धि के विकास में सहायता दे, जिसमें संकट दूर करने के उपाय ढूँढ़ निकालने का बल हो, जिससे स्वावलम्बन की शक्ति मिलती हो।

लिखना-पढ़ना जान लेना शिक्षा नहीं है, यह केवल सरस्वती देवी के मन्दिर में प्रवेश करना है।

‘साविद्या या विमुक्तये’ जो मुक्ति के योग्य बनाती है, वह है विद्या, शेष सब अविद्या हैं।

इस कारण जो शिक्षा, चित्त की शुद्धि न करती हो, मन और इन्द्रियों को वश में रखना न सिखाती हो, निर्भयता और स्वावलम्बन न पैदा करे, उपजीविका का साधन न बताये और गुलामी से छूटने का और आजाद रहने का हौंसला, साहस और सामर्थ्य न पैदा करे, उसमें चाहे जानकारी का खजाना ही भरा हो वह वास्तविक नहीं नकली है; भले ही उसमें अगाध तात्विक कुशलता और भाषा पाण्डित्य हो।

शिक्षित वह है, जिसमें पशुपन का अभाव और मनुष्यत्व का पूर्ण समावेश हो। जैसे चारों वेदों से लदा हुआ गधा पंडित नहीं हो जाता, वैसे ही बड़ी-बड़ी डिग्रियों को धारण करने वाला शिक्षित नहीं कहला सकता।

शिक्षित मनुष्य वह है, जो अपनी शक्तियों को पहचानता है। जो सद्गुणों की महानता समझ कर उनका यथेष्ट उपयोग कर वही शिक्षित मनुष्य का पहला गुण यही है कि उसमें स्वार्थ की मात्रा कम हो क्योंकि नकली शिक्षा पाये हर मनुष्य में स्वार्थ की ही प्रधानता पायी जाती है। वही मनुष्य जो सार्वजनिक हितों को सर्वोपरि समझ कर अपने स्वार्थ को उनके सम्मुख तुच्छ-समझता है हमारी इस परिभाषा में शिक्षित होने की एक प्रधान शर्त को पूरा करता है।

शिक्षा का दूसरा अंग विचार शक्ति का विकास है। शिक्षित मनुष्य का दूसरा गुण यह होना चाहिए कि उसमें विचार शक्ति हो। वह दूसरों की देखा देखी कोई काम न करे बल्कि सदा ही अपनी बुद्धि को काम में लाकर हित अहित विचारकर किसी काम में हाथ डालें। यही पशु और मनुष्य में भेद है। संक्षेप में हमारी शिक्षा ऐसी हो कि उससे बुद्धि का विकास हो और हम काल की गति के अनुसार उन्नति के पथ का अवलम्बन कर सकें।

शिक्षा का तीसरा अंग अपने स्वरूप को पहचानना, अपने जीवन का उद्देश्य मालूम करना है। खाना पीना, बच्चों को पालना, इन्द्रिय सुख-ये बातें तो पशु में भी विद्यमान हैं, यदि हमने भी पढ़-लिखकर ऐसा ही जीवन व्यतीत किया तो हमारा पढ़ना-लिखना बेकार है। आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी दैवी शक्तियों का विकास कर उनको दूसरों की सेवा में लगा दें।

शिक्षित मनुष्य में अपना टुकड़ा कमाकर खाने योग्यता का होना परमावश्यक है। जो मनुष्य अपने आपको पढ़ा लिखा कह कर स्वतंत्र टुकड़ा कमाने की भी शक्ति नहीं रखता, उसका पढ़ना लिखना व्यर्थ है। अतएव शिक्षा प्रणाली में उद्योग, दस्तकारी की शिक्षा का भी स्थान मिलना चाहिए। इससे मानसिक दासता भी दूर की जा सकेगी। शिक्षा का एक गुण धार्मिक सहनशीलता भी है। शिक्षित व्यक्ति वह है जो अपने विरोधी को वैसी ही मानसिक स्वतंत्रता देने का पक्षपाती हो जैसे वह अपने लिए चाहता है।


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