(योगिराज शिवकुमार शास्त्री)
वृद्धावस्था और रोग को दूर कर सौंदर्य को स्थिर रखना मन के अधीन है। मनुष्य एक मनोमय प्राणी है। मन की प्रत्येक गति का प्रभाव शरीर पर बिना पड़े नहीं रहता। क्रोध करते ही भौहें तन जातीं, आंखें अपनी स्वाभाविकता त्याग कर लाल हो जातीं, मुखाकृति की मनोहरता नष्ट होकर टेढ़ी और भयंकर हो जाती है। बार-बार क्रोध करने और निर्दयता तथा क्रूरता के व्यवहार से मनुष्य की सुन्दरता नष्ट हो जाती है। क्रोधी और क्रूर मनुष्य का मुख भयंकर, टेढ़ा और कुरूप हो जाता है। ठीक इसी तरह से लोभी और लालची मनुष्य का मुख भी सुडौल और सुन्दर नहीं होता, लोभवश या धन के लालच से मनुष्य इतना दौड़ता और परिश्रम करता है कि उसकी सुन्दरता नष्ट हो जाती है। परिश्रम करना बुरा नहीं है। पर “अति सर्वत्र वर्जयेत्”। अति नहीं होना चाहिये। लोभ मनुष्य से अत्यधिक परिश्रम करा देता है और अत्यधिक परिश्रम सुन्दरता को नष्ट कर देता है। अत्यधिक परिश्रम से मनुष्य के गाल (कपोल) पिचक जाते हैं, आंखें धंस जाती हैं, गोरा रंग साँवला हो जाता है, शरीर की सारी कोमलता नष्ट हो जाती है, शरीर दुर्बल हो जाता है। साराँश यह है कि शरीर की सुँदरता नष्ट हो जाती है। लोभ के कारण मनुष्य के हृदय में धन कमाने की चिंता हो जाती है और चिन्ता वह वस्तु है जो शरीर को पीला कर देती है। इससे चिन्ता करने वाला पुरुष हो या स्त्री उसमें सच्चा प्रेम नहीं होता। धन का गुलाम प्रेमी नहीं हो सकता और जिसमें प्रेम नहीं है उसमें कपट, धूर्तता, छल, विश्वासघात और निर्दयता आदि दुर्गुण आपसे आप आ जाते हैं और यह मानी हुई बात है कि कपटी, छली, निर्दयी और विश्वास-घातक की मुखाकृति में सुन्दरता नहीं रह सकती। प्रायः देखा गया है कि लोभी और लालची भोजन भी अधिक करते हैं और अधिक भोजन भी सुँदरता को नष्ट कर देता है।
क्रोध और लोभ के बाद मोह का नम्बर है। मोह अज्ञान को कहते हैं। अज्ञान ही सारी विपत्तियों की जड़ है। ज्ञानी का सुख उज्ज्वल और उत्साह तथा प्रसन्नता से भरा रहता है। अज्ञानी अन्धकार में रहने के कारण उत्साह-हीन होता है।
मोहवान् और आलसी पुरुष सर्वदा, उदास, उत्साहहीन और अप्रसन्न रहता है। अप्रसन्नता भी सुन्दरता को घटाती है और प्रसन्नता सुन्दरता को बढ़ाती है। इसके सिवा प्रसन्नता स्वास्थ्य की रक्षा करती और युवावस्था को स्थिर रखती है। सर्वदा प्रसन्न रहने से फेफड़ा निरोग और चौड़ा होता है- मुखाकृति सुँदर हो जाती है। पर सर्वदा प्रसन्न वही रह सकता है जो काम, क्रोध, लोभ और मोह से परे हो। काम, क्रोध और मोह से परे रहने वाला मनुष्य प्रेममय होता है और प्रेम वह रसायन है जो शरीर को सर्वदा युवा, निरोग और सुन्दर बनाये रहता है। प्रेममयी, सती, पार्वती, सीता, सावित्री, शकुँतला, शची, सरस्वती, रुक्मणी, दमयंती, पद्मिनी और संयोगितादि सभी रूपवती और सुन्दरी थीं। प्रेम मनुष्य को सुन्दर, मनोहर और आकर्षक बनाता है और द्वेष, शरीर को कुरूप और भयंकर बना देता है।
प्रेममय हो जाओ प्रेम जीवन को सफल कर देता है, सच्चा प्रेमी कभी कुरूप, रोगी, भयंकर, वृद्ध और अप्रसन्न नहीं देखा गया। हम सत्य कहते हैं मनुष्य वृद्ध तब होता है जब उसके शरीर में प्रेम की मात्रा बहुत कम रह जाती है। मकरध्वज खाने, पाउडर लगाने और खेजाब का प्रयोग करने से कोई युवा और सुन्दर नहीं हो सकता। सौंदर्य और यौवन को स्थिर रखने वाली सबसे अच्छी औषधि प्रेम है। प्रेम एक स्वर्गीय वस्तु है यह मनुष्य को सरस, सुशील और सुन्दर बना देता है।