मिथ्या भय मत करो।

June 1945

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(डॉ. रामचरण जी महेन्द्र, एम. ए. डी. लिट्)

आत्महीनता से मुक्ति के उपाय

नब्बे फीसदी व्यक्ति किसी काल्पनिक डर से कालान्तर रहा करते हैं। “हम कुछ नहीं, क्षुद्र हैं, दीन हीन हैं, दूसरे हमसे उत्तम हैं, बड़े हैं, सर्वगुण सम्पन्न हैं।” ऐसी भावना ही उन्हें विदग्ध किया करती है। ये सब मिथ्या कल्पनाएं हैं। ऐसी भय सूचक कल्पनाएं अन्तःकरण की समस्त उत्तम योजनाओं को क्षण भर में धूल में मिला दिया करती हैं।

भय जीवन का सबसे बड़ा शत्रु है। यह एक ऐसा महाराक्षस है जिसकी कल्पना मात्र से हजारों जीवन बर्बाद हो रहे हैं तथा समय से पूर्व ही काल के ग्रास बन रहे हैं। जिस प्रकार तेज आँधी, वर्षा कोमल पुष्प, पौधों, कलिकाओं को नष्ट-भ्रष्ट कर डालती हैं उसी प्रकार भय रूपी दानव की कल्पनाएं अबोध, अविकसित हृदयों पर अपनी काली परछांई डालकर सदैव के लिए उन्हें बर्बाद करती है।

भय हमारी अज्ञानता का सूचक है। ज्यों-ज्यों मानव मन में अज्ञानता का अंधेरा बढ़ता है त्यों-त्यों मनुष्य अपना विकृत स्वरूप देखता है। उसका वास्तविक सिंह जैसा बहादुर व्यक्तित्व अंधकार के बोझ से विलीन सा हो जाता है। अत्यन्त खेद का विषय है कि अज्ञानीजन केवल अपने तक ही दुःख, दर्द, चिंता, कायरता, संकोच, लज्जा, अविश्वास के विचार सीमित नहीं रखते, प्रत्युत अपने आस-पास के पड़ौसियों, अपने मित्रों, यहाँ तक कि अपने बच्चों तक में वैसे ही अधोगामी संस्कार दृढ़ कर देते हैं और इसका दुष्परिणाम उन बेचारों को पूर्ण जीवन भर भुगतना पड़ता है। कायरता तथा भय हमारे मनोबल को क्षीण करते हैं तथा हमारे मानसिक विकास में बाधा पहुँचाने वाले हैं। ये हमारी तुलनात्मक शक्तियों को विकृत कर देते हैं।

अपना दृष्टिकोण बदल दीजिए-

अभी तक आप मन को अप्रीतिकर (npleasant) अस्वास्थ्यकर तथा चिंता के विचारों में लगाये रहे हैं। इस प्रकार के डरपोक विचारों द्वारा तुमने भय के वातावरण की सृष्टि कर ली है। विचार एक महाशक्तिशाली चुम्बक है। यह वैसी ही वस्तुएं वायुमंडल से आकर्षित करेगा जैसा यह स्वयं है। अतः हमें उचित है कि मन को जीवन के अप्रीतिकर पहलुओं से सदा सर्वदा के लिए हटा लें। उधर की बातें सोचें ही नहीं। जब मनुष्य का दृष्टिकोण बदल जाता है तो वह लज्जा तथा संकोच के स्थान पर विश्वास तथा श्रद्धा से कार्य लेता है, कायरता बदल कर वीरत्व का तेज धारण कर लेता है, ग्लानि के स्थान पर भविष्य की उज्ज्वल आशा से प्रकाशित हो जाता है।

प्रिय पाठक! तनिक सोचिए; विचार कर देखिए-यदि आप उम्र भर दूसरों से डरते ही रहेंगे, स्वयं अपने आप को नहीं सम्हालेंगे, अपनी आत्मिक शक्तियों को प्रकाशित नहीं करेंगे तो आपका ठौर ठिकाना कहाँ रहेगा? कौन तुम्हें पूछेगा? तुम क्या कर सकोगे?

आपको चाहिए कि फिजूल के डरों, कल्पित चिंताओं तथा कुविचारों को हृदय केन्द्र से सदा के लिए बर्हिगत कर दें। अपने आजू-बाजू निर्भयता तथा निश्चिंतता के वातावरण की सृष्टि करें। लोगों से कहें कि वे भी हमारी तरह किसी से भयभीत न हों। पुराने आक्रमणों, दुःखदायी प्रसंगों तथा अंधकार पूर्ण घटनाओं को सदा के लिए भूल जायं। मन को भविष्य के दुःख की गड़बड़ी में न पड़ने दें।

भय के विचार हमें उद्विग्न कर देते हैं। कुछ काल के लिए हम पागल से हो जाते हैं। हमें कर्त्तव्य का मार्ग नहीं दिखता। अन्तःकरण की समस्वरता (Mental Harmony) नष्ट हो जाती है। हमें अच्छा भी बुरा मालूम होने लगता है हम अपनी मुसीबतों को स्वयं बना डालते हैं।

दूसरे क्या सोचते हैं?

आप इस पचड़े में न पड़िये कि दूसरे आपके विषय में क्या विचार रखते हैं? क्या-क्या कहते हैं, तथा उन्होंने आपको कैसा समझा है? आप यह क्यों सोचते हैं कि आपके विषय में उनके विचार उत्तम नहीं हैं या वे आपकी आलोचना करने में संलग्न रहते हैं। यदि आप थोड़ी देर के लिए यही सोच लें कि वे हमारे विषय में बड़ी उत्तम धारणाएं रखते हैं, हमें ऊंचा समझते हैं, हमारे गुणों पर दृष्टि रखते हैं। वे हमारे विषय में कोई भी बुरी बात नहीं सोच सकते क्योंकि हम वैसे हैं ही नहीं, हम तो उन्नति के लिए जन्मे हैं और प्रत्येक दिन कुछ न कुछ उन्नति कर रहे हैं। सुभावनाओं को मनो-मन्दिर में सजा रहे हैं तथा महत्वपूर्ण विचारों के चिंतन में ही संलग्न रहते हैं।

जो व्यक्ति दूसरों के विचारों, मन्तव्यों, तथा टीका-टिप्पणी पर निर्भर रहता है वह सदैव नीचे गिरता है। लोगों के हाथों का खिलौना बन जाता है। जरा-जरा सी बात में संसार के स्वार्थी पुरुष उसे नाच नचाते है, पागल बताते हैं।

लोगों की हंसी की ओर ध्यान न दीजिए-

सर्वोत्कृष्ट सिद्धान्त यही है कि आप लोगों की आलोचना की ओर से नेत्र मूँद लो। यदि कोई तुम्हें चिढ़ाये, बुरा भला कहे और तुम उसकी ओर ध्यान न दो तो हंसी करने वाले को बड़ा दुःख होता है। कटुवाक्य उलट कर उसी का हृदय बेधते हैं।

हमें दुनिया में निवास करना है, यहाँ हंसी उड़ाने वाले थोड़े बहुत सदैव रहेंगे। आज चार हैं तो कल आठ हो जायं या संभव है दो हो जायं। जब यही संसार का चक्र है तो हमें हंसी उड़ाने वाले की धमकी से भयभीत हो विक्षुब्ध होने का कोई प्रयोजन नहीं। संसार ने, इस परम स्वार्थी दुनिया ने, अच्छे से अच्छे व्यक्ति की आलोचना की तथा खूब हंसी उड़ाई है। यहाँ तक कि इतने श्रेष्ठ प्रभु श्रीरामचन्द्र जी जो एक वचनी, एक पत्नि व्रत धारण करने वाले थे, वे भी लोगों की हंसी का कारण बने। श्री कृष्ण भक्त, सत्य-वचनी धर्मराज युधिष्ठिर की भी हंसी उड़ाने में लोगों ने कमी नहीं की। महाराज शिवाजी ने बाल्यावस्था से ही स्वतंत्रता का आन्दोलन प्रारंभ किया था। उस समय उनके घरवाले तक उनकी हंसी उड़ाते थे। नौकरी तथा दासत्व का मार्ग छोड़ स्वतंत्र कार्य करने का निश्चय सुनकर कितने ही लोगों ने लोकमान्य तिलक की कम हंसी नहीं उड़ाई। विज्ञान वेत्ताओं, तत्व वेत्ताओं तथा प्रसिद्ध व्यक्तियों के जीवन में एक अवसर ऐसा अवश्य आया जब उनकी खूब अवहेलना की गई किन्तु वे कर्त्तव्य पथ पर स्थिर रहे।

संसार की बंदर घुड़की-

बंदर जैसे दूर से घुड़की देकर तुम्हें डराना चाहता है किन्तु यदि तुम उसका सामना करते हो तो उलटे पांव भागता है, उसी प्रकार की मनोवृत्ति संसार की है। दूर-दूर से लोग तुम्हारी हंसी उड़ाते हैं किन्तु जब तुम उनका विरोध करते हो तो वे दूर भाग खड़े होते हैं। दूरदर्शिता से विचार करो। स्वार्थी मनुष्यों की हंसी के फंदे में पड़ कर भय के बंधन में न पड़ो। जब कभी ऐसा अवसर सामने आवे तो दृढ़ निश्चय से काम लो। लोगों को हंसने दो, गला फाड़ने दो किन्तु तुम अपने अटल उद्देश्य में प्रवृत्त रहो। जनता की मनोवृत्ति का थोथापन पहचानो।

साहस हमेशा बाजी मारता है-

साहस को देखकर भयभीत होता है और भाग खड़ा होता है। आप साहस से मित्रता कर लीजिए फिर भय स्वयं दूर हो जाएगा।


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