गायत्री का अर्थपूर्ण संदेश।

June 1945

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(गताँक का शेषाँश)

भर्गो-पापनाशक। संसार में मैल निरन्तर पैदा होते रहने का नियम है। गतिशीलता के साथ मल उत्पन्न होने का घनिष्ठ संबंध है। शरीर में जब तक जीवन है, छिद्रों द्वारा मल निकलते रहने का क्रम भी जारी रहेगा। अवतार या देवदूतों के आने से संसार पवित्र हो जाता है परन्तु फिर उसमें मैलों की वृद्धि होने लगती है। मन का भी यही स्वभाव है, नित्य उसमें नये मल उत्पन्न होते रहते हैं। इन मैलों का नाम ही पाप है। इन पापों को नित्य हटाते रहना हमारे दैनिक कार्यक्रम में शामिल होना चाहिए। एक बार सफाई कर देने से, एक बार पवित्रता स्थापित कर देने से ही काम नहीं चल सकता क्योंकि सृष्टि के नियमानुसार मल की उत्पत्ति कभी बन्द नहीं हो सकती। सफाई के दूसरे क्षण बाद ही मल उत्पन्न होने शुरू हो जाते हैं। इसलिए मलों की सफाई की ओर, उनको हटाने, नाश करने की ओर, सदा सतर्कतापूर्वक प्रयत्न जारी रखना चाहिये। मन को जरा ही ढील मिली कि कुविचार आये, जीवन पर से जरा सा अंकुश हटाया कि दुष्कर्मों की ओर प्रवृत्ति हुई, शरीर की ओर जरा सी लापरवाही की, कि बीमारियों का प्रकोप हुआ। इसी प्रकार समाज की सामूहिक या व्यक्तिगत बुराइयों, बदमाशियों की ओर से निगाह चूंकि कि उनका आक्रमण अपने ऊपर हुआ। पापों की सेना क्षण-क्षण में चारों ओर से अपने ऊपर आक्रमण करती है इन आक्रमणकारियों से निरंतर युद्ध जारी रखने का ही गीता ने 18 अध्यायों में उपदेश है। गायत्री ने एक शब्द ‘भर्गो’ के द्वारा हम से कहा है कि पापों से सावधान रहो, उनके आक्रमण से सतर्क रहो और इन दुष्टों का नाश करने के लिए निरन्तर युद्ध करते रहो।

देवस्य-देने वाला-दिव्य। यह गुण सर्वोपरि है यदि तरह-तरह की योग्यताएं, शक्तियाँ, सामर्थ्य मनुष्य में हों परन्तु उनका उपयोग और किसी को कुछ न मिलता हो तो वह निष्फल है। समुद्र के गर्भ में लाखों मन रत्न भरे पड़े हैं, जमीन के अन्दर लाखों मन सोना दबा पड़ा है पर यदि वह किसी के काम नहीं आता तो उसके होने न होने से किसी को क्या प्रयोजन? शक्ति और योग्यता की शोभा उसके बाँटने में है। देने वाले को देवता कहा जाता है। यह देना-दिव्य होना चाहिये, जिससे सुख शान्ति की वृद्धि हो। पाप तापों के दुःखदायी परिणाम उपस्थित करने वाले उपहार तो असुर भी दिया करते हैं- देवता दिव्य वस्तु देते हैं। सद्ज्ञान सर्वश्रेष्ठ दिव्य वस्तु है। अपने विचार और कार्यों द्वारा दूसरों को ऐसे मार्ग पर चलने के लिये प्रेरणा देनी चाहिये जिससे वे सत् की ओर कदम बढ़ावें। वह वाणी निरर्थक है जिसके पीछे आचरण का बल न हो, दूसरों को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा, शिक्षा, जितनी वाणी या लेखनी द्वारा दी जाती है उससे कई गुनी अधिक आचरण द्वारा दी जा सकती है। आचरण ऊंचे बनाने चाहिये, दूसरों को अच्छी, ऊंची, सत्पथ गामी सलाह देनी चाहिये, संसार में सुख शान्ति को, सत्य, धर्म को, बढ़ाने के लिए जितना कुछ भी परिश्रम अपने से किया जा सके करना चाहिये। सेवा-जीवन का सर्वश्रेष्ठ पुनीत काम है, अपने आपे की तथा दूसरों की सेवा करना हमारे हर एक काम में रहे तो हम दिव्य-देने वाले देवतत्व को धारण कर सकते हैं।

धीमहि-धारण करें। केवल तोते की तरह रटें नहीं, वाचक ज्ञानी न बनें। लम्बी-चौड़ी हाँकने वाले परोपदेश में पंडित दिखाने वाले, सिंह की खाल ओढ़ कर अपने असली ढांचे को छिपाये रखने वाले सियार, इस दुनिया में बहुत हैं। धर्मग्रन्थों को वर्षों तक घोट-घोट कर पीने वाले, नित्य ऐसे होते हैं जिनका अन्तःकरण बड़ा मैला होता है। उनकी गुप्त करनी प्रकट कथनी के बिल्कुल विपरीत होती है। ऐसी वंचकता दुनिया में स्वार्थ सिद्धि के लिए किसी हद तक कारगर भले ही हो पर यथार्थ में वह व्यर्थ है, उसका कुछ भी महत्व नहीं है। आत्मा पर संस्कार वाचालता से नहीं पड़ते वरन् श्रद्धा एवं विश्वास से पड़ते हैं। सत्-मार्ग की श्रेष्ठता पर इतनी गहरी श्रद्धा होनी चाहिये कि उसका लोभ कभी त्यागा ही न जा सके। असत्-मार्ग से इतनी घृणा होनी चाहिए कि उधर आँख उठा कर देखने को भी कभी जी न करे। गहरे अन्तराल में हृदय के अन्तरंग गह्वर में दुःख नाशक, सुख स्वरूप, तेजस्वी, पाप नाशक, दिव्य प्राण स्वरूप ब्रह्म की धारणा होनी चाहिये। गायत्री माता हम मनुष्यों को उपदेश करती है कि-पुत्रों! ऐसी ही धारणा करो, आत्माओं! अपने वास्तविक रूप में, आत्म भाव में, अवस्थित हो जाओ! तभी तुम्हारा जीवन-लक्ष पूरा होगा।

इस उपरोक्त महान अनुष्ठान की साधना के लिए क्या कार्य करना चाहिए? किस प्रकार यह सब सम्भव है? इस प्रश्न का उत्तर गायत्री के अंतिम चरण में दिया हुआ है-”धियो यो नः प्रचोदयात्” इस पद में बुद्धि को प्रेरणा देने की बात कही गई है। कल्पना की तरंगों में अनेक व्यक्ति आकाश में उड़ते फिरा करते हैं। वाचालता की तरह यह काल्पनिकता भी दिल बहलाने की वस्तु है। उपरोक्त ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त करने के लिये कल्पना मात्र करके न रह जाना चाहिये वरन् बुद्धि का उपयोग करना चाहिये। बुद्धि में प्रेरणा होती है। बुद्धि वह तत्व है जिसकी प्रगति जिस भी दिशा में हो जाती है उधर ही मोर्चे पर मोर्चे फतेह करती है। यह तलवार जिस क्षेत्र में उतर पड़ती है उधर ही रास्ता साफ करती चली जाती है। जीवन के जिस क्षेत्र में भी मनुष्य अपनी बुद्धि प्रवृत्त प्राप्त करता है उधर ही असाधारण सफलताएं प्राप्त करता है। छोटे-छोटे आदमियों ने इस संसार में बड़े-बड़े काम किये हैं, इन सफलताओं का रहस्य यह है कि उन्होंने अपनी बुद्धि को एक निश्चित मार्ग में जुटा दिया था। एकाग्र होकर जिस मार्ग में भी इच्छा शक्ति को लगाया जाता है उधर ही सफलता देने वाले अनेकों उपाय प्राप्त होने लगते हैं। ब्राह्मी स्थिति प्राप्त करने के लिए भी बुद्धि की प्रेरणा आवश्यक है। स्वामी विवेकानन्द जी महाराज कहा करते थे कि “जितने मनोभोग और परिश्रम में एक विद्यार्थी मैट्रिक पास करता है उतने ही प्रयास से एक साधक परमात्मा को प्राप्त कर सकता है।” बुद्धि का ऐसा चमत्कार है कि वह कठिन कार्यों को हल कर सकती है, फिर परमात्मा को प्राप्त करना तो एक सरल कार्य है क्योंकि वह वास्तविक, स्वाभाविक, सच्चा और आवश्यक है। इस प्रकार के सच्चे कार्य सदा सरल ही होते हैं।

अपनी बुद्धि को अपने अन्दर प्राण शक्ति भरने के कार्य पर जुटाना चाहिए, यही सच्ची साधना है। अपनी आध्यात्मिक स्थिति को ऊंचा करने, सात्विक सद्गुणों को धारण करने का प्रयास जब सद्बुद्धि द्वारा आरम्भ होता है तो स्वल्पकाल में ही आत्मा-परमात्मा के निकट पहुँच जाता है और लौकिक सर्वपारलौकिक अनेक सिद्धियाँ उसके करतल हो जाती हैं। इस जीवन में ही वह स्वर्ग और मोक्ष के आनन्द का रसास्वादन करने लगता है, गायत्री माता की उपासना के वरदान से उसके लिए कोई भी आवश्यकता अपूर्ण नहीं रह जाती।

गायत्री में ईश्वर प्रार्थना भी है। परमात्मा से याचना करने योग्य केवल एक ही पदार्थ है- “वह हमें सद्बुद्धि प्रदान करे।” शेष साँसारिक पदार्थ तो अपने पुरुषार्थ से उपार्जन किये जा सकते हैं या अपनी मनोभूमि को ऐसा बनाया जा सकता है कि उन पदार्थों के बिना भी काम चल सके। परमात्मा जिस पर प्रसन्न होता है उसे सद्बुद्धि प्रदान करता है अथवा यों कहना चाहिए कि जिसकी सत्बुद्धि होती है उस पर परमात्मा प्रसन्न रहता है।

गायत्री में बहुवचन का प्रयोग हुआ है। ‘मेरी बुद्धि को प्रेरित कीजिये, ऐसा नहीं है वरन्-हमारी बुद्धि को प्रेरित कीजिए ऐसा है। मनुष्य को ‘मैं’ ‘एकाँगी’ ‘अकेला’ की स्वार्थमयी दृष्टि रखकर अपने को संकुचित नहीं बनाना चाहिए वरन् ‘हम सब’ के स्वार्थ की उदार दृष्टि से हर बात पर विचार करना चाहिये। जिसमें सबका लाभ हो उसमें अपना लाभ और जिसमें सबकी हानि हो उसमें अपनी हानि समझनी चाहिये। अपने को समाज का एक अंग मानना, आत्मा को परमात्मा का एक भाग मानना, खुदी को खुदा में जोड़ना ही सच्ची आध्यात्मिकता है। जैसे-जैसे गायत्री की अनुपम शिक्षाओं पर आप विचार करेंगे वैसे ही वैसे इस प्रकार के नए-नए सद्विचार आपको प्रेरित होते जावेंगे।


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