मृत्यु की घड़ी

June 1945

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मृत्यु किस प्रकार होती है? इस सम्बन्ध में तत्वदर्शी योगियों का मत है कि मृत्यु से कुछ समय पूर्व तो मनुष्य को बड़ी बेचैनी, पीड़ा और छटपटाहट होती है क्योंकि सब नाड़ियों में से प्राण खिंचकर एक जगह एकत्रित होता है, किन्तु पुराने अभ्यास के कारण वह फिर उन नाड़ियों में खिसक जाता है, जिससे एक प्रकार का आघात लगता है, यही पीड़ा का कारण है। रोग, आघात या अन्य जिस कारण से मृत्यु हो रही हो तो उससे भी कष्ट उत्पन्न होता है। मरने से पूर्व प्राणी कष्ट पाता है चाहे वह जबान से उसे प्रकट कर सकेगा न कर सके। लेकिन जब प्राण निकलने का समय बिल्कुल पास आ जाता है तो एक प्रकार की मूर्छा आ जाती है और उसे अचेतनावस्था में प्राण शरीर से बाहर निकल जाते हैं। जब मनुष्य मरने को होता है तो उसकी समस्त बाह्य शक्तियाँ एकत्रित होकर अन्तर्मुखी हो जाती हैं और फिर स्थूल शरीर से बाहर निकलती हैं। पाश्चात्य योगियों का मत है कि जीव का सूक्ष्म शरीर बैंगनी रंग की छाया लिए हुए शरीर से बाहर निकलता है। भारतीय योगी इसका रंग शुभ्र-ज्योति स्वरूप सफेद मानते हैं। जीवन में जो बातें भूलकर मस्तिष्क के सूक्ष्म कोष्ठकों में सुषुप्त अवस्था में पड़ रहती हैं वे सब एकत्रित होकर एक साथ निकलने के कारण जागृत एवं सजीव हो जाती हैं। इसलिए कुछ ही क्षण के अन्दर जीव अपने समस्त जीवन की घटनाओं को फिल्म की तरह देख जाता है। इस समय मन की आश्चर्यजनक शक्ति का पता लगता है। उनमें से आधी भी घटनाओं, मानसिक चित्रों को देखने के लिए जीवित समय में बहुत समय की आवश्यकता होती है पर इन क्षणों में वह बिल्कुल ही स्वल्प समय में पूरी-पूरी तरह मानस पटल पर घूम जाती है। इस सबका जो सम्मिलित निष्कर्ष निकलता है वह सार रूप में संस्कार बनकर मृतात्मा के साथ हो लेता है। कहते हैं कि यह घड़ी अत्यन्त ही पीड़ा की होती है। एक साथ हजार बिच्छुओं के दर्शन का कष्ट होता है। कोई मनुष्य भूल से अपने पुत्र पर तलवार चला दे और वह अधकटी अवस्था में पड़ा छटपटा रहा हो उस दृश्य को देखकर एक सहृदय पिता के हृदय में, अपनी भूल के कारण प्राण प्रिय पुत्र के लिए ऐसा भयंकर काण्ड उपस्थित करने पर जो दारुण व्यथा उपजती है, ठीक वैसी ही पीड़ा उस समय प्राणी अनुभव करता है क्योंकि बहुमूल्य जीवन का अक्सर उसने वैसा सदुपयोग नहीं किया होता जैसा कि करना चाहिये। जीवन जैसी अमूल्य वस्तु का दुरुपयोग करने पर उसे उस समय मर्मान्तक मानसिक वेदना होती है। पुत्र के मरने पर पिता को शारीरिक नहीं मानसिक कष्ट होता है, उसी प्रकार मृत्यु के ठीक समय पर प्राणी की शारीरिक चेतनायें तो शून्य हो जाती हैं पर मानसिक कष्ट बहुत भारी होता है। रोग आदि की शारीरिक पीड़ा तो मृत्यु से कुछ क्षण पूर्व ही जब कि इन्द्रियों की शक्ति अन्तर्मुखी होने लगती है तब ही बन्द हो जाती है। मृत्यु से पूर्व शरीर अपना कष्ट सह चुकता है। बीमारी से या किसी आघात से शरीर और जीव के बीच के बन्धन टूटने आरम्भ हो जाते हैं। डाली पर से फल उस समय टूटता है जब उसका डंठल असमर्थ हो जाता है। उसी प्रकार मृत्यु उस समय होती है जब शारीरिक शिथिलता और अचेतना आ जाती है। ऊर्ध्वरंध्रों में से अक्सर प्राण निकलता है मुख, आँख, कान नाक प्रमुख मार्ग हैं। दुष्ट वृत्ति के लोगों का प्राण मल मूत्र मार्गों से निकलता देखा जाता है। योगी लोग कपाल, ब्रह्मरन्ध्र में से प्राण परित्याग करते हैं।

शरीर से जीव निकल जाने के बाद वह एक विचित्र अवस्था में पड़ जाता है। घोर परिश्रम से थका हुआ आदमी जिस प्रकार कोमल शय्या प्राप्त करते ही निद्रा में पड़ जाता है। उसी प्रकार मृतात्मा को जीवन भर का सारा श्रम उतारने के लिए एक निद्रा की आवश्यकता होती है। इस नींद से जीव को बड़ी शान्ति मिलती है और आगे का काम करने के लिये शक्ति प्राप्त कर लेता है। यह नींद या तंद्रा कितने समय तक रहती है इसका कुछ निश्चित नियम नहीं है। यह जीव की स्थिति के ऊपर निर्भर है। बालकों को और कड़ी मेहनत करने वालों को अधिक नींद चाहिए, किन्तु बुड्ढ़े और आराम तलब लोगों का काम थोड़ी देर सोने से ही चल जाता है। साधारणतः तीन वर्ष की निद्रा काफी होती है। इसमें से एक वर्ष तक बड़ी गहरी नींद आती है, जिससे कि पुराना थकान मिट जाय और सूक्ष्म इन्द्रियाँ संवेदनाओं को अनुभव करने के योग्य हो जावें। दूसरे वर्ष उसकी तन्द्रा भंग होती है और पुरानी गलतियों के सुधार तथा आगामी योग्यता के सम्पादन का प्रयत्न करता है तीसरे वर्ष नवीन जन्म धारण करने की खोज में लग जाता है। यह अवधि एक मोटा हिसाब है। कई विशिष्ठ व्यक्ति छः महीने में ही नवीन गर्भ में आ गये हैं, कई को पाँच वर्ष तक लगे हैं। प्रेतों की आयु अधिक से अधिक बारह वर्ष समझी जाती है। इस प्रकार दो जन्मों के बीच का अन्तर अधिक से अधिक बारह वर्ष हो सकता है।


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