(शिव प्रताप श्रीवास्तव, असोथर)
जिनमें मानसिक बल नहीं है वे ही अपना दोष स्वीकार करने में थरथराते हैं वे यह नहीं सोचते कि अपराध स्वीकार करना हृदय की दुर्बलता न होकर हृदय का महत्व है। अपना दोष प्रकट कर देने ही से मनुष्य निर्दोष होता है, उसके मन को शान्ति प्राप्त होती है, चरित्र निर्मल होता है और अयश के बदले सुयश प्राप्त होता है। अनुचित कर्म करके दोष स्वीकार करना साधु-पुरुष का काम है, जो लोग दोष छिपाते हैं उन्हें चोर समझना चाहिये। जो अपना दोष जितना ही छिपाने की चेष्टा करता है उतना ही वह अपने को और दोषी बनाता है। अपने दोषों को छिपाकर कोई साधु नहीं कहला सकता, साधु तभी कहला सकता है जब वह साफ-साफ अपना दोष प्रकट कर दे और अपने किये हुये दोषों पर पश्चाताप करे। दोष छिपाने के लिए झूठ बोलना एक दोष के रहते दूसरा दोष करने के बराबर है। दोष से दोष का उद्धार कभी नहीं हो सकता। जिस प्रकार आग बुझाने के लिये पानी की आवश्यकता है उसी प्रकार दोष दूर करने के लिये सत्य की आवश्यकता है। इसे भली-भाँति याद रखो कि एक झूठ के छिपाने के लिये दूसरे झूठ की आवश्यकता पड़ती है, अर्थात् जहाँ अपने दोष को छिपाने के लिये मुँह से एक बात झूठ निकली वहाँ दूसरी झूठ आपसे आप आ खड़ी होती है और यही वस्तु मनुष्य के मानसिक तथा पारलौकिक पतन का कारण होती है। जिस प्रकार परदोष दर्शन बुरा है उसी प्रकार अपने दोषों को छिपाना भी बुरा है।
जब अपने से कोई भूल हो जाय तो बहादुरी के साथ उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। सुधार और उन्नति का यही मार्ग है।