(ले.-श्री जिज्ञासु)
अलख, लखि परे न यह माया।
लगा पलीता जग का कोना-कोना गया जलाया।
हरे भरे उपवन को भीषण मरघट गया बनाया।
त्राहि-त्राहि, मैं मरा मिटा रे, दौड़ो मुझे बचाओ
बर्बरता से पीड़ित होकर मनुष्यत्व चिल्लाया॥
शाँति का धर के गला दबाया ॥
अलख, लखि परे न यह माया ॥
मानव-मानव की सत्ता को बल से कुचल न डाले।
शक्ति हीन को पीस न डालें, जग में ताकत वाले॥
आज जलाई गई निरीहों, की अनगणित चिताएं।
निरपराध निर्दोषों के लोहू के बहे पनाले॥
चतुर्दिशि करुणा क्रन्दन छाया ॥
अलख, लखि परे न यह माया ॥
हरे! आज इस मानवता की लाज न जाने पावे।
धर्म भूमि पर विजय पताका पाप न प्रभु फहरावे।
शैतानी सत्ता के सम्मुख, इस पशुबल के आगे-
सत्य विचारा हार न जावे, न्याय न गला कटावे।
धर्म पर है संकट आया ॥
अलख, लखि परे न यह माया ॥
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