साधकों का पृष्ठ

July 1940

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अखंड ज्योति परिवार के साधकों के अनुभव अब इस पृष्ठ में छपा करेंगे। जिन जिज्ञासुओं को हमारे बताये हुए साधनों के अनुसार जो अनुभव हों वह संक्षिप्त में प्रकाशनार्थ भेजते रहे। जिससे दूसरे साधक भी अनुभव प्राप्त करते रहें। इस बार केवल “मैं क्या हूँ?” पुस्तक के बारे में ही पत्र आये हैं उनमें से कुछ को संक्षिप्त रूप से प्रकाशित किया जा रहा है।

(1)

बहुत प्रतीक्षा के बाद आपकी भेजी हुई ‘मैं क्या हूँ?’ पुस्तक मिली। छपाई को देखकर जो निराशा हुई थी वह पुस्तक पढ़ने के बाद दूर हो गई। पुस्तक में बताये हुए साधनाओं का अभ्यास कर रहा हूँ। मुझे बड़ी आध्यात्मिक शाँति मिल रही है। अब मेरे जीवन की दिशा ही बदल गई है। जिन लोगों को जिन्दगी भर मैंने दुश्मन समझा अब मुझे वे दोस्त दिखाई दे रहे हैं।

-रामगोपाल शर्मा, बराडीह

(2)

‘मैं क्या हूँ?’ पुस्तक के बताये हुए अभ्यास को दो सप्ताह से आरंभ क्रिया है। इस थोड़े से समय में ही मुझ आश्चर्यजनक लाभ हुआ है। मेरी आदतें बहुत कुछ सुधरती आ रही हैं, मुझे ....... आदि की कई बुरी आदतें थी। अब तक वह मुझे खटकती भी न थीं।

अब से अभ्यास आरंभ किया है तब से मुझे अपनी भूलें बुरी तरह महसूस हो रही है। अब भीतर ही भीतर ऐसी प्रेरणा चलती रहती है कि इन बुरी आदतों को छोड़ो। ऐसा मालूम होता है कि शीघ्र ही मेरी जिन्दगी में कोई नया परिवर्तन होने वाला है।

-सोमेश्वरदयाल गुप्ता, फर्रुखाबाद

(3)

आपकी पुस्तक मुझे बहुत पसंद आई। उसमें बताये गये ध्यान आदि को करने के लिए इन दिनों मेरे पास समय नहीं है। मौका मिलने पर करूंगा। परंतु उसे बार-बार पढ़ने को जी चाहता रहता है। उसे हर वक्त जेब में रखता हूँ जहाँ कहीं फुरसत मिल जाती है पढ़ने लगता हूँ। अब तक आठ बार शुरू से आखिर तक पढ़ चुका हूँ। फिर भी मन नहीं मानता और बार-बार पढ़ने को जी चाहता है। ऐसी सुँदर पुस्तक छापने के लिए आपको बधाई है।

-भीकमचंद आढ़ती, कलपाई गुड़ी।

(4)

जिस दिन ‘मैं क्या हूँ?’ मिली उसी दिन उसे आदि से अन्त तक पढ़ डाला। पुस्तक की सारी विचारधारा मेरे मस्तिष्क में घूम रही है। उसका अपने जीवन से मिलान करता हूँ तो चौंक-चौंक पड़ता हूँ। हम लोग वास्तव में क्या हैं और अब क्या बने हुए हैं। इसे सोचकर मैं छटपटा जाता हूँ। मुझे भरोसा है कि आपकी पुस्तक मुझे सच्चे मार्ग पर लगायेगी।

-विश्वनाथ तिवारी, गुप्तकाशी

(5)

आपको भेजी हुई पुस्तक को पढ़कर मेरी विचित्र दशा हो गई है। इस सप्ताह मैंने तीन स्वप्न देखे हैं। मेरे शरीर के अंग हाथ, पाँव सिर धड़ आदि कट-कट कर सामने आते हैं और पूछते हैं ‘मैं क्या हूँ?’ एक दिन मैंने देखा कि मेरी स्त्री, पुत्र, लड़के, कुटुंबी सभी बारी-बारी पास आते है और पूछते है कि ‘मैं क्या हूँ?’ कल रात मैंने देखा कि मैं स्वयं बड़ी तीव्र गति से चारों ओर दौड़ता फिरता हूँ। ओर जो कोई मनुष्य पशु-पक्षी मिलता है उसी से पूछता हूँ कि ‘मैं क्या हूँ?’ तीनों दिन न तो मैं किसी का उत्तर दे सका और न किसी ने मुझे ही कुछ बताया। मन कुछ विचित्र उलझन में पड़ गया है।

-शांति स्वरूप, बीए, जींद

(6)

पुस्तक मिली। छपाई किसी काम की नहीं हुई है। दाम भी आपने ज्यादा रखे हैं। इसका मूल्य चार आना होना चाहिए था। आपने छः आने रख दिये हैं। मैं भौतिकवादी हूँ। आध्यात्मिक उपासना से कुछ लाभ हो सकता है इसे मैं नहीं मानता। फिर भी आपकी पुस्तक मैंने आदि से अन्त तक पढ़ा। अपने विषय को इसमें विद्वता और वैज्ञानिकता के साथ प्रस्तुत किया गया है।

-डॉ. एम.सी. अत्रे, पूना


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