(एक दार्शनिक कहानी)
पानी का बुद-बुदा नश्वर शरीर धारी मनुष्य अपनी वास्तविक हस्ती को भूल जाता है और अपने को न जाने क्या समझकर इतराता है, ऊंचा बनता है और झगड़ता है। संसार चक्र उसकी अज्ञानता पर हंसता है। काल एक ही फूँक में सारा बखेड़ा समाप्त हो जाता है। इस दार्शनिक कहानी में इस भाव को दिखाया गया है।
-किसने ‘कब’ ‘कैसा’ ये शब्द भी उत्पन्न नहीं हुए थे, तभी वह बुद बुदा बहता आ रहा था।
-उस पर न्यारे रंग दिखाई दे रहे थे
-नीला, काला, लाल और भी बहुत से।
-ये आपस में झगड़ते, लड़ते।
-कहतें मैं बड़ा ! मैं श्रेष्ठ ! मैं ऊँचा !
-क्षण में वे पैदा होते।
-क्षण में कहीं चले जाते।
-तो भी तकरार रुकी नहीं।
-प्रवाह ने हवा से पूछा - ‘यह क्या -गड़बड़ है ?’
-हवा बोली होगी कुछ
-जब उस बुद बुदे के भीतर की हवा बाहर वाली से मिली तो सब झगड़े ठिकाने लग गये।
कुमार गोविन्दानुज
(सत्य संदेश)