सार्वभौम धर्म

July 1940

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वृति क्षमा दमोस्तेयं शौच मिन्द्रिय निग्रह।

घी विद्या सत्यम् क्रोधोदशकंधर्म लक्षणम्॥ मनु॥

भगवान मनु ने धर्म के दश लक्षण उपरोक्त श्लोक में बताये हैं। वे धैर्य, क्षमा, इन्द्रिय दमन, चोरी न करना, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि का प्रयोग, ज्ञान, सत्य, क्रोध न करने को धर्म मानते हैं।

सत्य पर विश्वास करने वाला प्रत्येक व्यक्ति उपरोक्त धर्म की सचाई और उपयोगिता को स्वीकार करेगा। इनका पालन करता हुआ कोई व्यक्ति यदि किसी मजहब को न माने वो भी श्रेष्ठ धर्मात्मा रह सकता है। ऐसे धर्म प्रिय लोगों की संख्या बढ़ते ही सारे साम्प्रदायिक कलह शाँत हो जावेंगे और समाज पूर्ण शाँति एवं सुव्यवस्था के साथ रह सकेगा।

हम हर काम में उतावली और जल्दबाजी करते हैं। गाँधी कहते हैं कि जल्दबाजी नास्तिकता है। किसी बात को अच्छी तरह सोचे विचारे बिना उतावली में किसी काम को कर डालने से बड़े-बड़े अनर्थ होते हैं। आत्महत्या सिर फुटौअल गाली, गलौज आदि कार्य अक्सर उतावली में होते हैं। यदि किसी काम को करने से पूर्व उसके संबंध में कुछ देर ठंडे दिल से सोच समझ लिया तो कोई ऐसा कार्य नहीं हो सकता जो हानिकार, अव्यवस्था फैलाने वाला और दुखदायी हो। यही धैर्य धर्म का पहला लक्षण है।

धर्म का दूसरा लक्षण क्षमा है। बदला लेने पर न तो बैर मिटता है और न बैरी ही। वरन् वह और अधिक बढ़ता है। पहले जितना द्वेष था बदला लेने के बाद उससे कई गुना बढ़ जाता है। बैरी पहले की अपेक्षा और भी अधिक कट्टर दुश्मन हो जाता है। यदि उसका प्राण ले लिया गया तो भी उसके मित्र कुटुम्बी उस द्वेष की प्रतिहिंसा धारण किये रहते हैं और अवसर पाकर अपनी क्रोधाग्नि बुझाते हैं। इस प्रकार आग की चिनगारी की तरह कलह बढ़ता जाता है और सुख शान्ति नष्ट होते जाती है। इसके विपरीत यदि अपराधी को क्षमा कर दिया जाय तो बैर भी तुरंत मिट जाता है और अपराधी किस प्रकार से आजन्म अपना ऋणी बना रहता है। यह क्षमा धर्म का दूसरा लक्षण है।

दम-इन्द्रियों का दमन करना भी धर्म है। उन्हें स्वतंत्र छोड़ दिया जाय तो बड़े-बड़े अनर्थ कर सकती है। मन की तृष्णाओं को भी दबाना दम है। थोड़े में संतुष्ट हो जाने पर सभी झगड़े शाँत रहते हैं।

अस्तेय का अर्थ चोरी न करना है। हर जगह अपनी कमाई पर अवलंबित रहें। जो अधिक शारीरिक और मानसिक श्रम करते हैं उन्हें अधिक द्रव्य मिलना ही चाहिए और जो निठल्ले और काम से जी चुराने वाले हैं उन्हें अपने कार्य के अनुकूल कष्ट भोगना चाहिए। दुनिया में कर्म फल एक निश्चित सिद्धाँत है। जो करे वह भरे। चोरी में आदमी दूसरे की कमाई को हड़पता है। इससे समाज में अव्यवस्था का जन्म होता है। अनधिकारी लाभ उठाते हैं। तदनुसार ऐश, बुरी प्रवृत्ति और पापेच्छा चल पड़ती है। अपनी वस्तुओं को ही सब भोगे तो समाज की शाँति कायम रह सकती है इसीलिए धर्म का चौथा लक्षण अस्तेय बताया गया है।

बाहरी पवित्रता शारीरिक स्वास्थ्य के लिए जिस प्रकार आवश्यक है उसी प्रकार मानसिक स्वास्थ्य के लिए भीतरी पवित्रता अनिवार्य है। इन भीतरी और बाहरी पवित्रताओं को बनाये रहना जरूरी है। शौच से अपना शरीर और मन सुन्दर स्वस्थ और प्रसन्न रहता है तथा दूसरों पर भी वैसा ही असर पड़ता है। दाद, खाज, उपदंश, क्षय, चेचक आदि शारीरिक छूत रोग और दुराचार, फैशन, द्वेष, दुराव कपट आदि मानसिक छूत रोग शौच के पालन करने से पनपने नहीं पाते। फलतः सब लोग सुखी रह सकते हैं। यह पाँचवाँ धर्म लक्षण है।

गीता में कहा गया है कि असंयत इन्द्रियाँ ही अपनी सबसे बड़ी शत्रु हैं। मन इन्द्रिय भोगों के लिए ललचाता है। जिह्वा तरह-तरह के सुस्वादु पदार्थ चाहती है, कामेन्द्रियाँ विषय भोगों के लिए पागल होती हैं, आंखें सुन्दर मनोरंजनों को देखना चाहती हैं, शरीर आराम की इच्छा करता है। इन इच्छाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य न जाने कितने-कितने पाप कर्म करते हैं। वश में हुई इन्द्रियाँ तो सबसे बड़ी मित्र हैं। इन्द्रिय निग्रही मनुष्य सच्चा, महात्मा और मोक्ष का अधिकारी हो सकता है। यह धर्म का छठा लक्षण है।

बुद्धिपूर्वक विचार के साथ ठीक तरह सोच समझकर आगा पीछा देखभाल कर जो कार्य किये जाते हैं, वे अपने व दूसरों के लिए कष्टकर नहीं होते। बुद्धिमान होना इसीलिए धर्म के सातवें लक्षण में गिना गया है।

विद्या का तात्पर्य यहाँ ज्ञान से है। केवल पुस्तकें पढ़ लेना विद्या नहीं है वरन् आवश्यक विषयों की पूरी जानकारी रखना उनके हर पहलू पर उचित विचार विमर्श कर सकने योग्य क्षमता का रखना विद्या है। ऐसा विद्यावान् पुरुष किसी घटना को सामने उपस्थित हुआ देख कर घबराता नहीं, उसके वास्तविक स्वरूप को देखता है, कारण और हेतुओं पर विचार करके परिस्थिति के अनुसार अपना ठीक कर्तव्य चुन लेता है। ऐसे विद्यावान् पुरुष संसार को स्वर्ग बनाते हैं। सत्यज्ञान का सम्पादन करने वाला व्यक्ति इसलिए धर्मात्मा माना गया है।

सत्य की उपासना ईश्वर की उपासना है। जिसने सत्य को अपना लिया उसने सर्वश्रेष्ठ धर्म को ग्रहण कर लिया। सत्य समस्त धर्मों की धुरी है। मार्ग जीवन व्यवहार में यदि सत्य घुल-मिल जाय तो मनुष्य और देवताओं में कुछ भी अन्तर न रहे। महात्मा कबीर सत्य की बराबर कोई तप नहीं मानते। इस नवमें धर्म लक्षण को ग्रहण करके मनुष्य जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।

क्रोध की जड़ में शैतानियत होती है। मनुष्य अज्ञान और गलतियों का पुतला है। उससे भूलें होती हैं। हमारा कर्तव्य है कि उन भूलों के कारणों की परीक्षा करें और गलती करने वाले को समझा कर उसे सन्मार्ग पर ले आवें। लेकिन लोग अपने इस वास्तविक कर्तव्य को तो भुला देते हैं और अपनी इस गलती का प्रतिकार बेचारे अज्ञानलिप्त अपराधी से लेना चाहते हैं। यह सरासर अनुचित कार्य है। क्रोध के कारण जो दूसरों का दिल दुखाता है, भयंकर घटना घटित हो जाती है, द्वेष का बीजारोपण होता है सो अलग। क्रोध के कारण शारीरिक एवं मानसिक क्षति भी काफी होती है। इस प्रकार पाठक देखेंगे कि क्रोध एक शैतानी कार्य है। इसका त्याग कर देना धर्म का दसवाँ लक्षण माना गया है।

भगवान मनु के बताये हुए धर्म के उपरोक्त लक्षण मानव-जीवन का एक अच्छा समाज-शास्त्र है। इन्हें पालन करके हम लोग शारीरिक, मानसिक आर्थिक, समाजिक और राजनैतिक व्यवस्थाओं को ठीक रख सकते हैं। संसार में प्रेम और सहानुभूति का साम्राज्य बढ़ा सकते हैं। यही वह धर्म है जिसकी छाया में मनुष्य मात्र इकट्ठे हो सकते हैं। जाति, देश और रंग का भेद-भाव इसमें नहीं है और वह संकुचित दृष्टिकोण भी इसमें नहीं है जो एक को ईश्वर का प्रिय और दूसरे को अप्रिय बनाता है। मजहबों की मार से जो व्याकुल हो गये हैं, घृणा और द्वेष से भरे हुए उन छोटे दायरों से जो ऊब गये हैं वे मनु भगवान के इस महान् सार्वभौम धर्म की शरण में आकर सच्ची सुख शाँति प्राप्त कर सकते हैं।


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