स्वर योग

July 1940

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(श्री नारायणप्रसाद तिवारी ‘उज्ज्वल’ कान्हीवाड़ा)

स्वर योगी स्वर बदल कर अपने स्वास्थ्य को भली प्रकार अच्छा रख सकता है।

लंबी साँस खींच कर फेफड़ों में भरना चाहिए और कुछ देर रोक शनैः शनैः छोड़कर फेफड़ों को शुद्ध करना चाहिए श्वास लेने या छोड़ने के बीच में श्वास प्रवाह नहीं टूटना चाहिए।

निम्न प्रकार इसके लिए लाभदायक है:-

किसी नदी की ओर या जस ओर से शुद्ध वायु का प्रवाह हो मुँह करके खड़े हो जाओ। छाता सामने तना हुआ रखा जावे। धीरे-धीरे श्वास इतनी पूरक की जावे कि फेफड़े फूल जावें फिर क्रमशः श्वास छोड़ी जावे।

शीतली कुँभक- सीधे पालथी मारकर (पद्मासन उत्तम है) उस ओर मुँह करके बैठो जिस ओर से शुद्ध वायु का प्रवाह हो और ओठों को इस प्रकार आगे बढ़ाओं जैसे कि सीटी बजाते समय बढ़ाया जाता है और मुँह बंद करके नथुनों से श्वास खींचो। इससे रक्त शुद्ध होता है बढ़ी हुई ताप तिल्ली को फायदा होता है। दिन भर में तीन बार यह क्रिया की जावे किन्तु एक बार में 10 मिनट से अधिक न हो।

शीत करी कुँभक - उपर्युक्त प्रकार से ओठों को कुछ खुला रखकर श्वास ली जावे फिर नथुनों से श्वास छोड़ी जावे। ओष्ठ श्वास लेते समय बहुत खुले न रहें केवल थोड़े से श्वास लेने योग्य खोले जायें इससे पेट में सिकुड़न पड़ती है दो या तीन बार यह क्रिया के लिए स्वास्थ्य को लाभदायक है।

कब्ज दूर करने का उपाय दोनों हाथों को कंधों के बराबरी पर फैला कर सीधे तन कर खड़े हो। पैरों को स्थिर रखें और फिर बदन को बाईं ओर जितना हो सके झुकाओ फिर इसी प्रकार दाहिनी ओर झुकाओ इस प्रकार अर्ध गोलाकार बदन की हरकत होनी चाहिए, इससे पाचन शक्ति तीव्र होती है।

पेचिका-विशूचिका तथा पेट की अन्य बीमारियों के समय आप देखेंगे कि वाम स्वर चलायमान रहता है अतएव ऐसे समय पिछले अंक में दी हुई रीत्यानुसार दक्षिण स्वर चला कर लाभ कीजिए। किसी प्रकार की आपत्तिजनक घटना, नुकसान में प्रायः सुषुम्ना या दक्षिण स्वर चलता है ऐसे समय इड़ा स्वर चलाने का प्रयत्न करना चाहिए। सूर्य स्वर चलते समय आप परीक्षा कीजिए कि गंध का अनुभव ठीक प्रकार न हो सकेगा अतएव ठीक प्रकार होगा।

मनुष्य के शरीर में दिन−रात जो श्वाँस चला करती है उसे ही प्राण कहते हैं जब जीव में श्वाँस का आवागमन नहीं होता तब मृत्यु होना कहा जाता है। अर्थात् जीव में श्वास ही सब कुछ है, कहावत है कि ‘जब लौ श्वाँसा तब लौं आशा’ श्वास की चाल स्वाभाविक है मनुष्य दिन रात में लगभग 21600 बार श्वासोच्छ्वास करता है और श्वाँस की लंबाई का 8 से 12 अंगुल तक का प्रमाण है। गायन करते समय श्वास 16 अंगुल तक, सोते समय 24 अंगुल और मैथुन करते समय 30 अंगुल या इससे कुछ अधिक हो जाती है यह मानी हुई बात है कि अति संभोग से मनुष्य बलहीन होकर आयुहीन होता है इसका कारण यही है संभोगावस्था में स्वर की चाल तेज हो जाती है। प्राणायाम क्रिया से श्वास की लंबाई कम हो जाती है यहाँ तक कि केवल 3-4 अंगुल तक इसकी लंबाई घटाकर मनुष्य अपनी आयु वृद्धि कर सकता है।

आराम से बैठकर एक स्वच्छ कपास का फोहा सामने रख कर देखिये यदि श्वाँस की चाल 12 अंगुल से भी अधिक है तो समझिए आयु शीघ्र घट रही है तथा इसके लिए उपचार करना चाहिए।

यदि दिन-रात्रि के अधिक भाग में एक स्वर अधिक तथा दूसरा स्वर कम चलता हो तो अधिक चलने वाले स्वर में स्वच्छ कपास का फोहा लगा कर उसे रोककर अचलित स्वर को चलाना चाहिए।

बुखार का हमला होने या हमले की तैयारी दीख पड़ने पर जिस नथुने से साँस चलती हो उसे रोक रखें इससे ताप की अवधि अवश्य कम होगी। बुखार में हमेशा सफेद रंग का ध्यान करने से भी लाभ होता है रत्न ज्योति की जड़ बीमार के हाथ में बाँधने से भी शीघ्र आराम होता है। प्रायः आधा शीशी का दर्द सुबह से आरंभ होकर ज्यों-ज्यों दिन बढ़ता है। दर्द भी बढ़ता है और दिन ढलने के साथ-साथ ही दर्द घटता है इसमें देखना चाहिए किस स्वर में दर्द उठता है। उस स्वर को बंद कर देना चाहिए तथा अचलित स्वर चलाने का प्रयत्न करना चाहिए।

अन्न, फल, मिष्ठान्न चीजें सूर्य स्वर में खाने से जल्द पचती हैं। नित्य प्रति सूर्य स्वर में भोजन करने वाले की पाचन क्रिया बहुत अच्छी रहती है और भोजनोपरान्त बाई करवट लेटना चाहिए। (जैसा कि पहिले लिखा चुका है) मजबूती से बैठ टकटकी बाँध नाभिमंडल नाभिकनद का ध्यान लगाने से पुरानी बदहजमी भी दूर होती है। भोजनोपरान्त कुछ देर वीरासन बैठना भी लाभदायक है साँस को रोक नाभि खींच कर नाभि ग्रन्थ देश सौ दफे रीढ़ से मिलाने पर आँव बगैर है पेट की सब शिकायतें दूर हो जाती हैं। पाचन शक्ति बढ़ कर भूख लगती है। राह चलने के बाद या किसी मेहनती काम करने के पीछे शरीर थका माँदा पड़ने पर कुछ देर दाहिनी बगल लेटना चाहिए। इससे थकावट दूर होती है मनुष्य की मृत्यु सुदृढ़ जन उसके परिवार को साँत्वना देते समय प्रायः कहा करते हैं उसके श्वास की घड़ी बीत चुकी ! स्वर योगी इन श्वाँस की घड़ियों को संचित कर इस प्रकार खर्च करते हैं कि उनके स्वर का खजाना शीघ्र खाली न हो इसी के आधार पर महाराज रणजीत के समय हरिदास साधु चालीस दिन तक संदूक में बंद होकर मिट्टी में गाड़ कर रखे गये थे, अवधि के बाद निकाले जाने पर जीवित पाये गये।

वैज्ञानिकों का कथन है कि काम क्रोध चिन्ता आदि से मनुष्य की आयु घटकर-शीघ्र मृत्यु के मुख में जाता है-स्वर शास्त्र इस सब कारणों की सूची न देकर केवल यही कहता है कि स्वर की लंबाई और छोटाई ही आयु की घटती बढ़ती का कारण है, बात एक ही है क्योंकि बीमारी, शोक, चिन्ता, क्रोध आदि में श्वास की गति तेज हो जाती है, दमा वाले की श्वास बहुत तेज चला करती है यहाँ तक कि पास बैठने वाला सुन सकता है, इसी से दमा वाले का स्वास्थ्य खराब होकर शीघ्र ही मृत्यु मुख में जाता है।

स्वर योग का एक विचित्र कौशल लिखकर अब मैं इस प्रकरण को बंद करता हूँ।

अग्नि निवारण कौशल:- प्रायः प्रति वर्ष आग लग कर कितनों ही का भारी नुकसान हुआ करता है। स्वर योग का ऐसे समय आश्चर्यजनक अनुभव किया जावे।

आग लगने पर जिस तरफ उसकी लपट जाए उसी तरफ खड़े होकर, जिस नथने से साँस निकले उसी नथने से हवा खींच नाक से ही पानी पीवें उसके बाद सात रत्ती जल-

उत्तरस्याञ्चदिग्भागे मारीचः नाम राक्षसाः।

तस्य पुत्र पुरीराभ्याँ हुतः वन्हिः स्तम्भं स्वाहा॥

इस मंत्र से फूँक आग में डाले, अवश्य शीघ्र अग्नि प्रकोप शान्त होगा।

अंत में यही कहने की इच्छा है कि मैंने जो कुछ भी सूक्ष्म रूप से स्वर योग के विषय में लिखा है मैं अपना प्रयत्न सफल मानूँ।

प्रणवः सर्व वेदाना ब्राह्मणों भास्करो यथा।

मृत्यु लोके तथा पूज्यः स्वर ज्ञानी पुमानपि॥

अर्थात् :- सब वेदों में जैसे ओंकार पूज्य है और ब्राह्मण तथा भास्कर जैसे पूज्य है वैसे ही मृत्यु लोक में स्वर का जानने वाला स्वर ज्ञानी पूज्य है।

स्वर शास्त्र में इड़ा गंगा रूपा, पिंगला यमुना स्वरूपा, और सुषमा सरस्वती रूपिणी है। यही तीनों नाड़ी अज्ञात चक्र पर जिस जगह मिली है उस जगह को त्रिवेणी या त्रिकूट कहते हैं। लोग त्रिवेणी स्नान के लिए सैकड़ों रुपए खर्च करते हैं किन्तु अन्तः स्नान विहीन व्यक्ति को ब्राह्म स्नान से मुक्ति नहीं।

ईडा हि पिंगला ख्याता वाराणसीति होच्यते।

वाराणसी भ्रु वोमध्ये विश्वनाथोऽत्र भाषित॥

अर्थ - इड़ा नाड़ी वरणा और पिंगला असीनाम कहीं गई है इन दोनों नदियों के बीच में वाराणसी धाम और विश्वनाथ शिव शोभायमान हैं।

योगीश्वरं शिवं वन्दे वन्दे योगेश्वरं हरिम्।

समाप्त


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