माया (कविता)

July 1940

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(ले.-श्री जिज्ञासु)

अलख, लखि परे न यह माया।
लगा पलीता जग का कोना-कोना गया जलाया।


हरे भरे उपवन को भीषण मरघट गया बनाया।


त्राहि-त्राहि, मैं मरा मिटा रे, दौड़ो मुझे बचाओ


बर्बरता से पीड़ित होकर मनुष्यत्व चिल्लाया॥

शाँति का धर के गला दबाया ॥


अलख, लखि परे न यह माया ॥

मानव-मानव की सत्ता को बल से कुचल न डाले।


शक्ति हीन को पीस न डालें, जग में ताकत वाले॥


आज जलाई गई निरीहों, की अनगणित चिताएं।


निरपराध निर्दोषों के लोहू के बहे पनाले॥

चतुर्दिशि करुणा क्रन्दन छाया ॥
अलख, लखि परे न यह माया ॥

हरे! आज इस मानवता की लाज न जाने पावे।


धर्म भूमि पर विजय पताका पाप न प्रभु फहरावे।


शैतानी सत्ता के सम्मुख, इस पशुबल के आगे-


सत्य विचारा हार न जावे, न्याय न गला कटावे।

धर्म पर है संकट आया ॥


अलख, लखि परे न यह माया ॥

***


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