अहंभाव का प्रसार करो

July 1940

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(ले. विद्यालंकार श्री शिवनारायण शर्मा माईथान) आगरा

अहंभाव का प्रसार ही मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य है। अहंभाव का संकोच ही मानव समाज की सब अशान्ति का मूल है। किन्तु इस अहंभाव का प्रसार उसके उपयोगी कार्यों से ही सिद्ध होता है। आप अपने ‘मैं’ को जितना चाहे छोटा कर सकते हैं और जितना बढ़ाना चाहें उतना बड़ा कर सकते हैं। आप ही अपने नियन्ता हैं, आत्मा ही आपका बन्धु और विपु है।

‘उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसौदयेत्।

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्भैम रिपुरात्मनः॥ गीता 6। 5

बन्धुगत्मास्मनस्तस्य येनास्मैत्चात्मना जितः।

अनात्मनसु शत्रुत्त्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत ॥ 66॥

गीता की इन अपूर्व उक्तियों के अक्षर-अक्षर में अमूल्य सत्य भली भाँति भास रहा है। वास्तविक विचार कीजिए कि आप अपने कार्यों से अपने को देवता या पशु में परिणत कर सकते हैं यदि ऊर्ध्व दिशा में जाना चाहें, यदि ‘मैं’ को प्रसारित करना चाहें, यदि देवता होना चाहे, तो नियमों को पालन कीजिए, आत्म संयम सीखिए। और यदि नीचे की ओर जाना चाहें, यदि ‘मैं’ को संकुचित करना चाहें, यदि पशुत्व में परिणत करना चाहें, तो स्वेच्छाचार वृत्ति अवलम्ब कीजिए। नियम पालन ही उत्कर्ष का और स्वेच्छाचार ही अपकर्ष का सोपान है। नियम रहित जीवन कभी उन्नति के सोपान पर नहीं चढ़ सकता। सनातन धर्मशास्त्र के रचयिताओं ने इसी से अनेक प्रकार के नियमों का विधान किया है। इससे पूर्व विवाह विधान किस तरह अहंभाव के प्रसार में उपयोगी है। वह संक्षेप में दिखाया जा चुका है। आज यहाँ पंचायज्ञ तत्व की कुछ आलोचना करते हैं। प्रतिदिन भूतयज्ञ, मनुष्य यज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ व ऋषियज्ञ ये पंचयज्ञ करणीय हैं।

‘अध्यापनं, ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम्।

होमो देवी बलिभौता नृयज्ञो अतिथि पूजनम॥

अध्यापक को ब्रह्म या ऋषियज्ञ, सर्पणा को पितृयज्ञ, होम को देवयज्ञ, बलि को भूतयज्ञ, अतिथि सेवा को भूयज्ञ या मनुष्य यज्ञ कहते हैं। थोड़ी विवेचना करने से प्रतीत होगा कि कर्त्तव्य मात्र को ही शास्त्र कारों ने यज्ञ कहा है। मानव जीवन का प्रत्येक कार्य ही धर्म कार्य है। साधारणतः अनेक लोग समझते हैं कि आहार-विहारादि के साथ धर्म का कोई संबंध नहीं है, यह उन का भ्रम है। हमारे जीवन के प्रत्येक कार्य के साथ हमारे अपने और दूसरों के हिताहित का घनिष्ठ संबंध रहता है। ईश्वरोपासनादि कई कार्य जिनको हम धर्म कार्य कहते हैं, वास्तव में वे ही धर्म कार्य नहीं बल्कि मानव का प्रत्येक कर्तव्य ही धर्म कार्य है। धर्म और कर्म यथार्थ में एक ही बात है। मनुष्य का अनुष्ठय है यही यज्ञ है। इस कारण अध्यापन , तर्पण, होम, बलि, अतिथि सत्कार ये सब ही यज्ञ है।

गीता में भी कहा है:-

द्रव्य यज्ञास्पोयज्ञा योजयज्ञास्तथा परे।

स्वाध्याय ज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशित व्रताः॥ 4। 38

एवं बहुविधायज्ञा वितता ब्रहणो मुखो।

कर्मजान विद्धि तान् सर्वानेंब ज्ञात्वा विमोचयसे॥ 4। 32

संशित व्रत यदि गण (अधिकारानुसार) दानवयज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ, स्वाध्यायज्ञ और ज्ञानयज्ञ का अनुष्ठान करते है।

इस तरह के अनेक प्रकार के यज्ञ वेद में निहित हैं। इन सबको कर्मज जानो। इस ज्ञान को पाकर आप मुक्ति प्राप्त कर सकेंगे। जीवन में हम जो कार्य करते हैं उनमें प्रत्येक के साथ धर्माधर्म का संबंध है उसे विशेष रूप से अनुभव करना चाहिए। उन्नत जीवन ऐसे भाव से नियमित यज्ञ है कि अपने प्रत्येक कार्य को ही यज्ञ अर्थात् धर्मानुष्ठान रूप से समझा जा सके। जिस कार्य को आत्मा का हित होता है, उसी से जगत का हित होता है, जिससे जगत का हित होता है उसी से आत्मा का हित है। जो स्वार्थ है वही परार्थ है जो परार्थ हैं वही स्वार्थ है। वही धर्म वही यज्ञ है। शास्त्रोक्त अनेक प्रकार के यज्ञ करते हुए मनुष्य की अहंकार से जकड़ी हुई जड़ बुद्धि नष्ट होती आत्मा का विकास होता है, विश्व जगत के हित के साथ अपने हित का विरोध दूर होता है। यही ‘मैं’ का अर्थ है।

हिंदुओं का जीवन चार भागों में विभक्त है, एक भाग, ‘आश्रम’ कहलाता है। ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और भिक्षु आश्रम। यदि मनुष्य की आयु स्थूलमान से सौ वर्ष मानी जाय तो प्रत्येक आश्रम को 25 वर्ष चाहिए। जगत का हित जिसके जीवन का व्रत है। आत्महित साधन ही उनका प्रधान कर्तव्य है। गृहस्थ संसार में प्रवेश के पूर्व अपना शरीर बलिष्ठ हुए बिना, चित्तवृत्ति का उत्कर्ष-साधन हुए बिना इन्द्रियादि संयम की सामर्थ्य उत्पन्न हुए बिना, संक्षेपतः विविध शारीरिक और मानसिक वृत्तियों का सामंजस्य संस्थापित हुए बिना कोई मनुष्य गृहस्थ में प्रवेश करके जगत का कोई मंगल साधन नहीं कर सकता। असंयत चरित्र, दुर्बल शरीर, दुर्बल चित्त, मनुष्य द्वारा किसी काल में कोई कार्य नहीं हुआ और न होगा। इसीलिए ब्रह्मचर्य का विधान है। ब्रह्मचर्यावस्था में अनेक कठोर नियम प्रतिपालन करने और गुरु गृह में वास करके सब विषयों में गुरु के आज्ञानुवर्ती होना होता है। गुरु की आज्ञा से ब्रह्मचारी केवल अधर्माचरण करने को बाध्य नहीं थे, नहीं सो सब विषयों में गुरु का आदेश बिना तर्क उन्हें शिरोधार्य करना होता था। ब्रह्मचारी की दृष्टि केवल आत्मोन्नति पर रहती है, गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते ही उनका कार्यक्षेत्र बढ़ गया। ब्रह्मचर्यावस्था में जो दृष्टि केवल आत्मोन्नति में सीमा बद्ध थी, वह गृहस्थाश्रम में स्त्री पुत्र आदि परिजनों में, अन्य तीन आश्रम वाले व्यक्तियों में और अतिथि, दीन-दुखी, दरिद्र आदि में प्रसारित हुई। जब बाल सफेद हो गये या पौत्र का मुख देख लिया, तब सनातन शास्त्रानुसार गृहस्थाश्रम त्याग कर वानप्रस्थाश्रम ग्रहण करते हैं, तब सश्लोक या एकाकी आश्रम में प्रवेश करते हैं। अरण्य कहने से सिंह, व्याघ्र आदि हिंसक जन्तुओं से भरा हुआ गहन स्थान न समझिये। बल्कि नैमिषारण्य आदि उन स्थानों का उल्लेख शास्त्रों में आता है, उन में जनाकीर्ण नगर विलास अवश्य नहीं था उसका प्रयोजन भी नहीं ! किन्तु वह इतने प्राकृतिक सौंदर्य से पूर्ण थे कि वे फल पुष्प-सुशोभित सुशीतल एकान्त कुँज सदृश जान पड़ते थे, कहीं मयूर नृत्य करते हैं, कहीं कोकिल कुहूरव से अमृत वर्षा करते है। कहीं मृगादि आश्रम पशु चरते हैं किसी स्थान में कमलों से सुशोभित निर्मल सरोवर में अनेक प्रकार के जलचर पक्षी आनन्द से क्रीड़ा करते हैं। इस एकान्त स्थान में आश्रमवासी सब प्रकार का विलास त्याग कर, संसार की सब प्रकार की ज्वाला चन्त्रणा से मुक्त होकर तत्व ज्ञान की आलोचना करते थे, और विश्व के हितकर कार्यों के अनेक प्रकार के उपाय उदभावन करते थे। वेद का आरण्यकोश, जिसका साधारण नाम उपनिषद् है और जिसके पढ़ने से संस्कृत को न पढ़े हुए महाशय शोपेनहॉवर आदि पाश्चात्य दार्शनिक जन भी विस्मित और स्तम्भित हुए हैं और वह जगत में एकमात्र उपदेश पदार्थ, यौवन और मृत्यु का एक मात्र शाँति विधायक रूपी स्वीकार किया है, वे सब ग्रन्थ इसी अरण्य में रचे जाते थे। स्त्री, पुत्र, अतिथि आदि प्रतिपालन करके आत्मा को अधिकतर उन्नत करके, वानप्रस्थाश्रमी अरण्य में रहकर केवल विश्व की चिन्ता में निमग्न रहते थे। यूरोप के संस्कृतज्ञ पण्डित मैक्समूलर साहब ने लिखा है कि “गंभीर आध्यात्मिक चिन्ता के लिए सभ्यताभिमानी यूरोप के जनाकीर्ण नगरों की अपेक्षा भारत के अरण्य अधिक उपयोगी थे। वानप्रस्थाश्रम शेष होने पर भिक्षु निर्दिष्ट वास स्थान परित्याग कर संकल्पचित्त होकर सच्चिदानंद ब्रह्म में समाहित होते थे। ब्रह्मचारी की उपाधि विशिष्ट ‘मैं’ क्रम से विविध यज्ञ कर्म द्वारा विशुद्धता प्राप्त कर इस तरह ब्रह्म के परम ‘मैं’ में परिणत होती थी। अहंभाव के प्रसार की चरम परिणति ही ‘सोऽहंभाव व सोऽह, तत्व है।


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