धर्म तत्व

July 1940

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(महात्मा ‘राम जी राम’ जी महाराज)

मातृवत् पर दारेषु पर दृव्येषु लोष्टवत।

आत्मवत् सर्व भूतेषु यो पश्यति स पश्यतः॥

उपरोक्त श्लोक में एक प्रकार से धर्म का सार बता दिया गया है। संसार में पवित्रता के साथ जीवन बिताने और परलोक के लिए धर्म संचय करने के निमित्त लोग विभिन्न प्रकार की साधनायें करते हैं। धर्म का तत्व इतना गहन है कि प्रकाण्ड विद्वानों को भी यही कहना पड़ता है कि ‘धर्मस्य तत्वे निहतो गुहायाँ’ अर्थात् धर्म का तत्व गुप्त है। उस गुप्त तत्व को साधारण लोग कैसे जान पावें ? इसीलिए जन साधारण में धर्म के नाम पर अनेक प्रकार की कल्पनायें और रूढ़ियां प्रचलित हो गई हैं। पशुबलि तक की नीच क्रियाओं का समावेश धर्म साधना में हो गया है। ऐसी दशा में उसका वास्तविक रूप साधारण बुद्धि द्वारा समझा नहीं जाता।

उपरोक्त श्लोक में बताये हुए तीन साधन करने पर मनुष्य उस धर्म के गुप्त तत्व को प्राप्त कर सकता है। शास्त्रकार कहता है-पराई स्त्री को माता के समान, पराये धन को मिट्टी के समान और संपूर्ण जीवों को अपने आत्मा के समान जो देखता है वही दृष्टा है। इन तीन साधनों के अंतर्गत वही सभी नियमोपनियम आ जाते हैं जिनकी व्याख्या करने के लिए शास्त्र का विस्तार हुआ है।

‘मातृवत् पर दारेषु’ पराई स्त्री को माता की दृष्टि से देखें अपनी पत्नी को छोड़कर शेष संपूर्ण महिला समाज पराई स्त्री ही है। उन्हें हम लोग माता के समान पूज्यनीय समझे उनका श्रद्धा और भक्ति पूर्वक आदर करें। मन में उनके लिए उच्च भावनाएं रखें। ऐसी भावनाएं जब हृदय पटल पर अंकित हो जाती हैं तब उन्हें कुदृष्टि से नहीं देखा जा सकता। कामवासना के नीच विचारों को फिर मस्तिष्क में घुसने का स्थान ही नहीं मिलता। अपनी सगी माता या बहिन के प्रति किसी के मन में नीच वासनाएं नहीं आती, चाहे वे कितनी ही सुन्दर क्यों न हों। दूसरी स्त्रियों को कुदृष्टि से देख सकने का कारण यही है कि उनके प्रति हमारे मनों में वह भावनाएं नहीं होती जो अपनी माता या बहिन के लिए थीं। प्रथम साधन को पालन करने पर मनुष्य नैष्ठिक ब्रह्मचारी बन सकता है। चाहे उसका पिछला जीवन कैसा ही क्यों न रहा हो। वीर्य की बूंदें टपकना ही ब्रह्मचर्य का भंग नहीं है वरन् कुदृष्टि से स्त्रियों को देखना भी व्यभिचार है। महिला जगत के प्रति मातृभावना हृदयंगम करके उच्चकोटि का ब्रह्मचारी बन सकता है। ऐसा ब्रह्मचर्य शरीर और आत्मा की असाधारण उन्नति कर सकता है।”

परदृष्येषुलोष्टवत’ दूसरे के धन को मिट्टी समझना यह साँसारिक संपूर्ण कलहों को मिटाने का एक-मात्र उपाय है। हम सब अपने न्यायपूर्वक उपार्जित धन को ही भोगें। दूसरों की भोग लेने की इच्छा न करें कितना सुँदर सिद्धांत है। संसार भर में हाहाकार मच रहा है, महायुद्ध में असंख्य मनुष्यों का निर्दयतापूर्वक वध हो रहा है, एक देश दूसरे देश को हड़प जाने के लालायित हो रहा है। राजनैतिक पंडित और अन्य प्रकार के नेता शोषण की नई-नई तजवीजें निकाल कर जनता का दृव्य खींचते हैं। फलस्वरूप लोग निर्धन बनते जाते हैं। और उनकी नैतिकता गिर जाती है। ‘विभुक्षितं किन्नकरोतिपाप’ भूखा क्या पाप नहीं करता ?

आपसी कलहों का कारण भी दूसरे के धन की लिप्सा ही है। जुआ, चोरी, डाका, लूट, ठगी, हत्या, मारपीट आदि के कारणों पर भली प्रकार विचार करने से पता चलता है कि दूसरों की कमाई का अन्याय पूर्वक हड़प लेने के लिए यह सब पाप होते हैं। यदि हम लोग अपने मन को ऐसा शिक्षित कर लें कि वह केवल अपनी ही वस्तुओं से सन्तुष्ट रहे और दूसरों के पैसे को मिट्टी के समान निरर्थक समझे तो कसी प्रकार का कोई झगड़ा ही न हो। समाज में सर्वत्र शाँति और सुव्यवस्था नजर आवे।

तीसरी सीढ़ी सबसे ऊंची सीढ़ी है। ‘आत्म वत सर्व भूतेषु’ संपूर्ण प्राणियों को अपने समान समझना। यह उच्च कोटि का विश्व प्रेम है। हम अपने आत्मा से सबसे अधिक प्रेम करते हैं। अपने स्वार्थ के लिए बुरा-भला सब कुछ कर डालते हैं। प्रेमी से प्रेमी के स्वार्थ की अपेक्षा भी अपने स्वार्थ को महत्व दिया जाता है। इसका दार्शनिक तात्पर्य यह है कि मनुष्य संसार में सबसे अधिक प्रेम अपने आप से ही करता है। इतना ही प्रेम वह सब प्राणियों से भी करे तो उसकी दुनिया प्रेममयी हो जाय। उसे चारों ओर प्रेम का ही समुद्र लहलहाता नजर आवे। ईर्ष्या, द्वेष, बदले की भावना, नीच-ऊंच का विचार, उसके में आ ही कैसे सकते हैं? हिंसा और असत्य का प्रयोग भी उस दशा में किसी के ऊपर नहीं हो सकता। संपूर्ण भूतों में अपनी आत्मा, परमात्मा की भावना करने वाला मनुष्य एक प्रकार से अपनी सत्ता ही खो देता है। उसका सब कुछ अपना हो जाता है अर्थात् अपना कुछ भी नहीं रहता। अपने स्वार्थ को परमार्थ में इस प्रकार से इस प्रकार घुला देता है जैसे नमक की डली पानी में घुल जाती है। दूसरों को अपने समान समझने वाले मनुष्य वास्तव में पृथ्वी के देवता हैं।

शास्त्रकार के बताये हुए उपरोक्त तीन साधनों को पालन करता हुआ मनुष्य सबसे ऊंचे लौकिक धर्म और पारलौकिक साधना को पार कर सकता है। और स्वर्ग एवं मोक्ष का अधिकारी हो सकता है। धर्म पिपासु- जिज्ञासु यदि अनेकानेक विधि निषेधों को छोड़कर इन तीन साधनों को ही अपना लें तो वे वह सब कुछ पा सकते हैं जिसकी उन्हें तलाश है। काश, जब समाज में इस धर्म का प्रचार हो जाय तो यह पृथ्वी स्वर्ग बन सकती है।


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