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मीरा रिचार्ड

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पेरिस (फ्रांस) का एक समृद्धतम परिवार और उसमें जन्मी पली एक बालिका। चारों ओर फैले हुए ऐश्वर्य में स्वाभाविक तो यह था कि वह खूब ठाठ-बाट से रहे परंतु वह सब लोगों से अलग एकाकी अपने संबंध में न जाने क्या-क्या कल्पनायें किया करती और सपने देखा करती थी। एकांत की बोझिलता अनुभव न हो इसलिए उक्त किशोरी ने जिसका नाम था मीरा—चित्रकला का अभ्यास भी आरंभ कर दिया था और एक बार उन्होंने एक ऐसा कल्पना चित्र बनाया जिसकी आकृति उन्हें भी लुभा गयी। उन दिनों जब मीरा कैशोर्य और यौवन की वयःसंधि पर थीं तब प्रायः सोचा करती थीं कि ईश्वर है और उसकी महान सत्ता के कारण ही सारे जगत की व्यवस्था और प्रक्रिया सुचारू रूप से चल रही है। इस विचार के साथ ही यह संकल्प भी उठे कि उस दिव्य सत्ता से साक्षात्कार किया जाना चाहिए, उसका सान्निध्य प्राप्त करना और उसे प्रसन्न करना चाहिए। इसी संकल्प के साथ वे आत्म निर्दिष्ट पद्धति से ध्यान उपासना करने लगीं। लक्ष्य केवल एक था—ईश्वर की उपलब्धि और सत्य का साक्षात्कार।
जिस वय में युवक-युवतियां रंगीन सपने देखते हों उस वय में एक समृद्ध परिवार की बेटी आत्मा-परमात्मा की बातें सोचे तो इसे पूर्व जन्म के संस्कार ही कहना चाहिए। 21 फरवरी 1888 ई. को जन्मी मीरा ऐसे ही संस्कारों से पोषित थी जो गीता के उन वचनों की सत्यता को प्रमाणित करती है—
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ।। (6/44)
—अपने पूर्व जन्म के अभ्यास से विवश होकर ऐसा व्यक्ति पुनः दूसरे जन्म में ईश्वर प्राप्ति के मार्ग पर आरूढ़ हो जाता है तथा शब्द ब्रह्म का अतिक्रमण कर परब्रह्म को प्राप्त होता है।
इस जीवनवृत्त की चरित्र नायिका मीरा के संदर्भ में ऐसी बहुत सी घटनाओं का उल्लेख आता है जो यह सिद्ध करती हैं कि उनमें आध्यात्मिक चेतना और आत्मिक जिज्ञासा का उदय बाल्यावस्था से ही होने लगा था।
यौवन की देहरी पार करने के बाद उनका विवाह फ्रांस के प्रसिद्ध दार्शनिक पाल रिचार्ड से हुआ। विवाहित जीवन को उन्होंने अपने साधना पथ में किसी भी प्रकार बाधक नहीं माना। पॉल रिचार्ड स्वयं एक दार्शनिक थे और सूक्ष्म तत्वों के प्रति जिज्ञासा-संपन्न भी। आध्यात्मिकता में उनकी भी बड़ी गहरी रुचि थी और तृष्णा भी। अपनी इस तृष्णा को बुझाने के लिए वे यथासाध्य प्रयत्न करते रहते। उन्होंने सुन रखा था कि आत्मविद्या और सूक्ष्म तत्वों के संबंध में भारत एक संपन्न देश है। वहां अब भी ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने अध्यात्म की उच्च कक्षाओं को पार कर लिया है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति का इस जगत में बने रहना या न रहना कोई व्यक्तिगत प्रयोजन पूरा नहीं करता फिर भी वे जगत के प्रति अपनी करुणा के वशीभूत होकर इस संसार में बने रहते हैं।
करुणा के वश होकर जगत में बने रहने की बात तो विस्मयकारक थी क्योंकि उनकी समझ में ईश्वर का साक्षात्कार नितांत व्यक्तिगत मंजिल थी और जीवन का अंतिम ध्येय। उसे प्राप्त करने के बाद व्यक्ति का इस जगत से कोई संबंध नहीं रह जाता। फिर भी ऐसे व्यक्ति हैं जो अन्य की पीड़ा और व्यथाओं को समझकर उन्हें दूर करने के लिए ही इस दुनियां में रहते हैं। एकबारगी तो उन्हें विचित्र लगा परंतु थोड़ी देर के बाद वे भारतीय ऋषि जीवन की इस महान विशेषता के प्रति श्रद्धाभिभूत हो उठे और रिचार्ड दंपत्ति ने भारत आकर ऐसी महान विभूतियों के दर्शन करने का निश्चय कर लिया।
1914 में मीरा रिचार्ड और पॉल रिचार्ड ने भारत भूमि पर पदार्पण किया। उस समय पांडिचेरी में महर्षि अरविंद राजनीतिक जीवन से संन्यास लेकर आध्यात्मिक साधनाओं में रत थे। इससे पूर्व अरविंद स्वाधीनता संग्राम में अद्वितीय क्रांतिकारी की भूमिका निबाह चुके थे। विप्लवी कार्यक्रमों की अपेक्षा उनका विश्वास आध्यात्मिक शक्तियों में ही अधिक बढ़ने लगा था और वे मानने लगे थे कि भारत की आत्मा को जगाकर ही स्वाधीनता का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। आत्म साक्षात्कार और सूक्ष्म जगत में अनुकूल तरंगें उत्पन्न करने के लिए वे बंगाल छोड़कर पांडिचेरी में आकर रहने लगे थे। उनके इस एकांतवास की जानकारी कुछेक लोगों को ही थी। इसका कारण यह था कि क्रांतिकारी आंदोलन में उनके उग्र स्वरूप को देखकर सरकार दहल उठी थी और उनका स्वतंत्र रहना वह कदापि सहन नहीं कर सकती थी।
उस समय वे पांडिचेरी के दक्षिण भाग में स्थित शंकर चेट्टी के मकान में रह रहे थे। उनके साथ तीन और साथी थे। जिस मकान में वे ठहरे उसमें कभी स्वामी विवेकानंद भी ठहर चुके थे। वे चारों अपना काम अपने हाथों से ही करते और फर्श पर सोते थे। तपस्वियों की सी उनकी जीवनचर्या चलती। इन्हीं दिनों पॉल रिचार्ड की मुलाकात अरविंद से हुई। कुछ ही समय के सान्निध्य ने रिचार्ड को प्रभावित कर लिया और उन्हीं के माध्यम से पॉल रिचार्ड की धर्मपत्नी मीरा रिचार्ड 29 मार्च 1914 को महर्षि अरविंद से मिलीं। महर्षि के दर्शन कर ही उन्हें चित्रकारिता के समय का चित्र याद आ गये जिसे देखकर वे काफी समय तक अभिभूत हो उठी र्थी। उस चित्र का साम्य महर्षि की आकृति से बहुत कुछ बैठता था। प्रथम दर्शन में ही मीरा रिचार्ड ने यह अनुभव कर लिया कि योग साधना के मार्ग पर उन्हें एक ऐसा मार्गदर्शक मिल गया है जिसकी उन्हें वर्षों से तलाश थी।
उस दिन मीरा रिचार्ड ने अरविंद से थोड़ी ही देर तक बातचीत की। थोड़ी देर के ही सान्निध्य ने मीरा को असाधारण रूप से अभिभूत कर दिया। भारतीय योगियों के संबंध में पूर्व स्थापित मान्यताओं तथा महर्षि अरविंद के दर्शनों से उनमें जो स्फुरणायें उठीं उन्हें अपनी डायरी में अंकित करते हुए मीरा रिचार्ड ने लिखा—‘‘हमने जिस विभूति के कल दर्शन किये वह धरातल पर विराजमान है और उसकी उपस्थिति इस बात को सिद्ध करती है कि एक दिन अवश्य आयेगा जब अंधकार प्रकाश के रूप में बदल जायेगा और धरती पर सचमुच भगवान का राज्य स्थापित हो जायगा।’’
पॉल रिचार्ड ने तथा मीरा ने भी अरविंद को यह परामर्श दिया कि वे अपने विचारों तथा आध्यात्मिक अनुभूतियों से सामान्य जनों को अवगत कराने के लिए कोई पत्र निकालें। अरविंद भी लंबे समय से ऐसे किसी मासिक पत्र की आवश्यकता अनुभव करते थे। लेकिन अर्थाभाव की समस्या इस आवश्यकता को पूरा होने में बाधक बन रही थी। पॉल ने यह समस्या हल कर दी और पत्र के स्वावलंबी होने तक उसके खर्च का निर्वाह स्वयं की ओर से करने का प्रबंध किया। आरंभ में केवल दो सौ ग्राहक बने और दो सौ ही प्रतियां छपीं। इस पत्र का नामकरण हुआ ‘आर्य’। यह नाम वस्तुतः किसी जाति, नस्ल या वंश के अर्थों में प्रयुक्त नहीं हुआ था, वरन् अरविंद इसका प्रयोग एक उत्कृष्ट आदर्शवादी और दिव्य जीवन के लिए उत्सुक तेजस्वी व्यक्तित्व के लिए किया करते थे। पत्र के नाम से ही पत्र का उद्देश्य व्यक्त होता था। कुछ समय तक तो पॉल ने इस पत्र का खर्च वहन किया परंतु बाद में यह आत्म निर्भर बन गया।
मीरा रिचार्ड अरविंद से इतनी प्रभावित थीं कि प्रायः वे प्रतिदिन उनके पास आया करतीं। दोपहर बाद तो वे लगभग साथ ही रहतीं। अरविंद की दैनंदिन आवश्यकताओं के लिए वे अपने साथ नारियल तथा अन्य खाद्य वस्तुयें लाती थीं। पॉल रिचार्ड का भारत आगमन तो कुछ अन्य प्रयोजनों से भी हुआ था। वे उन कार्यों की पूर्ति में व्यस्त रहते। फिर भी सप्ताह में एक बार वे अवश्य अरविंद के पास आते और उनके साथ भोजन करते थे। मीरा रिचार्ड अरविंद के सहवास में अध्यात्म के अनेक विषयों पर चर्चा करतीं।
उस समय अरविंद अध्यात्म साधना के ऐसे आयामों पर पहुंच चुके थे जहां साधक को अपने वाह्य जीवन पर कम ही ध्यान रह पाता है। प्रायः वह अपनी वाह्य स्थिति को भूल ही जाता है। ऐसी दशा में उनकी आवश्यकताओं का पूरा ध्यान रखने का दायित्व मीरा रिचार्ड ने अपने ऊपर ले लिया था।
परंतु वे एक वर्ष से भी कम समय तक पांडिचेरी आश्रम रह सकी थीं। उन दिनों विश्वयुद्ध आरंभ हुआ और फ्रांस सरकार ने पॉल रिचार्ड को फौजी सेवा के लिए स्वदेश वापस बुलाया। मीरा रिचार्ड ने 21 फरवरी 1915 को अपना जन्म दिन आश्रम में मनाया और अगले दिन दोनों पति-पत्नी फ्रांस रवाना हो गये। यद्यपि मीरा रिचार्ड अनिच्छापूर्वक गयीं फिर भी वे अपनी आत्मा को जैसे अरविंद के पास ही छोड़ गयीं।
मीरा रिचार्ड अधिक समय तक अपने मन को फ्रांस में बांधे न रह सकीं। पॉल भी उनकी मनःस्थिति को भली-भांति समझते थे और उन्होंने स्वेच्छा से यह अनुमति दे दी कि वे पांडिचेरी जाकर अरविंद के पास रहें। यह प्रस्ताव आते ही मीरा रिचार्ड को जैसे विश्व की समस्त संपदायें मिल गयीं, और वे पांडिचेरी आ गयीं। उनका यह आगमन पांच वर्ष के लंबे अंतराल के बाद हुआ था। 22 अप्रैल 1920 को उन्होंने स्वयं को अरविंदाश्रम के लिए समर्पित कर दिया और उसी समय से वहां रह रहे सभी साधकों ने उन्हें माताजी कहकर पुकारना आरंभ कर दिया।
वे संबोधन से ही नहीं व्यक्तित्व और दायित्व से भी माताजी बन गयी थीं। आश्रम की सारी आंतरिक व्यवस्थायें उन्होंने अपने हाथ में ले ली थी। यों तो उस समय आश्रम का विधिवत निर्माण हुआ नहीं था तथा अरविंद और साधकगण एक स्थान पर ही रहते थे। लेकिन अरविंद से मुलाकात करने और मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए आने वाले आगंतुक व अन्य कार्यों ने उनकी व्यस्तता को बढ़ा दिया था। कई साधक उनके निवासस्थान के आसपास मकान किराये पर लेकर रहने लगे थे। ऐसी स्थिति में माताजी पर अरविंद की देखभाल का दायित्व तो था ही साधकों का ध्यान रखना भी उन्हीं के सुपुर्द था।
अरविंद के पास आने वाले साधकों की संख्या दिनों-दिन बढ़ती गयी। उनके खाने-पीने का प्रबंध भी माताजी के हाथ में था। अरविंद के पास आर्थिक साधनों का अभाव था। अतः जैसा समय पर मिल जाता वैसी व्यवस्था कर ली जाती। स्वादिष्ट व्यंजनों के अभ्यस्त कुछ साधकों को इससे दिक्कत होने लगी। इस पर अरविंद ने साधना का एक महत्वपूर्ण सूत्र साधकों को समझाया—‘‘हम लोगों को किसी भी तरह के खास और विशेष स्वाद के लिए आग्रह नहीं करना चाहिए। शरीर को अच्छी हालत में रखने के लिए किसी भी तरह का पोषण आवश्यक है। घटिया खाना शरीर को खराब कर देता है इसलिए अच्छा खाना तो खाना चाहिए। परंतु अच्छे खाने का अर्थ यह है कि उससे शरीर का पोषण हो जाय न कि वह स्वादिष्ट हो।’’
इस प्रकार अरविंदाश्रम की व्यवस्था संबंधी सभी गतिविधियों माताजी के हाथ में आ गईं। 24 नवंबर 1926 से अरविंद नितांत एकांत में रहने लगे। प्रत्यक्षतः उनने बाहरी संपर्क भी तोड़ लिया। साधकों को मार्गदर्शन और मुलाकातियों को परामर्श देने का पूरा कार्य माताजी के माध्यम से ही वे करने लगे। माताजी अरविंद की देखभाल करतीं और उन्हें जब जिस चीज की जरूरत पड़ती, उसकी पूर्ति भी करतीं। आश्रम का सारा प्रबंध भी वे ही चलातीं। इस प्रकार उनकी व्यस्तता दिनों-दिन बढ़ती गयी और जिम्मेदारियों के बावजूद भी माताजी योग साधना में अच्छी प्रगति करने लगीं।
अरविंद ने जिस योग पद्धति का विकास किया उसका नाम है—पूर्ण योग। संक्षेप में इस साधना का अर्थ है समर्पण के माध्यम से परमात्मा की प्राप्ति। समर्पण के बाद व्यक्ति का अपना कुछ नहीं रह जाता—न आकांक्षायें और न लालसायें। इसके साथ यह भी उल्लेखनीय है कि पूर्ण योग न तो पलायनवादी है और न निष्क्रियतावादी। उसमें साधक जीवन की सघनता में जीता है और ऐसी स्थिति में साधक का जब अपना कुछ भी नहीं रह जाता तो उसकी सारी क्रियायें विश्वमाता की अर्चन बन जाती हैं। स्वयं अरविंद और माताजी भी जीवन भर आत्मोत्थान के साथ-साथ विश्वमाता की अर्चना में लीन रहे। अरविंद ने कई अवसरों पर एकात्म विश्व की आवश्यकता का प्रतिपादन किया है। उनके इस स्वप्न को साकार करने का संकल्प भी माताजी ने लिया और ओरोविल नामक एक अपूर्व नगर के निर्माण की योजना बनायी। इस नगर में संसार भर के लोगों को निवास की सुविधा रहेगी—ऐसे लोगों के लिए जो विश्व-बंधुत्व और विश्वराष्ट्र के आदर्श में विश्वास करते हैं। ओरोविल की आधारशिला माताजी ने अपने हाथों से रखी है।
इस निर्माण के अतिरिक्त आश्रम जीवन का आदर्श भी अनूठा है। वहां के जीवन में आध्यात्मिक साधना के साथ-साथ आश्रम का बाह्य संगठन और व्यवस्था भी अति उत्तम है। वहां की व्यवस्थायें इस प्रकार की प्रयत्नपूर्वक बनाई गई हैं कि आश्रम में प्रवेश करते ही साधक दिव्य जीवन की ओर आकृष्ट होने लगता है।
इसके अतिरिक्त आश्रम का एक और महत्वपूर्ण भाग है—अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा केंद्र। वहां पूर्व और पश्चिम का अनुपम संगम हुआ है। श्री अरविंद ने चालीस वर्ष तक अपनी अखंड एकांत साधना के बाद जो कुछ उपलब्ध किया उसी को साकार रूप देने के लिए प्रयत्न किये जा रहे हैं। आश्रम में पुरुष हैं, स्त्रियां हैं, युवक हैं, युवतियां हैं, बच्चे हैं—सब कुछ परिवार जैसा है। परंतु लगता है जैसे अध्यात्म के आह्लाद सागर की तरंगें वहां नित्य उठती हों। सब उन्मुक्त पक्षी की तरह चहकते हैं, सारा जीवन ही योग है। अरविंद का सूत्र वाक्य यहां चरितार्थ होता है।
इन सब व्यवस्थाओं के बावजूद श्री माताजी अपने शेष जीवन में साधकों का पथ प्रदर्शन करती रहीं। श्री अरविंद के देहावसान के बाद तो यह जिम्मेदारी और भी गंभीरता से बढ़ गयी। उन्होंने अपनी शक्ति द्वारा आश्रमवासी तथा दूरवर्ती साधकों को साधना के पथ पर अग्रसर किया। अपने संपूर्ण श्रम, ज्ञान, शक्ति एवं चेतना के साथ प्रत्येक सोये हुए साधक को सहारा दिया।
अरविंद के देहावसान के बाद 22 वर्षों तक उन्होंने अपने पथ-प्रदर्शन द्वारा सौंपे गये दायित्वों को सफलतापूर्वक निबाहा और 17 नवंबर 1974 को महाप्रयाण कर दिया। वे नहीं हैं परंतु उनकी प्रेरणायें लाखों साधकों का पथप्रदर्शन करती रहेंगी। उनका यह कथन कि—‘‘मानसिक एवं सांसारिक वस्तुओं की उपेक्षा अज्ञान और जड़ता का लक्षण है। यदि हम भौतिक वस्तुओं का सही-सही उपयोग न कर सकें तो उन्हें रखने का हमें कोई अधिकार नहीं है। भौतिक वस्तुओं की देखभाल आसक्ति वश नहीं वरन् इसलिए करनी चाहिए कि वे भागवत चेतना और उसकी उपयुक्तता को व्यक्त करती हैं’’—हजारों साधकों को निरंतर प्रेरणायें देता रहेगा।
(यु. नि. यो. मई 1976 से संकलित)

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