तन विदेशी मन भारतीय

भगिनी-निवेदिता

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जीते तो पशु-पक्षी और कीड़े-मकोड़े भी हैं पर जीवन उसका धन्य है जो अपने आपको सत्य के लिए पूर्ण रूपेण समर्पित कर देते हैं। भगिनी निवेदिता को ऐसे ही जीवन का पर्याय कहा जा सकता है जिसके शरीर की धमनियों में सेवा रक्त की तरह प्रवाहित हो रही हो। उन्होंने अपने ऊपर कभी भी अपना अधिकार न मानकर ईश्वर इच्छा के अनुकूल चलने में ही अपना सौभाग्य माना।
भगिनी निवेदिता का बचपन का नाम मार्गरेट नोबुल था। उनका जन्म 28 अक्टूबर 1867 को एक आयरिश परिवार में हुआ था। पिता का नाम सैम्मुअल रिचमंड तथा माता का नाम मेरी हैमिल्टन था। नोबुल को जन्म से ही धार्मिक वातावरण मिला था। उसके पिता एक ईसाई धर्म प्रचारक थे। इसी संदर्भ में घर पर अनेक पादरियों का आना जाना लगा रहता था। भारत में धर्म प्रचार हेतु भेजे गये एक पादरी ने नोबुल के सिर पर बड़े स्नेह से हाथ रखते हुए कहा था—‘भारत को किसी दिन इस बालिका की आवश्यकता पड़ेगी।’ और उस पादरी की भविष्यवाणी अक्षरशः सत्य सिद्ध हुई। रिचमंड की मृत्यु भी 34 वर्ष की अल्प आयु में हो गई थी पर उनके द्वारा कहे गये अंतिम शब्द नोबुल के लिए बड़े महत्व के थे। उन्होंने कहा था—‘नोबुल के जीवन में एक पुकार आयेगी। जब भगवान की ओर से उसके लिए निमंत्रण आये तो उसे रोकना मत। उसके द्वारा मानवता की सेवा के लिए महान कार्य संपन्न होंगे।’
सन् 1886 में उन्होंने ऐजाम नामक स्थान पर 19 वर्ष की आयु में अध्यापन का कार्य प्रारंभ कर दिया था। उन्होंने 1892 में ‘रस्किन स्कूल’ की स्थापना करके बच्चों को नैतिकता की ओर ले जाने के लिए भरसक प्रयत्न किया। 18 वर्ष की आयु भावी जीवन के स्वर्णिम स्वप्न देखने की होती है उस समय नोबुल का मन अशांत रहने लगा था। वह कभी गिरजाघर में तो कभी एकांत स्थान पर चिंतन-मनन में खोई हुई मिलती थीं। 18 वर्ष की इस अल्प आयु में ही ईसाई धर्म के प्रति उनके मन में अनेक शंकाएं उठने लगीं। शिकागो के धर्म सम्मेलन को हुए भी अभी अधिक समय नहीं हुआ था। स्वामी विवेकानंद सितंबर 1895 में इंग्लैंड पधारे। दो माह बाद ईसाबेल मारजेसन के वेस्ट एंड स्थित भवन पर स्वामी जी की गोष्ठी का आयोजन किया गया। नोबुल भी इस कार्यक्रम में उपस्थित थीं। वे स्वामी जी के प्रथम दर्शन से अत्यधिक प्रभावित थीं। उन्हें ऐसे चिंतनशील व्यक्ति से मिलने का इससे पूर्व कभी अवसर न मिला था। जहां जहां स्वामी जी के कार्यक्रम हुए नोबुल समय निकाल कर हर जगह जातीं और अपनी शंकाओं का समाधान करती थीं। अध्यात्म की इन चर्चाओं से अज्ञान का अंधकार छंटने लगा और ज्ञान की उज्ज्वल किरणें हृदय तथा मस्तिष्क को स्पर्श करने लगीं। बाद में तो वह अनुभव करने लगीं कि यदि कहीं स्वामी जी लंदन न पधारे होते तो मेरा यह मानव जीवन निरर्थक ही चला जाता। उन्होंने सोचने और कर्म क्षेत्र में कुछ करने की दिशा प्रदान की। दो माह बाद स्वामी जी अमेरिका चले गये पर नोबुल के मन में अध्यात्म विषयक एक सुदृढ़ पृष्ठभूमि का निर्माण हो चुका था।
15 अप्रैल 1896 को जब स्वामी विवेकानंद पुनः इंग्लैंड पधारे और रस्किन स्कूल गये तो वहां के बच्चों को देखकर उन्हें भारतीय निर्धन और अशिक्षित परिवारों के बच्चों की याद आई और उनके नेत्रों से आंसू झर पड़े। स्वामी जी का दुःख नोबुल से न छिप सका। उन्होंने भारत के दीन-दुखियों की सेवा कार्यों में तन-मन-धन से पूरा-पूरा सहयोग देने का आश्वासन दिया। स्वामीजी उनकी भारत यात्रा को हमेशा टालते रहे। वह नहीं चाहते थे कि भावुकता में उठाया गया कोई कदम हास्यास्पद बने। वह चाहते थे कि विचारों में परिपक्वता आये, अंतरंग में दुःखी मानवता के लिए कसक पैदा हो। वह 16 सितंबर 1896 को भारत लौट आये पर उन्होंने नोबुल को भारत आने की तभी स्वीकृति दी जब उनके दृष्टिकोण में उचित परिवर्तन हुआ। स्वामी जी ने पत्र में लिखा—‘भारत में कार्य की दृष्टि से तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल है। यहां मनुष्य की नहीं वरन् महिला की आवश्यकता है जो सिंहनी की तरह, यहां व्याप्त दासता, निर्धनता और अंधविश्वास जैसी कठिनाइयों को दूर कर सके। यहां तुम्हें ऐसे अर्द्धनग्न स्त्री-पुरुषों के बीच रहना होगा जिनकी जातिवाद के संबंध में विचित्र धारणायें है। यहां की जलवायु भयानक रूप से गर्म है। इन परिस्थितियों के बाद भी यदि तुममें कार्य करने का साहस है तो तुम्हारा स्वागत है।’
नोबुल इसी क्षण की तो प्रतीक्षा कर रही थी उन्होंने अपनी मां, भाई, बहिन, मित्र तथा परिचितों से कारुणिक वातावरण में विदा ली। वह मोंबासा जहाज पर सवार हो भारत आयीं। 28 जनवरी 1898 का वह पावन दिन नोबुल के जीवन में कितना महत्वपूर्ण होगा जब स्वामी विवेकानंद ने पुष्पहारों से उनका स्वागत किया। उन्होंने आते ही अध्यात्म क्षेत्र में संपर्क बढ़ाने के लिए बंगला भाषा सीख ली। यदि व्यक्ति में सच्ची लगन हो तो एक क्या बीसियों भाषाओं का अपने जीवन में विद्वान बन सकता है।
17 मार्च 1898 को वह मां शारदा से मिलीं तो उन्होंने अपनी भुजाओं में समेट कर कहा—‘बेटी, तुम्हें पाकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई।’ एक सप्ताह बाद नीलांबर मुखर्जी की वाटिका में स्वामी विवेकानंद ने नोबुल को ब्रह्मचारिणी व्रत की दीक्षा दी और नाम रखा ‘निवेदिता’।
कलकत्ता में प्लेग का प्रकोप हुआ तो लोग अपनी जान बचा-बचा कर शहर छोड़कर भाग रहे थे। मेहतर मिलते न थे। उस समय की विकट परिस्थितियों में अपने प्राणों का मोह छोड़कर उन्होंने अपने हाथ में फावड़ा ले लिया और बाग-बाजार की गंदी नालियों की सफाई करने लगीं। इनके इस कार्य से कितने ही युवक लज्जित हुए और राहत कार्य में अपनी सेवायें देने लगे।
भगिनी निवेदिता ने स्वामी विवेकानंद के साथ अल्मोड़ा, कश्मीर, अमरनाथ, कलकत्ता, बड़ौदा और मद्रास क्षेत्रों का भ्रमण भी किया। यहां की स्थिति को देखकर उनके मन में यह दृढ़ मान्यता बन गयी कि यदि किसी देश का कल्याण करना है तो महिलाओं और जन मानस की जागृति की ओर पहले पूरा पूरा ध्यान देना चाहिए। जहां की मातृ शक्ति अपमानित होती रहती हो उस देश के उत्थान की कोई आशा नहीं की जा सकती।
इस उद्देश्य से स्वामी जी के परामर्श पर निवेदिता ने 13 नवंबर 1898 को कलकत्ता में एक ‘महिला विद्यालय’ की स्थापना की। पर विदेशी महिला के संपर्क में कोई अपनी लड़कियों को देने को तैयार न था। हर शुभ कार्य का प्रथम चरण उपहास और विरोध से ही प्रारंभ होता है। यहां भी यही स्थिति रही पर निवेदिता के सरल स्वभाव, सेवा भावना तथा स्नेहमय व्यवहार से प्रभावित होकर कतिपय जगदीश चंद्र बसु, रवींद्रनाथ टैगोर तथा केशव चंद्र सेन जैसे प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने अपनी कन्याओं को भेजना शुरू किया।
प्रमुख संस्थाओं के निमंत्रण पर तथा धनराशि एकत्रित करने के उद्देश्य से वे तीन वर्ष के लिए लंदन, शिकागो, न्यूयार्क तथा पेरिस की यात्रा पर गयीं। जनवरी 1902 में जब वे भारत आयीं तो महिला शिक्षण के अधूरे कार्य में पुनः जी जान से जुट गयीं। सन् 1902 में लार्ड कर्जन द्वारा गठित विश्वविद्यालय आयोग की उन्होंने कटु आलोचना की।
वे युवापीढ़ी को त्याग, बलिदान और सेवा का पाठ पढ़ाना चाहती थीं इसके लिए उन्होंने विवेकानंद समिति, क्रांतिकारी समिति, अनुशीलन समिति तथा डान समिति का आश्रय लिया। स्वामी विवेकानंद के इस संसार से विदा होने के बाद वे घूम-घूम कर भारतीय अध्यात्म का संदेश जन-जन तक पहुंचाने लगीं। उन्होंने ‘युगांतर’ तथा ‘वंदे मातरम्’ की लोकप्रियता बढ़ाने में पूरा पूरा सहयोग दिया।
यद्यपि 13 मार्च 1905 से उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा था पर इसकी तनिक भी चिंता उन्हें न थी। बंग भंग के विरोध में जब प्रथम सभा का आयोजन हुआ तो भगिनी निवेदिता ने सिंहनी की तरह गर्जना की। किसानों और मजदूरों की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए उन्होंने कई सहकारी समितियों की स्थापना की। वे चाहती थीं कि देश के सभी गर्म व नर्म दल के नेता एक जुट होकर मातृभूमि के बंधनों को काटने का प्रयास करें। आपस में फूट का लाभ अंग्रेजों को न मिले इसलिए उन्होंने कांग्रेस के वाराणसी अधिवेशन में इस खाई को पाटने की भी पूरी पूरी कोशिश की।
भगिनी का शरीर क्षमताओं से अधिक कार्य करने के कारण दुर्बल होता जा रहा था। पीलिया ने उन्हें और कमजोर बना दिया फिर भी रोग शैय्या पर लेटे लेटे उन्होंने ‘दि मास्टर, एज आई सी हिम’ तथा ‘क्रेडल टेल्स आफ हिंदूइज्म’ ग्रंथों की रचना की। इसके अतिरिक्त ‘फुट फाल्स आफ इंडियन हिस्ट्री’, ‘स्टडीज फ्राम एन डीस्ट्रन हाउस’ तथा ‘रामकृष्ण वचनामृत’ भी इनकी प्रमुख रचनायें हैं।
भगिनी निवेदिता भारत की स्वतंत्रता के लिए जन जागरण के साथ अस्त्र-शस्त्रों की शक्ति को भी आवश्यक मानती थीं। उन्होंने विभिन्न महापुरुषों के संपर्क में आकर अपने ज्ञान की परिधि को काफी विस्तीर्ण कर लिया था। प्रफुल्ल चंद्र राय की प्रयोगशाला में उल्हास दत्त को उन्होंने ही बम बनाना सिखाया था। हेमचंद्र को फ्रांस और इटली भेजने के पीछे भी यही उद्देश्य छिपा था।
उनमें अद्भुत शक्ति थी। वह भारत में रहकर यहां की उन्नति हेतु अपना सर्वस्व न्यौछावर करना चाहती थीं। उनका जन्म भले ही विदेश में हुआ हो पर भारत के कण कण से उन्हें अनुपम प्यार था। वह किसी के कष्ट को देखकर बेचैन हो जाती थीं और किसी भी तरह उसे दूर करने का प्रयत्न करती थीं। स्वामी सदानंद को अस्वस्थ देखा तो वे हिमालय की ओर लेकर चल पड़ीं। अब स्वयं का शरीर भी साथ नहीं दे रहा था। हड्डी-हड्डी रह गयी थी। परिश्रम की कोई सीमा न थी। वे जलवायु परिवर्तन के लिए दार्जलिंग गयीं। उनकी हालत रास्ते में बिगड़ गयी। खून के दस्त होने लगे। डॉ. नील रत्न सरकार तथा विपिन बिहारी सरकार ने उनकी चिकित्सा में कोई कमी न रखी फिर भी उन्हें बचाया न जा सकता। अंतिम क्षण उनकी उंगलियां रुद्राक्ष की माला पर थीं।
भगिनी निवेदिता भगवत् प्राप्ति की प्यास में ही जीवन की पूर्ण सार्थकता मानती थीं। वह आजीवन संसार को सियाराम मय मानकर पूजा अर्चना करती रहीं।
(यु. नि. यो. मई 1977 से संकलित)

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