तन विदेशी मन भारतीय

वेदज्ञ मैक्समूलर

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‘‘छोटा सा सुंदर मकान, उसके इर्द-गिर्द सुंदर बगीचा, शांत, सौम्य मुखड़े वाले, श्वेत केश, मनीषी, जिनका माथा सत्तर हेमंत झेलकर भी बालक की तरह चिकना है व उनके मुखड़े की प्रत्येक लकीर अपने पीछे गहराई में छिपी आध्यात्मिक खान का परिचय देती है, उनकी साध्वी पत्नी जो उत्तेजक दिलचस्पी से भरे लंबे श्रम साध्य कार्य में, घोर विरोध व अपमान में और अंततः प्राचीन भारत के मनीषियों के चिंतन के प्रति आदर उत्पन्न करने में उनकी जीवन सहयोगिनी रही हैं—इन सब चीजों ने मेरे मन को प्राचीन भारत के स्वर्णिम दिनों में, ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों के, वशिष्ठों और अरुंधतियों के दिनों में, पहुंचा दिया।’’
विदेश-प्रवास काल में ऑक्सफोर्ड से अपने एक देशवासी भाई को लिखे इस पत्र में स्वामी विवेकानंद ने जिस व्यक्तित्व और उसके द्वारा संपादित महान कर्तृत्व की अभ्यर्थना की है—वह थे वेदज्ञ पाश्चात्य विद्वान मैक्समूलर, जिन्होंने सर्वप्रथम विश्व को अंग्रेजी भाषा में ऋग्वेद का मुद्रित संस्करण दिया था। इसके लिए उन्हें वर्षों तक अहोरात्र मानसिक श्रम ही नहीं करना पड़ा था वरन् कई संकट, कई कठिनाइयों व व्यंग्य वाणों का धैर्य व दृढ़तापूर्वक सामना करना पड़ा था। इसी कारण स्वामी विवेकानंद जैसे महान व्यक्ति की दृष्टि में वे इतने सम्मानीय बन सके थे।
देवोमय संस्कृति का प्रथम और उच्चतम विकास जिस भूमि पर हुआ था उस भारत भूमि और उसके निवासियों के प्रति मैक्समूलर महोदय के हृदय में अनूठा प्रेम था। स्वामी विवेकानंद ने जब उनसे यह प्रश्न पूछा कि आप भारत कब पधार रहे हैं तो उनके नयन नम हो गये। उन्होंने अवरुद्ध कंठ से कहा था—‘‘तब फिर मैं लौटूंगा नहीं, आपको मेरा अग्नि दाह वहीं करना पड़ेगा।’’ उनके इन शब्दों से स्पष्ट पता चल जाता है कि वे भारत के कितने भक्त थे। कोई व्यक्ति किस सीमा तक किसी संस्कृति से प्रभावित हो सकता है यह उनके इस कथन से स्पष्ट है। आज यदि वे भारत आते तो क्या निश्चय ही वे प्रसन्न होते? इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक ही हो सकता है। हम भारतवासी जिस प्रकार अपनी संस्कृति की उपेक्षा कर रहे हैं और पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति का अंधानुकरण कर रहे हैं, उसे देखकर उन्हें कितनी मर्मांतक पीड़ा होती, यह कल्पना ही त्रासदायी है।
स्वामी विवेकानंद ने जब उन्हें इस कष्ट के लिए धन्यवाद दिया कि उन्हें स्वयं स्वामी जी को ऑक्सफोर्ड के विभिन्न कालेज दिखाने पड़े थे तो उन्होंने बड़ी सहजता से कहा था—‘‘रामकृष्ण परमहंस के शिष्यों से रोज थोड़े ही मुलाकात होती है।’’ इन शब्दों में उन्होंने अध्यात्मवादी भारत की जो अभ्यर्थना की थी वह हमारे लिए गौरव की बात भी है कि यहां ऐसे अध्यात्मवादी पैदा हुए; पर शर्म की बात भी है कि आज इस देश में अध्यात्म के नाम पर अकर्मण्यता, पलायनवाद, पोंगापंथी और अंधविश्वास का ही जाल फैला हुआ है। इस जाल को तोड़ना अति आवश्यक है।
जर्मनी में जन्मे और पचास वर्ष तक इंग्लैंड में रहे मैक्समूलर भावनाओं, विचारणाओं और कर्तृत्वों से पूरे भारतीय मनीषी थे। इस प्रकार उनका व्यक्तित्व राष्ट्र की संकीर्ण सीमाओं से ऊपर उठ चुका था। वे एक प्रकार से विश्व नागरिक थे। जर्मनी के प्रख्यात कवि विल्हेम मूलर के घर 1823 में उनका जन्म हुआ। जन्म के चार वर्ष बाद ही उन्हें पितृशोक सहना पड़ा। बचपन में ही उनका परिचय महान संगीतकार मेडलहासन से हुआ। संगीत में उनकी रुचि बढ़ ही रही थी कि स्वयं मेडलहासन ने उन्हें इस क्षेत्र से विरत कर दिया।
वे लिपजिग विश्वविद्यालय में पढ़े। वहां संस्कृत भाषा के आचार्य प्राचार्य ब्राक हाउस ने उन्हें क्लासिक साहित्य पढ़ने की राय दी। उन्होंने संस्कृत पढ़ना आरंभ किया तो अठारह महीनों में ही संस्कृत ज्ञान में इतनी दक्षता प्राप्त कर ली कि हितोपदेश का अनुवाद भी कर डाला। हितोपदेश का यह अनुवाद जब तीन वर्ष बाद प्रकाशित हुआ तो विद्वज्जनों में बड़ा लोकप्रिय हुआ और इक्कीस वर्षीय मैक्समूलर को काफी सम्मान मिला जो उनकी वय को देखते हुए बहुत अधिक था। इसका श्रेय मैक्समूलर के उस स्वभाव को है जो किसी भी कार्य को आधे-अधूरे मन से संपादित करना नहीं चाहता था।
वे आरंभ में संगीतकार बनना चाहते थे। कहना न होगा कि वे उस क्षेत्र में भी प्रयास करते तो थोड़े ही दिनों में विख्यात संगीतकारों की पंक्ति में जा विराजते। स्पष्ट है कि कोई भी व्यक्ति उनकी तरह किसी भी काम को पूरे मन से करता है तो उसे उसमें ख्याति और सफलता मिलते देर नहीं लगती। कोई व्यक्ति अपने कार्य में असफल होता है तो उसे अपने आपको टटोलना चाहिए कि क्या उसने कार्य को पूरे मन और पूरी निष्ठा के साथ उसी प्रकार किया जिस प्रकार मैक्समूलर किया करते थे।
लिपजिग विश्वविद्यालय से स्नातक बनकर वे बर्लिन विश्वविद्यालय में प्रविष्ट हुए। यहां उन्हें अनेक धुरंधर भाषा-शास्त्रियों का सहयोग-सान्निध्य प्राप्त हुआ। यहीं उनके मन में ऋग्वेद का संस्करण तैयार करने की कामना जागृत हुई।
कार्य बड़ा कठिन था। यह एक व्यक्ति का नहीं पूरी एक संस्था का कार्य था। किंतु वहां न तो ऐसी कोई संस्था ही थी और न वैसी संस्था का निर्माण ही संभव था। इस श्रम साध्य और आर्थिक लाभ से शून्य कार्य के लिए सहयोगियों का मिलना भी अति कठिन था। किंतु भारतीय धर्म और संस्कृति के उच्चतम स्वरूप का दिग्दर्शन कराने वाले इस प्राचीनतम आर्ष ग्रंथ से विश्व को परिचित कराने की उपयोगिता और आवश्यकता को वह बखूबी समझते थे। वे स्वयं इस ज्ञान संपदा से एक हो चुके थे। संस्कृत के अध्ययन ने उनके सामने एक नई दुनियां के द्वार खोल दिये थे। वे उसका लाभ अपने तक ही सीमित न रखकर समस्त विश्व को बांटना चाहते थे। अतः उन्होंने अकेले ही इस कार्य को हाथ में लिया।
कार्य कितना ही कठिन और दायित्व कितना ही बड़ा क्यों न हो जब कोई उसे पूरे मन से स्वीकार कर संकल्पबद्ध हो जुट जाता है तो फिर वह पूरा हुए बिना नहीं रहता।
मैक्समूलर ने भी ऋग्वेद का संस्करण प्रकाशित करने का संकल्प लिया तो वे तुरंत ही उसे पूरा करने की साधना में जुट पड़े। उन्होंने प्राचीन पांडुलिपि अपने हाथों से तैयार की, मिलान किया और संदर्भों की जांच की। उस समय आर्ष ग्रंथों का न कोई मुद्रित संस्करण ही उपलब्ध था, न कोष थे, न अनुक्रमणिकाएं थी और न ग्रंथ सूचियां ही थीं। अकेले ही उन्हें यह सब कार्य करना पड़ता था। अहोरात्र श्रम की अनवरत तप साधना के द्वारा ही यह असंभव कार्य संभव हुआ। आश्चर्य का विषय है कि पूर्व के इस ज्ञान को प्रकाश में लाने का महाउद्योग एक पाश्चात्य मनीषी द्वारा संपन्न हुआ।
मैक्समूलर पचास वर्ष तक इंग्लैंड में रहे थे। उन्होंने जिस कार्य को हाथ में लिया था उसके लिए संदर्भ सामग्री उनके अपने देश में उपलब्ध नहीं थी। आर्ष ग्रंथों की पांडुलिपियों का संग्रह इंग्लैंड में था। कहना न होगा कि कोई व्यक्ति जब किसी महान कार्य को हाथ में लेता है तो उसके मार्ग में कठिनाइयां भी कम नहीं आती हैं और सहयोग भी कम नहीं मिलता। ईस्ट इंडिया कंपनी के पुस्तकालय के अध्यक्ष संस्कृत भाषा के प्रकांड विद्वान एच. एच. विल्सन ने उनके इस कार्य की महत्ता को आंका और उन्होंने अपने प्रभाव से कंपनी के संचालकों से ऋग्वेद के मुद्रित संस्करण का कार्य दिलाया। इस प्रकार उन्हें स्वल्प आर्थिक सहायता भी कंपनी से मिली।
सामग्री एकत्रित करके उसकी व्यवस्थित पांडुलिपि तैयार करने के लिए मैक्समूलर को तीन वर्ष का कठोर श्रम करना पड़ा। सामग्री तैयार हुई तो मुद्रण संबंधी समस्याएं आयीं। उन दिनों इंग्लैंड में नागरी लिपि का टाइप भी उपलब्ध नहीं था। वे कई प्रेस संचालकों से मिले पर कोई इस जोखिम भरे कार्य को करने को तैयार नहीं हुआ क्योंकि उन्हें इसी एक कार्य के लिए टाइप तैयार करना पड़ता जिससे बाद में छपाई की कोई संभावना उनकी कल्पना में नहीं थी। यह एक नया काम था और नया काम जमाने में हजार अड़चने आती हैं। इन अड़चनों को देखकर कोई प्रेस संचालक उनके ऋग्वेद को छापने को तैयार नहीं हुआ। अंत में क्लैरेडन प्रेस ने यह कार्य स्वीकार किया। मुद्रण कार्य की सुविधा को देखते हुए उन्हें लंदन छोड़कर ऑक्सफोर्ड आ बसना पड़ा।
मैक्समूलर ने नागरी अक्षर लिखकर दिये जिन पर प्रेस ने अक्षर ढाले और मुद्रण कार्य आरंभ हुआ। सायण भाष्य समेत ऋग्वेद की प्रथम जिल्द सन् 1849 में तैयार हुई। तब मैक्समूलर केवल छब्बीस वर्ष के थे। इस छोटी आयु में उन्होंने जितना बड़ा कार्य किया था उसने उनका नाम अमर कर दिया। उनके द्वारा प्रकाशित प्रथम ऋग्वेद फोलियो आकार के 800 पृष्ठों में छपा था।
इतना बड़ा कार्य संपादित करने का श्रेय मैक्समूलर ने स्वयं नहीं लिया वरन् दूसरों को ही दिया। प्रथम आवृत्ति के आरंभ में उन्होंने लिखा—‘‘मैं विश्वविद्यालय से निकला ही था कि इस विश्वास ने मुझे अभिभूत कर लिया कि वेद ज्ञान के बिना हमारे समस्त संस्कृत अध्ययन की नींव कच्ची रहेगी। इसलिए मैंने अपना जीवन सायण भाष्य-समेत ऋग्वेद का संस्करण प्रस्तुत करने में लगा देने का संकल्प किया। यह ऐसा काम था, जो निश्चय ही उस समय मेरी शक्ति से परे था, परंतु जिसे अपने कृपालु मित्रों की सहायता से पूरा करने का सौभाग्य मुझे मिला है।
मैंने ऋग्वेद और सायणभाष्य को अंतिम पंक्ति की प्रतिलिपि कर ली और अपनी कलम रख दी, मुझे प्रतीत हुआ, जैसे किसी पुराने मित्र से विदा ले रहा हूं। पिछले कई वर्षों में ऐसा एक भी दिन शायद ही गुजरा हो, जिसमें मैंने इस काम की चिंता न की हो और बहुत दिनों तक और बहुत रातों में भी ऋग्वेद के प्राचीन कवि और उनसे भी बढ़कर संप्रदाय-निष्ठ, परिश्रमी, भाष्यकार मेरे सदा के साथी रहे हैं।’’
प्राचीन भारतीय चिंतकों, मनीषियों एवं भाष्यकारों के सूक्ष्म सान्निध्य की जो बात मैक्समूलर ने कही है वह एक ऐसे आंतरिक जगत की ओर संकेत करती है जिससे पाश्चात्य जगत अभी तक अछूता ही था।
1880 से जब वे 57 वर्ष के हो चले थे और भाषा संबंधी अन्य कार्यों में व्यस्त थे, उनके पास उनके अनेकानेक भारतीय मित्रों के आग्रह आने आरंभ हो गये थे कि वे ऋग्वेद के दूसरे संस्करण का प्रकाशन करें। पहला संस्करण तो हाथों हाथ बिक गया था। कार्य व्यस्तता के कारण दस वर्ष तक इस मांग को टालते रहे पर अंत में उन्हें इस कार्य को पुनः हाथ में लेना पड़ा। अब की बार भारत सचिव ने उन्हें आर्थिक सहायता दी और 70 वर्ष की आयु में एक बार पुनः वे युवकों जैसे उत्साह से संशोधित संस्करण निकालने में जुट पड़े। इस बार भी उन्होंने पहले की ही तरह अपनी सेवाएं-निःशुल्क अर्पित कीं। विद्या-विभूति पर निज का नहीं वरन् संसार के सिरजनहार का स्वामित्व मानकर जिस निष्काम भाव से मैक्समूलर ने उसका सदुपयोग किया वह विद्वज्जनों के सम्मुख एक अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत करता है।
विजय नगर नरेश द्वारा उन्हें आग्रहपूर्वक लिखे गये पत्र का यह अंश उनके कार्य का उचित मूल्यांकन करता है—‘‘......भारतीय साहित्य व जनमानस के आपके अध्ययन का निश्चय ही समस्त हिंदुओं पर ऐसा महान ऋण है कि आपके किसी भी कार्य में और विशेषतः हमारे लिए ऐसे साहित्यिक और धार्मिक कार्य में यथाशक्ति सहायता करें।’’
मैक्समूलर महोदय ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के कई पदों पर रहे। किंतु उन्होंने धर्म के क्षेत्र में जिस उदारता का परिचय दिया था उस कारण उन्हें कई बार उपेक्षित होना पड़ा। एक गुलाम देश की सांस्कृतिक धरोहर को उच्च उदात्त रूप में प्रस्तुत करने के कारण वे अंग्रेज लोगों की आंखों में खटके भी। इसी कारण उनकी योग्यता का समुचित सम्मान भी नहीं किया गया। एक तो जर्मन थे, दूसरे भारतीय संस्कृति के अध्येता, अन्वेषक ही नहीं पोषक और पालनकर्ता भी थे अतः जब संस्कृत-प्राध्यापक का बोडेन-पीठ खाली हुआ तो उन्हें आशा के विपरीत उस स्थान पर नियुक्त नहीं किया गया। इतना होते हुए भी संस्कृत भाषा और भारतीय संस्कृति के प्रति उनकी निष्ठा कम नहीं हुई।
ऋग्वेद के प्रथम संस्करण के बाद उन्होंने ‘सेक्रेड बुक्स ऑफ ईस्ट’ नामक एक पुस्तक माला आरंभ की और कोई पचास के लगभग पुस्तकों की रचना की। उन्होंने तुलनात्मक भाषा-शास्त्र, तुलनात्मक धर्म, तुलनात्मक पुराण-शास्त्र आदि विभिन्न विषयों पर भी पुस्तकें लिखीं। इसके साथ यूरोप के अनेक विश्वविद्यालयों के आमंत्रण पर उन्होंने कई तथ्यपूर्ण भाषण भी दिये। आई. सी. एस. के प्रत्याशियों के सामने कैंब्रिज विश्वविद्यालय में दिये गये उनके भाषण ‘इंडिया, इट कैन टीच अस’ में भारतीय संस्कृति का एक गौरवमय चित्र प्रस्तुत करने का सफल, सुंदर व सार्थक प्रयास किया गया है।
साहित्यिक पत्रिकाओं और विद्यालयों की पत्रिकाओं के लिए भी वे प्रेरक लेख लिखकर दिया करते थे।
एक व्यक्ति कितना कार्य कर सकता है अपने जीवन में, वे इस तथ्य को उजागर करते हैं। उनके इस कार्य को देखते हैं तो लगता है यह एक व्यक्ति क्या एक संस्था से भी न हो सकने वाला कार्य है। इसके लिए उन्हें कितना श्रम करना पड़ा होगा यह विचारणीय है। वे सन् 1900 में अपनी मृत्यु के दस दिन पूर्व तक उसी तत्परता से श्रमपूर्वक कार्य करते रहे थे। उन्हें इस युग का ऋषि कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
भारत के प्रति और भारतवासियों के प्रति उनका अनुराग अपूर्व था। भारत में उनके सैकड़ों मित्र थे, परिचित थे। राजा राममोहन राय, केशवचंद्र सेन और स्वामी विवेकानन्द जब इंग्लैंड गये थे तो मैक्समूलर अपने व्यस्त कार्यों में से समय निकालकर उनके भाषण सुनने ही नहीं गये थे वरन् उनका आतिथ्य भी किया था। स्वामी विवेकानंद को उन्होंने ऑक्सफोर्ड का एक-एक कॉलेज दिखाया था।
लोकमान्य तिलक से वे उनकी पुस्तकों के द्वारा परिचित थे। ‘केसरी’ के एक लेख के कारण जब उन्हें कठोर कारावास दिया गया था तो मैक्समूलर महाशय ने अपने निजी प्रभाव से उन्हें जेल मुक्त करवाया था। तिलक महाराज ने अपनी ‘आर्कटिक होम ऑफ वेदाज’ में इसका उल्लेख किया है।
उनका छोटा पर सुंदर कुटीर सदा आतिथ्य के लिए विख्यात रहा। महारानी विक्टोरिया से लगाकर सामान्य प्रजा जन तक के लिए इस घर के द्वार खुले हुए थे। उनकी व्यस्त दिनचर्या और कठोर मानसिक श्रमसाध्य कार्य के प्रतिकूल होते हुए भी वे अतिथि सत्कार की पुण्य परंपरा का निर्वाह आजीवन करते रहे थे। इंग्लैंड जाने वाले भारतीयों के लिए उनका कुटीर किसी देवालय से कम श्रद्धास्पद नहीं था। अभावग्रस्त विद्यार्थी और लोकसेवी संस्थाओं की आर्थिक सहायता करने में भी उन्होंने अपनी स्थिति और सामर्थ्य से अधिक ही साहस दिखाया था। ऐसे तपोनिष्ठ मनीषी का भारत सदा ऋणी रहेगा।
(यु. नि. यो. अक्टूबर 1974 से संकलित)

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