तन विदेशी मन भारतीय

प्रकाशकीय वक्तव्य

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वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ परम पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ने विपुल साहित्य की रचना की है। अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय, सामाजिक, वैयक्तिक, धार्मिक, आध्यात्मिक आदि प्रायः सभी मानवोपयोगी विषयों के कूलों-उपकूलों का स्पर्श करती हुई उनकी उपासना, साधना और आराधना की त्रिवेणी अखण्ड ज्योति (मासिक) युग निर्माण योजना (मासिक) और प्रज्ञा अभियान (पाक्षिक) के माध्यम से भी प्रवाहित हुई है। परम पूज्य गुरुदेव के इन लेखों में गंगा का पावित्र्य, यमुना की भाव प्रवणता एवं सरस्वती का ज्ञान-गांभीर्य भरा हुआ है।
महाप्रयाण के पूर्व उनकी निखिल ब्रह्मांड व्यापी करुणा ने हम सबको यह आश्वासन दिया था कि नश्वर शरीर के पंच-महाभूतों में विलीन होने के उपरांत भी वे सूक्ष्म रूप से हमारे साथ रहते हुए हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे। उनके द्वारा रचित साहित्य में व्यक्त विचारों में हमें उनके उसी सूक्ष्म रूप के दर्शन होते हैं। अतः उन विचारों को सत्साहित्य के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाना प्रज्ञा परिवार के प्रत्येक सदस्य का पुनीत कर्तव्य हो जाता है। नव साहित्य शृंखला प्रकाशन की संक्षेप में यही हमारी पृष्ठभूमि है, प्रेरणा है।
प्रस्तुत शृंखला में हम केवल युग निर्माण योजना की पुरानी फाइलों से पुरुषार्थ परायण महापुरुषों एवं सन्नारियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आधारित संक्षिप्त जीवन परिचय, लघु कथाओं, प्रेरक प्रसंगों एवं घटनाओं, सामान्य से सामान्य जनों द्वारा किए गये असामान्य प्रेरक एवं शिक्षाप्रद कार्य तथा जीवन के विभिन्न आयामों को प्रभावित एवं प्रेरित करने वाले विविध विषयों पर लिखे दिशादर्शक, उद्बोधक लेखों को छोटी-छोटी पुस्तकों के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। छोटी पुस्तकों (ट्रैक्ट) के रूप में प्रकाशित करने का हमारा उद्देश्य मात्र इतना ही है कि अधिक से अधिक लोग अपनी-अपनी रुचि और सामर्थ्य के अनुसार इन्हें खरीदकर स्वयं पढ़ सकें, परिवार के सदस्यों को पढ़ा सकें और ब्रह्मभोज में सहभागी होकर निःशुल्क वितरण कर ज्ञानदान का पुण्य परमार्थ भी अर्जित कर सकें।
अब तो देश-विदेश में आश्वमेधिक यज्ञ श्रृंखलायें चल पड़ी हैं। कितने ही अश्वमेध यज्ञ हो चुके हैं और अभी न जाने कितने और होंगे। इन यज्ञों द्वारा लोगों में ज्ञान क्षुधा जाग्रत हुई है। यदि हमने क्षुधा जाग्रत की है तो उस क्षुधा को शांत करने और निरंतर बनाये रखने की सामग्री भी हमें ही देनी पड़ेगी, यह हमारा पुनीत कर्तव्य हो जाता है। हम इस नई श्रृंखला को अपने इसी कर्तव्य भाव से आपको भेंट कर रहे हैं।
इस श्रृंखला की पुस्तकों को पढ़ते समय एक बात और ध्यान में रखनी पड़ेगी। परम पूज्य गुरुदेव ने जो कुछ लिखा है उसे हम उसी रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। इनमें हमने मात्र मुद्रण संबंधी भूलों का सुधार किया है। अनेक जीवन परिचय एवं विविध विषयों पर लिखे लेख काल क्रमानुसार संशोधन एवं परिवर्धन की अपेक्षा रखते हैं। अनेक महापुरुषों एवं सन्नारियों का जीवन परिचय अनुपलब्ध होने के कारण हम उन्हें सम्मिलित नहीं कर पाये हैं। हमारे विज्ञ, सहृदय एवं मानवता प्रेमी पाठक भारत की प्राचीन ऋषि परंपरा को अपनाते हुए आवश्यक एवं अपेक्षित संशोधन, परिवर्द्धन एवं परिचयात्मक लेख प. पू. गुरुदेव के श्रीचरणों में अर्पण हेतु भेज सकते हैं। यदि गुरु प्रेरणा हुई तो उन्हें हम अगले संस्करण में यथायोग्य स्थान देने का प्रयास करेंगे।
जहां तक भाषा-शैली का प्रश्न है वह प. पू. गुरुदेव के महान व्यक्तित्व के अनुरूप ही है। उसमें सहजता, सुबोधता, सरलता और एक प्रकार की अंतरंगता है। जो कुछ उन्होंने कहा है, लिखा है, वह उनके अंतर्मन की अभिव्यक्ति है। उसमें बनाव-श्रृंगार, दुराव-छिपाव का अभाव है। भाषा उनके सामने वैसी ही लाचार नजर आती है जैसी कबीर के सम्मुख थी। जो कुछ वे उससे कहलवाना चाहते हैं, उसे वैसा ही कहना पड़ा है। उन्होंने उसके लिए न नुकर की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी है।
ऊपर गुरु प्रेरणा की बात आई है तो एक विशिष्ट प्रसंग का उल्लेख कर देना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य प्रतीत होता है। कुछ समय पूर्व की घटना है। अभी चरण पादुका पूजन कर ही रहा था कि क्षण भर के लिए समाधि लग गई। गुरु वाणी सुनाई पड़ी—‘‘मुझे घर-घर पहुंचाओ।’’ प्रश्न हुआ—‘‘कैसे?’’ उत्तर मिला—‘‘ब्रह्मभोज करो, ज्ञान यज्ञ करो।’’ समाधि भंग हुई। अंतःकरण अपूर्व एवं दिव्य आनंदानुभूति से भर उठा था। जीवन के इस अंतिम चरण को सार्थक करने की राह मिल गई थी। मन इस गुरु आदेश को पूर्ण करने, उसके प्रति पूर्ण समर्पित हो जाने का संकल्प कर चुका था।
इस नितांत व्यक्तिगत एवं गोपनीय अंतरंग अनुभूति को प्रकट करने का आशय इतना ही है कि प्रज्ञा परिवार के समस्त आत्मीय सत्साहित्य के प्रचार-प्रसार में प्राण-पण से जुट सकें और गुरु आदेश के पालन का आध्यात्मिक लाभ उन्हें भी मिल सके। ज्ञान प्राप्त करना और ज्ञान देना ही ब्राह्मणत्व का सर्व प्रमुख लक्षण है। वह ब्राह्मण ही क्या जिसमें ज्ञान क्षुधा न हो। इस ज्ञान क्षुधा को शांत करते रहने के लिए उपयुक्त सत् साहित्य प्रदान करते रहना ही ब्रह्मभोज है। सबके अंतःकरण के ब्राह्मणत्व को जगाना और उसे उपयुक्त खाद्य सामग्री सुलभ कराते रहना नवयुग के निर्माण की प्रमुख आवश्यकता है। वह यदि हम कर सके और इस प्रकार नित्य ज्ञान यज्ञ अर्थात ज्ञान का प्रसार-प्रचार करने में कुछ समय लगाते रहे तो निश्चय ही न केवल युग निर्माण में हमारी भूमिका सही दिशा में संचालित होती रहेगी वरन् आध्यात्मिक लाभ का भी परिपूर्ण सुयोग प्राप्त होता रहेगा।
इस नई श्रृंखला को प्रकाशित करने में अपने अनेक बंधुओं%कार्यकर्ताओं का अमूल्य सहयोग हमें प्राप्त हुआ है। हम उनके अत्यंत आभारी हैं। परम पूज्य गुरुदेव की करुणा के वे सच्चे अधिकारी हैं।
अंत में बस इतना ही कहना चाहूंगा कि जो कुछ है सब उनका (श्री गुरु चरणों का) ही है, उनके लिए ही है और उन्हीं के द्वारा हो रहा है और होते रहना है। अपनी स्थिति तो विद्युत चालित यंत्र जैसी है जिसका शक्ति केंद्र श्री गुरु चरण हैं। इति अलम्
पं. लीलापत शर्मा

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