सड़क पर एक गंदा और गरीब नीग्रो बालक भागा जा रहा था। उसके पीछे एक विदुषी युवती दौड़ रही थी। नीग्रो बालक बहुत तेजी से भाग रहा था और वह युवती भी जितनी तेजी से संभव हो सकता था भाग रही थी। कुछ ही मिनटों में उसने बच्चे को पकड़ कर गोद में उठा लिया। बच्चे का नाम था जिमि और उसके पीछे दौड़ने वाली महिला थी स्कूल की अध्यापिका वेल्दी हॉसिगर।
जिमि को गोद में उठाने के कारण वेल्दी के सभी कपड़े धूल में सन गये फिर भी उन्होंने बच्चे को पुचकारा। जिमि ने कहा—‘मैं अब कभी स्कूल नहीं जाऊंगा। इस पड़ोसी से मुझे डर लगता है वह मुझे मार डालेगा।’
जिमि ने उस व्यक्ति की ओर इशारा किया जो सभी विद्यार्थियों को डांट रहा था। वेल्दी जब स्कूल में प्रवेश कर रही थी तो पड़ोसी ने बताया कि जिमि ने उसके बगीचे से फल चुराये हैं। इस कारण जिमि को स्कूल से निकाल दिया तथा सब बच्चों को चेतावनी दे रहा था।
पड़ोसी के इस व्यवहार से वेल्दी को बहुत दुख हुआ। फल चुराना अनैतिक है परंतु इसके लिए बालकों से दुर्व्यवहार नहीं करना चाहिए। वेल्दी ने पड़ोसी को डांटा और एक तरफ खड़े जिमि को स्कूल में आने के लिए कहने लगी तो वह भाग उठा।
वेल्दी भयभीत जिमि की बातें सुनकर उसके साथ ही रो उठीं और बोलीं—बेटा यदि तुम स्कूल नहीं चलोगे तो मैं भी अब स्कूल नहीं जाऊंगी।
उनके प्रेम पूर्ण व्यवहार से प्रभावित होकर बच्चा वेल्दी के साथ ही स्कूल लौट गया। अमरीका जैसे देश में शिक्षण का महत्वपूर्ण कर्तव्य मात्र व्यवसाय समझा जाता है। गुरु शिष्य का संपर्क लेक्चर देने और सुनने तक ही सीमित रहता है। ऐसे देश में वेल्दी जैसी ममतामयी अध्यापिका की शिक्षण शैली वस्तुतः विलक्षण ही लगेगी। वहां के मूल निवासियों के प्रति घृणित व्यवहार और रंगभेद की प्रचलित नीति के कारण नीग्रो लोगों से बातचीत करने वाले तक अपमानित किये जाते और नीच समझे जाते थे। ऐसे दूषित वातावरण में भी वेल्दी हॉसिगर ने नीग्रो लोगों में शिक्षा प्रचार का कार्य अपनाकर अपना जीवनोद्देश्य लोक सेवा को ही चुना।
उसी गांव में 18 सितंबर 1879 को वेल्दी हॉसिगर नौ भाई बहिनों की सबसे छोटी बहिन बनकर जन्मी थीं। बचपन में ही उनके पिता का देहांत हो गया। वह एक सफल लेखिका बनना चाहती थीं पर इस असामयिक वज्रपात ने उनकी महत्वाकांक्षा को धूमिल कर दिया।
वेल्दी अपने जीवन में कुछ ऐसा काम करना चाहती थीं जो औसत जीवन स्तर से उन्हें ऊंचा उठा सके। पिता के स्वर्गवास होने के बाद इनका परिवार एक पादरी के संपर्क में आया। वेल्दी ने अपनी इच्छा उन्हें बताई और मार्गदर्शन मांगा। पादरी ने कहा कि तुम यदि ईसाई मिशनरी बनकर काम करो तो बहुत सफल बन सकती हो, प्रभु की सेवा का यह बहुत अच्छा उपयुक्त अवसर है। वेल्दी आरंभ में सहमत नहीं हुई परंतु उनके व्यक्तित्व के धार्मिक संस्कार धीरे-धीरे इस क्षेत्र की ओर घसीटने लगे। परिवार में रोज प्रातः पांच बजे प्रार्थना का क्रम चलता जिसमें छोटे-बड़े सभी परिजन सम्मिलित होते थे। फिर भी कुछ समय तक उन्होंने पादरी की सलाह पर कोई ध्यान नहीं दिया और पढ़ाई छोड़ने के बाद उसी गांव में एक पाठशाला चलाने लगी।
वे संसार के हर मनुष्य को चाहे वह किसी भी रंग, देश या जाति का हो परमात्मा की संतान समझती थीं। यही कारण है कि अपनी शिक्षा का क्षेत्र उन्होंने और अधिक विस्तृत करना चाहा। कुछ समय बाद विद्यालय बंद हो गया और वेल्दी हॉसिगर ‘क्राइस्ट मिशन’ की मिशनरी बन गईं।
धर्म प्रचार के लिए उन्हें चीन भेजा गया। सन् 1900 के आसपास चीन की जनता बहुत पिछड़ी हुई थी और अमरीकी लोगों ने चीन को अपना उपनिवेश बना रखा था। वेल्दी शंघाई शहर होती हुई नान चांग गईं। वहां अमरीकियों द्वारा ही एक कन्या विद्यालय चलाया जा रहा था।
चीनी समाज में महिलाओं की स्थिति भी बहुत बुरी थी। बचपन से ही उनके पैरों में लोहे के जूते पहना दिये जाते। कैदियों से भी गयी-गुजरी दशा में उन्हें अपना जीवन बिताना पड़ता। यद्यपि महिलाओं की गिरी दशा में धीरे-धीरे सुधार होना आरंभ हो गया था। चीनी नेता डॉ. सनयात सेन के नेतृत्व में चीन का जन समाज जागने लगा था परंतु रूढ़िग्रस्त लोग अपनी परंपराओं को सहज ही नहीं छोड़ते। वेल्दी को नानचांग शहर के उक्त विद्यालय में प्रधानाध्यापिका बनाकर भेजा गया। अपने परिवार से दस हजार मील दूरी पर रूढ़िग्रस्त जन समाज में शिक्षा का प्रचार करने आयी यह देवी अपने लक्ष्य में तन्मयता से जुट गयी।
यहां उनकी भेंट इलियन तांग नामक पूर्व परिचित सहपाठी लड़की से हुई। तांग भी उसी स्कूल में अध्यापिका थी। मनुष्य मनुष्य में भेद की दीवारें खड़ी करने वाले अंग्रेजों ने चीनियों को निम्न श्रेणी में रखा था। जो सुविधाएं स्वयं लेते थे वे चीनी लोगों को कहां? इसी कारण तांग को वेल्दी से ज्यादा मिलने-जुलने नहीं दिया जाता। वेल्दी ने मांग की कि उन्हें भी तांग के साथ रहने दिया जाय। बड़े अधिकारियों ने बहुतेरा समझाया परंतु वेल्दी अपने निर्णय पर दृढ़ रहीं और अंत में वेल्दी पर यह प्रतिबंध हटा लिया गया। कुछ समय बाद तांग भी वेल्दी के साथ ही रहने लगी।
कुमारी वेल्दी, तांग के साथ बराबरी और समानता का व्यवहार करतीं। उसकी योग्यता देखकर बहुत से उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य भी सौंपे। स्कूल की छात्राओं को यह बहुत अखरा और समय-समय पर उनके अभिभावकों द्वारा कई प्रकार की चेतावनियां दी जाने लगीं परंतु वे अपने सिद्धांतों पर अटल रहीं।
चीनी समाज को अंधविश्वास तथा गरीबी से मुक्त करने के लिए कुमारी वेल्दी ने अनेकों प्रयत्न किये। उनको एक तो विदेशी होने के कारण, दूसरे अज्ञानवश उनके क्रिया-कलापों में संस्कृति मिटाने वाले कुचक्र की संभावना समझकर, वहां की जनता का ही कोप भाजन बनना पड़ा। एक बार स्कूल में छात्राओं के अभिभावकों ने आकर प्रश्न किया—‘‘क्या एक चीनी औरत हमारी लड़कियों पर हुकूमत करेगी।’’
वेल्दी ने कहा—‘‘हां में यही चाहती हूं। क्योंकि लड़कियों को जो कुछ बनना है उसका सही उदाहरण मैं एक विदेशी स्त्री नहीं एक चीनी औरत ही हो सकती है।’’
वहां की छोटी बच्चियों के पैर में जो लोहे के जूते पहना दिये जाते उसके कारण उन्हें चलने-फिरने में बहुत परेशानी होती। कुमारी वेल्दी उनके जूते खोल देतीं। पांवों का टेढ़ापन दूर करने के लिए अपने हाथ से मालिश करतीं।
कुमारी वेल्दी ने इस प्रकार ग्यारह वर्ष तक चीन की जनता की सेवा की। सन् 1917 में विश्व युद्ध भड़का। अमरीका ने भी उसमें भाग लिया। युद्ध में फंसे युवकों की सेवा के लिए उनके मन में छटपटाहट होने लगी। उन्होंने सोचा—चीन में जो काम करने के लिए ईश्वर ने उन्हें भेजा था वह पूरा हो चुका। अतः उन्होंने चीन छोड़ने का निश्चय किया। उनके निश्चय को सुनकर स्कूल में शोक छा गया।
कुमारी वेल्दी ने इलियन तांग को स्कूल की अध्यक्षा मनोनीत किया और भारी मन से विदा ली। लड़कियों ने सोने का एक भुजबंद और मंदिर का घंटा यादगार के रूप में भेंट किया।
अमरीका लौटने पर वे वाई. डब्ल्यू. सी. ए. में भर्ती हो गईं। यह अमरीकी नवयुवतियों का एक संगठन था जो युद्ध क्षेत्र में पीछे रहकर सैनिकों की सेवा करता था।
युद्ध समाप्त होने पर कुमारी वेल्दी स्वदेश लौट आईं। इस समय उनकी आयु अड़तीस वर्ष की थी। अमरीका में ही उनका परिचय फ्रेड्रिक वान फिशर से हुआ। वे फिशर से प्रभावित हुईं और अपने जीवन लक्ष्य के मार्ग में सहायक मानकर प्रणय-सूत्र में बंध गईं। शादी के समय कुमारी वेल्दी तथा वान फ्रेड्रिक की आयु क्रमशः 44 तथा 42 वर्ष थी। वे दोनों लगभग अधेड़ावस्था में पहुंच गए थे फिर भी उनका दांपत्य जीवन युवा दंपत्तियों की अपेक्षा ज्यादा आनंदप्रद था।
कुमारी वेल्दी ने श्रीमती फिशर बन जाने पर भी अपने पति को मानव सेवा के पथ पर एक सहयोगी के रूप में ही देखा। इसी उद्देश्य के लिए वे अविवाहित रहीं और विवाह किया भी तो इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए। उनके दांपत्य जीवन से विवाह का लक्ष्य बहुत सरलता से समझा जा सकता है। काम-लिप्सा और भोग को ही विवाह का लक्ष्य समझने वाले कितनी भारी भूल करते हैं। विवाह की पवित्रता या लक्ष्य को समझा जाय तो हर दंपत्ति का जीवन फिशर दंपत्ति की तरह आनंदमय बन सकता है।
फ्रेड्रिक वान फिशर भी अनेक लोक सेवी संस्थाओं से संबद्ध थे। इन्हीं संस्थाओं के माध्यम से जन सेवा के लिए दोनों भारत आये। यहां की धर्म प्राण जनता को देखकर फिशर दंपत्ति ने निश्चय किया—‘यदि हमें जनसेवा करना है तो उसका एक ही रास्ता है कि हम सभी धर्मों का समान आदर तथा सम्मान करें।’ इस निश्चय को उन्होंने तत्काल अपने व्यवहार में उतारा और कलकत्ता में रहने लगे। एक बार की बात है, फिशर दंपत्ति बर्मा के मांडले शहर में गए। वहां एक पहाड़ी पर तीर्थ के समान प्रसिद्ध एक बौद्ध मंदिर था। दूर-दूर से लोग वहां आते। उस पहाड़ी पर एक बुढ़िया अपनी बच्चियों की मदद से धीरे-धीरे चढ़ रही थी। श्री फिशर एवं श्रीमती फिशर भी पीछे-पीछे चल रहे थे। वहां के धार्मिक विश्वास के अनुसार बुढ़िया एक बड़ा पत्थर उठाने का प्रयत्न कर रही थी परंतु शारीरिक असफलता के कारण उठा नहीं पा रही थी। वह मंदिर की वेदी पर अपना सिर रखकर प्रार्थना करने लगी और बाद में उस पत्थर को किसी फुटबाल की तरह उठा लिया। ईश्वर की सर्वव्यापकता के सिद्धांत में वान फ्रेड्रिक की आस्था और दृढ़ हो गई। वे दोनों मंदिर में गये और कुछ देर तक ध्यान में बैठे। उठने के बाद श्री फिशर ने कहा—‘इस मंदिर में मैंने वैसा आनंद अनुभव किया जैसा कि अमरीका में अपने गांव के गिरजाघर में किया करता था।’
अब वे दोनों समान रूप से गिरिजाघरों की तरह ही मंदिरों तथा मस्जिदों में भी जाने लगे। उनके सर्व धर्म समभाव के आदर्श के कारण महात्मा गांधी बहुत प्रभावित हुए। सुनते हैं कि फिशर से ही प्रेरित होकर गांधी जी सोमवार का मौन व्रत रखा करते थे।
सन् 1930 में फिशर दंपत्ति वापस अमरीका लौट गए और सन् 1938 में श्री वान फ्रेड्रिक फिशर का देहांत हो गया। 14 वर्ष का विवाहित जीवन व्यतीत कर ही श्रीमती फिशर विधवा हो गई परंतु इस कारण वे तनिक भी क्षुब्ध नहीं हुई और पति से आत्मिक एकता का अनुभव करती रहीं। एक स्थान पर उन्होंने लिखा है—पति से वियोग होने के कारण मुझे ऐसा लगा मानो वे पहले से भी अधिक मेरे निकट हैं और लगातार मेरे साथ रह रहे हैं।
श्रीमती फिशर ने विश्व भ्रमण का निश्चय किया और अनेकों देशों की यात्रा करते हुए सन् 1947 में भारत आईं। वे भारत में रहकर जनसेवा करने को उत्सुक थीं और अपने निश्चय से महात्मा गांधी को अवगत कराया। गांधी जी ने कहा—आप गांवों में जाएं, भारत की आत्मा गांवों में ही बसती है।
गांधी जी के इन्हीं विचारों ने श्रीमती फिशर के जीवन को दिशा दी और वे सन् 1952 में स्थायी रूप से भारत आईं। भारत को उन्होंने अपना घर समझा। दिल्ली में जब उन्हें एक होटल में ठहरना पड़ा तो बहुत अखरा। भला अपना घर होते हुए भी कोई होटल में ठहरता है। होटल में तो वह ठहरे जिसका अपना घर न हो।
उन्हीं दिनों इलाहाबाद में नैनी एग्रीकल्चरल इन्स्टीट्यूट में निरक्षर प्रौढ़ों के लिए शिक्षकों को प्रशिक्षित करने वाले व्यक्ति की आवश्यकता थी। श्रीमती फिशर की शिक्षा-सेवाओं की जानकारी मिलते ही इस कार्य भार को सम्हालने के लिए उन्हें तार द्वारा बुला लिया गया। उनका अधिकांश जीवन शिक्षा दान करने में बीता था। निरक्षरता मानव जाति का एक कलंक है और उसे मिटाने के लिए सभी लोगों को अपनी स्थिति और क्षमता के अनुरूप प्रयत्न करना चाहिए—यह विचार कर श्रीमती फिशर इलाहाबाद रवाना हो गयीं। उन्हें एक बंगला मिला। जिसका आधा भाग तो निवास के लिए उपयोग में लाना था तथा आधा प्रशिक्षण देने में। भारत में अपना घर बनाने की उनकी लंबी साध पूरी हुई और उन्होंने बड़े शौर्य से अपने कार्य का श्रीगणेश किया।
प्रौढ़ों के शिक्षकों को प्रशिक्षण देते समय उन्होंने बहुत बारीक-बारीक बातों की ओर भी इंगित किया जैसे—हमें चूल्हों को सुधारना है। पुराने ढंग के चूल्हों में लकड़ी भी ज्यादा जलती है और धुंआ भी ज्यादा होता है जिससे न केवल रसोई घर की दीवारें काली पड़ जाती हैं वरन् औरतों की आंखों पर भी बुरा असर होता है।
ग्रामीण लोगों के लिए आवश्यक पहलुओं पर प्रकाश डालकर प्रौढ़-साक्षरता के माध्यम से वे जन-जीवन में व्यापक और समग्र सुधार लाना चाहती हैं। उनका साक्षरता अभियान मात्र अक्षर ज्ञान तक ही सीमित नहीं है वरन् एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा गांवों की अनेक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया गया है।
ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो सामाजिक बुराइयों की निंदा करते हैं और साथ ही यह भी कहते हैं कि दुनियां में बुराइयां इतनी ज्यादा फैली हुई हैं कि उन्हें दूर करने की कोशिश करना ही बेकार है। स्वयं तो कुछ करते नहीं हैं परंतु जो कोई करने को तैयार होते हैं उन्हें भी हतोत्साहित करते हैं। भारत की सत्तर प्रतिशत निरक्षर जनता को शिक्षित बनाने का काम आसान नहीं है परंतु श्रीमती फिशर का विश्वास है कि करोड़ों अनपढ़ लोगों को एक न एक दिन साक्षर अवश्य बनाया जा सकता है।
इतने महान उद्देश्य को लेकर भी उन्होंने प्रसिद्धि कभी न चाही। जो लोग ख्याति से दूर भागते हैं ख्याति उनके पीछे-पीछे दौड़ती है। इसी तरह श्रीमती फिशर की बढ़ती हुई लोकप्रियता से ‘नैनी एग्रीकल्चरल इन्स्टीट्यूट’ के लोग ईर्ष्या करने लगे। इनके काम में बाधाएं पड़ने लगीं। विवश होकर इन्होंने अपनी अलग संस्था खोल ली।
अलग संस्था खोलने के लिए आर्थिक स्थिति का सुदृढ़ होना आवश्यक है। श्रीमती फिशर अमरीका गईं और वहां चंदा किया। परमार्थ कार्यों के लिए मांगने में श्रीमती फिशर को कोई संकोच नहीं हुआ। लोगों ने भी मुक्त हस्त से दिया और तीन लाख रुपये एकत्रित कर वे भारत लौट आईं। इस धन और जनता की सद्भावना के बल पर 13 सितंबर 1956 को ‘साक्षरता निकेतन’ की आधारशिला लखनऊ (उ. प्र.) से छः मील दूर रखी गई। आरंभ में आसपास के गांवों को ही अपना कार्य क्षेत्र चुना गया परंतु बाद में इस निकेतन की ख्याति देश-देशांतर में फैल गयी। सन् 58-59 में ही नेपाल तथा अफगानिस्तान के प्रशिक्षार्थी भी यहां आकर प्रशिक्षण प्राप्त करने लगे।
अपने प्रारंभ से लेकर आज तक साक्षरता निकेतन लगातार उन्नति कर रहा है। हजारों शिक्षक प्रशिक्षण ले लेकर देश के कोने-कोने में निरक्षरता का कलंक मिटाने में रत हैं। पाठ्यक्रम का निर्धारण तथा प्रकाशन भी वही संस्थान करता है।
बहुत कम समय में साक्षरता निकेतन की आशातीत प्रगति देखकर लगता है कि साक्षरता की देवी का स्वप्न साकार होकर रहेगा। जो लोग स्वयं को लोक सेवा के लिए समर्पित करते हैं, उनका योगक्षेम भी भगवान ही धारण करता है।
(यु. नि. यो. जनवरी 1973 से संकलित)
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