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मार्गरेट कजिन्स

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सन् 1915 में भारत-भूमि पर प्रथम चरण रखते ही अपने को आधे भारत यानी स्त्रीत्व के लिए समर्पित करने वाली मार्गरेट कजिन्स का नाम विश्व के इतिहास में बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है। एक निश्चित उद्देश्य की पूर्ति जो व्यक्ति अपने जीवन में ही कर लेते हैं वह इस संसार से भी आत्मसंतोष और प्रसन्नता लेकर विदा होते हैं। भारत को राजनीतिक स्वतंत्रता दिलाने के लिए प्रयत्न करने वाले राष्ट्र भक्तों की एक लंबी सूची है पर जिन्होंने अपनी आंखों से उद्देश्य की पूर्ति होते देखी है वह बड़े सौभाग्यशाली हैं।

सन् 1950 में भारत के संविधान में जब महिलाओं को पूर्ण समान मताधिकार प्रदान किये गये तो मार्गरेट की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा क्योंकि 1917 से भारत में महिला मताधिकार हेतु उन्होंने जो आंदोलन उठाया था उसकी पूर्ण सफलता उन्होंने अपने जीवन में ही देख ली। इसी का यह प्रतिफल था कि 1954 में इस संसार से बिदा होते समय अपने कार्यों पर उन्हें संतोष था।

पिछले वर्ष ही इंग्लैंड की महिलाओं ने ‘नारी मुक्ति की स्वर्ण जयंती’ मनायी थी। लगभग 86 वर्ष की लंबी लड़ाई के बाद वहां की स्त्रियों को 1918 में मत देने का सीमित रूप से अधिकार प्राप्त हुआ था। जबकि भारत जैसे देश में यह सफलता केवल 9 वर्ष बाद ही मिल गई। सन् 1917 में मताधिकार आंदोलन प्रारंभ किया गया और 1926 में उस लक्ष्य को प्राप्त कर लिया। उसका बहुत कुछ श्रेय मार्गरेट कजिन्स को भी है।

7 नवंबर 1878 को मार्गरेट का जन्म आयरलैंड में हुआ। इनका घर ऐसे सार्वजनिक स्थान के निकट था जहां सदैव राजनीतिक हलचल होती रहती थी, बड़े-बड़े नेताओं के भाषण वहीं होते थे। अतः बचपन से मार्गरेट ने विभिन्न सभाओं की गतिविधियों को देखा था। उसके मन में यह विचार सम्मुख धारा-प्रवाह बोलेंगी। बालिका के मन में स्वतंत्र क्रांतिकारी विचार अंकुरित होने लगे। उस समय संगीत की शिक्षा ग्रहण करने तथा साईकिल से विद्यालय जाने वाली छात्राओं को अच्छी दृष्टि से न देखा जाता था। पर मार्गरेट ने इन पुरानी परंपराओं को तोड़ा, उसने सोचा कि बुद्धिजीवी वर्ग ही जब विवेक का सहारा न लेगा तो समाज में ऐसी अंध-परंपराओं को कैसे दूर किया जा सकेगा। 1902 में मार्गरेट ने रायल यूनिवर्सिटी से संगीत में उपाधि लेकर संगीत शिक्षिका का कार्य शुरू कर दिया। सारी परीक्षाएं इन्होंने उच्च श्रेणी में उत्तीर्ण की थीं, योग्यता के आधार पर ही विशेष छात्रवृत्ति भी प्राप्त करती रहीं। सन् 1903 में श्री जेम्स कजिन्स के साथ उनका विवाह हो गया।

सन् 1906 से 1913 तक आयरिश महिलाओं के मताधिकार आंदोलन का नेतृत्व करने के बाद इंग्लैंड के मताधिकार आंदोलन को प्रेरित किया। दोनों ही देशों की जेलों में उन्हें अपने दिन गुजारने पड़े। ‘चर्च ऑफ न्यू आइडियल’ के महिला विभाग तथा ‘शाकाहारी सोसाइटी’ को भी अपनी सेवाएं देती रहीं। जेम्स कजिन्स ने एक दिन समाचार पत्र में पढ़ा कि स्टेट के सेक्रेटरी श्री एडविन पी. मौंटेग्यू इंग्लैंड से भारत आ रहे हैं। यहां आकर वह तत्कालीन वाइसराय श्री चेम्सफोर्ड से भेंट करेंगे और भारतवासियों के राजनीतिक अधिकारों को बढ़ाने के संबंध में भारत की स्थिति का अध्ययन करेंगे। पास ही श्रीमती कजिन्स बैठी थीं। मजाक में पति ने पत्नी से पूछ ही लिया—‘क्या अब भारत में भी मताधिकार आंदोलन छेड़ने की इच्छा है, वैसे, अधिकारों की मांग रखने के लिए भी यह अच्छा अवसर है।’

बात की शुरूआत मजाक में हुई थी पर उन्होंने उसे चुनौती मानकर योजना बना डाली और उसी वर्ष मद्रास में ‘भारतीय महिला समिति’ की स्थापना कर डाली। यह 1917 का वर्ष था। भारत आये मार्गरेट को अब दो वर्ष हो चुके थे। यहीं से भारत में महिला उत्थान कार्य शुरू होता है।

18 दिसंबर 1917 को भारत कोकिला सरोजिनी नायडू के नेतृत्व में सभी प्रांतों की महिलाओं का एक शिष्ट मंडल मौंटेग्यू व वाइसराय चेम्सफोर्ड से लिंग के आधार पर भेदभाव समाप्त करने, समान मताधिकार देने और शैक्षणिक सुविधाएं बढ़ाने की मांगों को पूर्ण करवाने के लिए मिला। श्रीमती कजिन्स भी एक सदस्या थीं। कजिन्स अच्छी तरह जानती थीं कि इस अधिकार को प्राप्त करने के लिए बड़ी कठिनाइयां सहनी पड़ती हैं। एक दो बार शिष्ट मंडल के भेज देने से कुछ कार्य नहीं होता। इसके लिए तो निरंतर प्रयास करते रहने की आवश्यकता है। अतः मताधिकार जांच कमेटी के अध्यक्ष श्री साउथबरो को बंबई की 800 महिलाओं द्वारा ज्ञापन दिया गया। स्थान-स्थान पर सभाएं करके मताधिकार के लिए प्रस्ताव पास किये गये। फिर भी अप्रैल 1919 में साउथबरो कमेटी की जो रिपोर्ट लंदन में प्रकाशित हुई उसमें यह स्पष्ट बताया गया कि भारत में स्त्रियों की ओर से अभी इस प्रकार की कोई मांग नहीं है। कजिन्स को इस झूठे प्रतिवेदन पर बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने तत्काल ‘भारतीय महिला समिति’, ‘महिला स्नातक संघ’, ‘भारत स्त्री मंडल’ और ‘होमरूल लीग’ की महिला शाखाओं को एकत्रित कर एक विशाल सभा का आयोजन करके साउथबरो कमेटी के प्रतिवेदन पर कड़ा विरोध प्रकट किया और अपना प्रस्ताव पास करवाकर लंदन ‘संयुक्त चयन समिति’ के पास भेजा।

श्रीमती कजिन्स को अपने प्रयत्न में आंशिक सफलता मिली। मौंटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधारों में महिला मताधिकार को स्थान न देकर भारत में प्रांतीय सरकारों को इस विषय पर विचार करने का अधिकार दे दिया गया। फिर क्या था, 1921 में मद्रास सरकार पर दबाव डालकर महिलाओं को मत देने के अधिकार के लिए कानून बनवा लिया। कजिन्स की यह प्रथम विजय थी। वह अब सभी प्रांतों में व्यापक रूप से आंदोलन चलाना चाहती थीं पर इसके लिए धन का अभाव था अतः ‘इंटरनेशनल वुमेन सफरेज एलाउंस’ की ब्रिटिश शाखा की अध्यक्षा श्रीमती अबोट को एक पत्र लिखकर आर्थिक सहायता के लिए निवेदन किया। समाज सेवा के लिए किये गये संकल्प अधूरे कब रहते हैं। सच्ची लगन देखकर ईश्वर भी सहायता की व्यवस्था कर देता है। श्रीमती अबोट द्वारा 500-500 पौंड की आर्थिक सहायता कई किस्तों में प्राप्त हुई। लेसली कमीशन न्यूयार्क की अध्यक्षा श्रीमती चैपमैन द्वारा भी इस कार्य के लिए 300 डालर की सहायता दी गई। फिर तो सभी प्रांतों में बड़े जोर-शोर से यह आंदोलन चलाया गया।

फरवरी 1923 में मद्रास के चिंगलपेट जिले के कलेक्टर श्री गैलेट्टी द्वारा श्रीमती कजिन्स को ‘आनरेरी मजिस्ट्रेट’ का पद दिया गया। इस दिशा में महिलाओं के लिए मार्ग खुल सके इस दृष्टि से उन्होंने मजिस्ट्रेट का पद स्वीकार कर लिया। सन् 1926 में तो मद्रास सरकार ने गवर्नर को महिला प्रतिनिधि मनोनीत करने तथा महिलाओं को चुनाव लड़ने का अधिकार प्रदान कर दिया। अब महिलाओं को वोट देने का ही नहीं वरन् विधानसभा में बैठकर कानून बनाने का भी अधिकार मिल गया।

अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए कजिन्स भारतीय महिलाओं से निरंतर संपर्क करती रहीं। अपने आंदोलन के समर्थन प्राप्ति हेतु कई बार विदेशों की यात्रा भी की। ‘स्त्री धर्म’ पत्रिका का संपादन भी कई वर्ष किया, पत्रिका के प्रभावशाली लेखों के माध्यम से वे शिक्षित महिलाओं को जागृति का संदेश देती रहीं क्योंकि शिक्षित महिलाओं तक अपने विचार पहुंचाने के लिए यह सशक्त माध्यम था।

अखिल भारतीय महिला सम्मेलन तथा लेडी इरविन होम साइंस कालेज दिल्ली की स्थापना में उनका प्रमुख हाथ था। सन् 1931 में लाहौर में प्रथम बार ‘आल एशियन वुमेन कांफ्रेंस’ बुलाई गई जिसकी अध्यक्षता श्रीमती सरोजिनी नायडू ने जेल में रहकर की। श्रीमती कजिन्स का कार्य क्षेत्र केवल राजनीति ही नहीं रहा वरन् महिलाओं तथा बच्चों के लिए अनेक कल्याण कार्य भी किये हैं।

सन् 1943 में लकवे की बीमारी का प्रकोप हो जाने पर सक्रिय रूप से विभिन्न कार्यों में भले ही भाग न ले पाई हों पर एक स्थान पर ही बैठे-बैठे और लेटे-लेटे परिस्थितियों का अध्ययन कर अपनी सेवाएं अर्पित करती रहती थीं। सन् 1915 में थियोसोफिकल सोसाइटी के कार्य में सहयोग देने हेतु भारत आई थी और जब तक जीवित रहीं (1950 तक) एक-एक क्षण का उपयोग महिला उत्थान कार्यों में करती रहीं।

(यु. नि. यो. मई 1969 से संकलित)


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