तन विदेशी मन भारतीय

रोमां रोलां

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‘क्या मानव जाति कभी एक हो सकेगी, उसकी एक इकाई बन सकेगी’—यह एक बड़ा ही दुरूह प्रश्न है। आज संसार में जितने प्रकार के धार्मिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, भाषा संबंधी मतमतांतर, जाति-पांति, ऊंच-नीच के भेद दिखलाई पड़ रहे हैं और उनके कारण जो द्वेष, संघर्ष, हिंसा का वातावरण बना हुआ है, उसको देखकर किसी बड़े से बड़े आशावादी का यह साहस नहीं होता कि इसके उत्तर में जल्दी से ‘हां’ कह सके। यों तो महान विचारक प्राचीन समय से मानव मात्र को एक ही परमेश्वर का पुत्र, भाई-भाई अथवा एक ही आत्मा से युक्त बतलाते रहे हैं और थोड़े से संत-महात्मा तदनुसार आचरण भी करते रहे हैं, पर अधिकांश संसारी मनुष्य, जिनमें बड़े-बड़े विद्वान और प्रसिद्ध व्यक्तियों की भी गिनती की जा सकती है, व्यवहार में इस सिद्धांत के विपरीत आचरण ही करते देखे जाते हैं। अपने-पराये का भाव सब देशों, जातियों, मजहबों में पाया जाता है। इसके कारण संसार को एक इकाई बनाने की जितनी भी योजनायें, आंदोलन, प्रयत्न आज तक किये गये वह सब एक कल्पना मात्र ही सिद्ध हुए हैं।
फिर भी संसार में एक दल ऐसे लोगों का है जिनके लिए विश्व बंधुत्व की भावना एक कल्पना मात्र न होकर जीवन का एक परम सत्य अथवा ध्रुव लक्ष्य है। वे जानते हैं कि मनुष्य का विकास पाशविक अवस्था में से है और उसकी वे वृत्तियां धीरे-धीरे ही दूर हो रही हैं। अब भी ऐसे मनुष्यों की ही बहुतायत है जो अपने थोड़े से सगे-संबंधियों या जाति-संप्रदाय वालों के सिवाय और सबको गैर समझते हैं। ऐसी अवस्था में दूरवर्ती, अन्य देश अथवा अपने से सर्वथा पृथक अन्य धर्म वालों के साथ एकता अथवा भ्रातृभाव की चर्चा करना या सुनना भी लोगों को बुरा जान पड़े तो इसमें आश्चर्य क्या है? तो भी ये मुट्ठी भर आदर्शवादी मानव मात्र की एकता और विश्व शांति की विचारधारा को अपनाये हैं और यथाशक्ति बढ़ाते चले जाते हैं।
फ्रांस के रोमां रोलां (जन्म 1866) इसी श्रेणी के महापुरुष थे। वे एक मध्यम श्रेणी के परिवार में उत्पन्न हुए थे और फ्रांस तथा इटली के विद्यालयों में रहकर उन्होंने परिश्रमपूर्वक विद्या लाभ किया था। अपनी महान विद्वता के प्रमाण स्वरूप उनको विश्वविख्यात नोबुल पुरस्कार (सन् 1915) भी मिला था। फिर भी किसी संकीर्ण राष्ट्रीयता या जातीयता के दायरे में रहने के बजाय उन्होंने अपना समस्त जीवन एक विश्व-नागरिक की हैसियत से ही व्यतीत किया। वे सब देशों और जातियों के व्यक्तियों को अपना सुहृद मानते थे और आवश्यकता के समय उनकी सहायता, समर्थन के लिए तैयार रहते थे। एक विचारक के शब्दों में वे उस देश के निवासी थे जो अभी उत्पन्न नहीं हुआ है।
प्रथम विश्वयुद्ध (सन् 1914) में जब फ्रांस जर्मनी से लड़ रहा था तो वे अधिकतर स्विट्जरलैंड में, जो एक तटस्थ देश था, निवास करते रहे। वे फ्रांस को प्यार करते थे, पर जर्मनी से भी उनका द्वेष नहीं था। उन्होंने सन् 1912 में अपनी पुस्तक में लिखा था—‘‘जर्मनी नैतिक शक्ति रखते हुए भी बीसवीं सदी में ‘रुग्ण’ हो रहा है, फ्रांस भी दोषमुक्त नहीं है। दोनों देशों में वीरतापूर्ण भावनायें हैं किंतु इनमें से एक देश के निवासी दूसरे देशवासी को ठीक तौर से समझ नहीं पाते। जब तक ये दोनों देश एक-दूसरे को मित्र भाव से समझने की चेष्टा नहीं करेंगे तब तक युद्ध अवश्यंभावी है जो राष्ट्रों को छिन्न-भिन्न करके छोड़ेगा।’’ उनकी यह भविष्यवाणी दो वर्ष में ही सच्ची सिद्ध हो गई।
रोमां रोलां को भारतवर्ष से विशेष प्रेम था। वे इसके आध्यात्मिक दृष्टिकोण, उदार-भावना, शांतिप्रियता की वास्तविकता को समझते थे और उसका सम्मान करते थे। वे महाकवि रवींद्रनाथ ठाकुर और महात्मा गांधी से मित्रता का भाव रखते थे। महात्मा जी का एक बड़ा अच्छा जीवन चरित्र उन्होंने फ्रांसीसी भाषा में लिखा है। महात्मा गांधी जब ‘गोलमेज कान्फ्रेंस’ में भाग लेने विलायत गये थे तो लौटते समय रोमां रोलां के अतिथि हुए थे। पर वे केवल इन महान व्यक्तियों से ही संबंधित नहीं थे वरन् भारतवर्ष का कोई साधारण व्यक्ति भी उनको पत्र लिखता था तो वे उसको बड़े प्रेम से उत्तर देते थे। ग्वालियर के एक विद्यार्थी श्री परमानंद पांडेय ने जीवन-उद्देश्य के विषय में पूछा तो उन्होंने उत्तर लिखा—‘‘मेरे भारतीय भाई, तुमने अपना हाथ जो मेरी ओर बढ़ाया है, उसे मैं स्नेह के साथ स्वीकार करता हूं। तुम्हें मालूम ही है कि तुम्हारे देश के ऋषियों के प्रति मैं अपने आपको कितना संबद्ध अनुभव करता हूं। तुम भी यूरोप के महान कलाकारों, विचारकों और महान आत्माओं को समझने का प्रयत्न करो। पूर्व और पश्चिम को निकट लाने के कार्य को अपना जीवन आदर्श बना लो। हमें एक ‘विश्वात्मा’ बनानी होगी। आज वह विद्यमान नहीं है, पर एक दिन वह अवश्य होगी।’’
जैसा रोमां रोलां ने उपर्युक्त पत्र में लिखा है, वह वास्तव में भारतीय ऋषियों के पद चिह्नों पर ही चलने का प्रयत्न करते रहते थे। सुप्रसिद्ध लेखक स्टीफेन ज्विग ने उनका जो जीवन चरित्र लिखा है उसमें उन्होंने इस तपस्वी लेखक का चरित्र-चित्रण इन शब्दों में किया है—
‘‘पेरिस नगरी के एक पुराने मकान के पांचवें तल्ले पर दो छोटे-छोटे कमरे हैं। नीचे सड़क पर जब कोई भारी मोटर कार निकल जाती है तो मकान हिल जाता है। कमरे में किताबों के ढेर-के-ढेर रखे हुए हैं। केवल दो कुर्सियां हैं, एक स्टोव चूल्हा है, आराम की कोई चीज नहीं। इसे एक परिश्रमी विद्यार्थी की कुटी कहिये या मेहनती कैदी की कोठरी। इस तल्ले पर कोई दूसरा व्यक्ति नहीं रहता है। पुस्तकों के बीच में एक विनम्र व्यक्ति बैठा हुआ है, जिसकी पोशाक किसी धार्मिक आदमी जैसी सीधी-साधी है। बदन छरहरा, ऊंचाई पर्याप्त, चेहरे से कोमलता टपक रही है। मुख पर कुछ झुर्रियां नजर आ रही हैं, जिससे स्पष्ट है कि इसके रात्रि के अनेक घंटे परिश्रम करते हुए बीतते हैं। इसके पास देश-विदेश से सैकड़ों चिट्ठियां, लेख और पत्र-पत्रिकाएं आती रहती हैं। वह एकांत में रहता है पर यहीं से सारे संसार से संबंध बनाये रहता है।’’
रोमां रोलां विश्व-शांति और मानव एकता के सच्चे अनुयायी थे और जैसा ऊपर बतलाया जा चुका है उन्होंने युद्ध से अपने को अलग रखा। पर वे इस आपत्तिकाल में निष्क्रिय या उदासीन नहीं हो सकते थे। उन्होंने ‘रेडक्रास सोसाइटी’ में काम करके युद्ध पीड़ित तथा युद्ध में घायल होने वालों की सेवा करना आरंभ कर दिया। उन्होंने हजारों खोये हुए सिपाहियों की सूचना उनके घरवालों को देकर उनके शोक को कम किया। रेडक्रास की सहायतार्थ उन्होंने अपनी नोबुल पुरस्कार द्वारा प्राप्त पूरी रकम एक लाख बीस हजार रुपया भी दे डाली।
रोमां रोलां का पत्र व्यवहार संसार के सब देशों से था। अपनी 21 वर्ष की अवस्था में उन्होंने महान रूसी लेखक टाल्सटाय को एक पत्र भेजा था जिसका उत्तर उन्होंने कई पृष्ठों में लिखकर भेजा। एक संसार प्रसिद्ध महापुरुष की यह सरलता और उदारता देखकर उन्होंने निश्चय कर लिया था कि यदि कोई अपने धर्म-कर्तव्य का निश्चय करने के लिए मेरी सहायता चाहेगा तो मैं भी उसकी इसी प्रकार सहायता करूंगा। आज उनके हजारों महत्वपूर्ण पत्र संसार के कोने-कोने में बिखरे पड़े हैं और मानव-प्रगति के प्रसार में अनुपम सहयोग प्रदान कर रहे हैं।
रोमां रोलां ने अपना समस्त जीवन सत्य, न्याय और सेवा के लिए अर्पण कर दिया। वे दीन-दुःखी लोगों के सच्चे मित्र थे। श्री सुभाषचंद्र बोस से बातें होने पर उन्होंने कहा था कि ‘‘मैं तो किसान-मजदूरों का समर्थक हूं। यदि महात्मा गांधी उनके हित का ख्याल नहीं रखते तो मैं उनका भी विरोध करता।’’ अपने इसी आदर्श का पालन करते हुए 1944 में उन्होंने परलोक गमन किया।
(यु. नि. यो. अक्टूबर 1974 से संकलित)
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