2 अक्टूबर 1925 को साबरमती आश्रम में गांधी जी का जन्म दिन मनाया जा रहा था। गांधी जी अन्य कार्यकर्ताओं के साथ जमीन पर बैठे सूत कात रहे थे कि आश्रम में एक अंग्रेज महिला ने प्रवेश किया। उसने गांधी जी से मिलने की इच्छा व्यक्त की, आश्रमवासियों ने उसे गांधी जी के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया।
जन्म दिन के समारोह तो उस महिला ने अनेक देखे थे, पर गांधी जी जैसे महापुरुष के जन्म समारोह का अनोखा रूप देखकर वह चकित रह गईं। गांधी जी ने उनसे बैठने का अनुरोध किया तो वह आदत न होने के कारण जमीन पर बैठने में कठिनाई अनुभव करने लगीं। बापू ने तुरंत भांप लिया वह उठे और एक स्टूल लाकर उनके लिए डाल दिया। पर वह स्टूल के पास खड़ी तो रहीं किंतु बैठने का साहस न कर सकीं। और करतीं भी कैसे? वह अंग्रेज महिला तो इतनी दूर से दीक्षा लेने आई थी फिर गुरु जमीन पर बैठे और शिष्या स्टूल पर, यह कैसे हो सकता था। अतः गांधी जी मुस्कराते हुए फिर उठे और पास से ही एक बेंच खींचकर उस पर बैठ गये।
अब प्रश्नों का दौर चला और एक के बाद दूसरी शंकाएं उभर कर सामने आने लगीं तथा गांधी जी उनका समाधान करने लगे। जिस गंदी बस्ती में आज का सभ्य समझा जाने वाला व्यक्ति नाक भौं सिकोड़कर खड़ा होगा, वहां घुसकर शौचालयों की सफाई, दरिद्रों और रोगियों की सेवा, सत्य, अहिंसा, अस्तेय और अपरिग्रह की व्याख्या, स्वराज्य का सत्याग्रह और खादी से संबंध, बिना किसी अस्त्र-शस्त्र के इतने बड़े साम्राज्य से टक्कर लेने की शक्ति जैसे अनेक प्रश्न पर प्रश्न होते गये और गांधी जी उनके मन की गुत्थियों को सुलझाते चले गये। और अंत में वह गांधी जी की शिष्या बन गईं।
यह अंग्रेज महिला कोई और नहीं वरन् सबकी चिर-परिचित म्यूरियल लीस्टर थीं। इन्होंने भारत में रहकर नहीं वरन् इंग्लैंड में ही गांधी जी की विचारधारा को साकार रूप दिया। वह भारत कितनी ही बार आईं पर गांधी के कार्यों में हाथ बंटाकर और उनसे प्रेरणा लेकर अपने देश वापस लौट गईं।
भारत से बाहर गांधी जी के विचारों को फैलाना आसान कार्य न था फिर ऐसे समय और ऐसे देश में जिससे स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी जा रही थी। उन्होंने सहयोगी के रूप में स्वराज्य कार्य में अपने देश से पूरी सहायता दिलाने की कोशिश की। वह गांधी जी से प्रेरणा लेकर जब स्वदेश लौटीं तो सर्वप्रथम उन्होंने सहयोगी के रूप में अपनी बहन को साथ लेकर लंदन की गंदी बस्ती ‘ईस्ट एंड’ में किंग्सले कम्यूनिटी हाल की स्थापना की। और इसके माध्यम से उन्होंने गांधी जी के उद्देश्यों को लेकर वर्ग तथा जाति के भेदभाव को दूर करने का कार्य अपने हाथ में ले लिया।
उसके बाद नशाबंदी के प्रचार हेतु लीस्टर ने दौरे करना शुरू किया। कितनी ही बार ‘भारत में नशाबंदी’ के प्रस्ताव को उन्होंने इंग्लैंड की सार्वजनिक सभाओं में रखकर तत्कालीन अंग्रेजी सरकार पर प्रत्यक्ष रूप से दबाव डालने का भी प्रयत्न किया। जब वह गांधी जी के लिये पत्र लिखती थीं तो उसमें नशाबंदी के प्रचार कार्य का पूरा विवरण देती थीं।
सन् 1931 में गांधी जी जब दूसरी गोल मेज कांफ्रेंस में लंदन गये तो ‘किंग्सले कम्यूनिटी हाल’ में ही ठहरे थे। उस समय लीस्टर ने गांधी जी को बहुत निकट से देखा। और उनकी खान-पान, रहन-सहन तथा अन्य छोटी छोटी आदतों का अध्ययन कर अपनी पुस्तक ‘एंटरटेनिंग गांधी’ में उन्हें वैसा का वैसा ही उतार दिया। वह लंदन में गांधी जी के साथ प्रत्येक प्रार्थना सभा तथा अन्य सार्वजनिक सभाओं में जाती थीं और भीड़ पर नियंत्रण रखने का प्रयास करती थीं।
सन् 1934 के बिहार भूकंप की विनाशकारी स्थिति की जानकारी मिलने पर वह अपने को रोक न सकी और दौड़ी-दौड़ी गांधी जी का हाथ बंटाने भारत आईं। यहां उन्होंने एक अन्य अंग्रेज महिला अगाथा हैरिसन के साथ घूम-घूमकर जो सेवा कार्य किया उसे भुलाया नहीं जा सकता। द्वितीय महायुद्ध के समय वह दक्षिण अफ्रीका भी गई और वहां गांधी जी के सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना प्रारंभ किया। ब्रिटिश शासन भला यह कार्य क्यों पसंद करता अतः चार माह के लिए उन्हें ट्रिनिडाड में नजरबंद कर लिया गया और बाद को ब्रिटिश जेल में भेज दिया गया।
सन् 1948 में गांधी जी की हत्या का दुखद समाचार सुनकर वह बेचैन हो गईं। उन्हें ऐसा लगा मानों उनका सर्वस्व ही लुट गया है। कितने ही दिनों तक वह कोई कार्य न कर सकीं और दुःख के सागर में ही डूबी रहीं। पर शीघ्र ही उन्होंने अपने को संभाल लिया और ‘गांधी जी के हस्ताक्षर’ नामक पुस्तक के प्रकाशन में जुट गईं। उसमें गांधी जी द्वारा लीस्टर को लिखे गये पत्रों का संग्रह है जिसमें गांधी जी के अंतर की गहराइयों का पता चलता है। लीस्टर तो इस पुस्तक को एक आत्मा से दूसरी आत्मा की बात-चीत मानती थीं। क्योंकि उन पत्रों ने इन्हें सदैव ही प्रेरणा दी थी।
गांधी जी से पार्थिव संपर्क टूट जाने के बाद भी उनकी आस्था वैसी ही बनी रही और गांधी जी के सिद्धांतों के लिए बराबर जी जान से जुटी रहीं। 11 फरवरी सन् 1968 को म्यूरियल लीस्टर भी इस संसार से बिदा हो गईं पर संकट की घड़ियों में जबकि गांधी जी के कितने ही अनुयायी उनके बताये मार्ग पर चलने में हिचकिचाते रहे तब लीस्टर पूर्ण आस्था के साथ गांधी जी द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर अंत तक चलती रहीं तथा अन्य लोगों को भी प्रकाश की उस राह पर चलने की प्रेरणा देती रहीं।
(यु. नि. यो. फरवरी 1970 से संकलित)