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सर विलियम जोन्स

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1783 में ईस्ट इंडिया कंपनी के फोर्ट विलियम (कलकत्ता) स्थिति सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश बनकर आये एक अंग्रेज साहब को संस्कृत भाषा सीखने की उत्कृष्ट इच्छा थी। पर उसे संस्कृत सिखाये कौन? देव भाषा संस्कृत का एक शब्द भी उन दिनों स्त्री, वेश्या और शूद्रों के कानों में पड़ना उसका घोर अपमान था तो एक मांस, मदिरा जैसे अभक्ष्य पदार्थ सेवन करने वाले म्लेच्छ साहब को कौन संस्कृत सिखाता।
शासक वर्ग से संबंधित और उच्च पद का अधिकारी होते हुए भी उसने हिंदू पंडितों से संस्कृत सिखाने के लिए अनुनय की पर कोई तैयार नहीं हुए। आरंभ में एक दो पंडितों ने लोभवश साहस भी किया उसे संस्कृत सिखाने का, पर जब उन्हें पास-पड़ोसियों द्वारा लताड़ पड़ी—‘‘तुम एक म्लेच्छ के हाथ देवभाषा संस्कृत को बेच रहे हो? यदि तुम ऐसा करोगे तो तुम्हें जाति से निष्कासित कर दिया जाएगा।’’ तो वे भी चुप रह गये। सामाजिक बहिष्कार की दंड व्यवस्था कितनी सूक्ष्म होती है इसका सहज परिचय इस घटना से मिल जाता है।
वह अंग्रेज साहब भी निराश होने वाला नहीं था। उसने अपनी खोज जारी रखी। कई दिनों बाद उसे कोई ब्राह्मण पंडित तो नहीं एक वैद्य संस्कृत सिखाने को तैयार हो गये जो अकेले थे। स्त्री, संतान न होने से उन्हें जाति बहिष्कार का भय भी नहीं था। साहब से मिलने वाली सौ रुपये की राशि उस समय को देखते हुए घाटे का सौदा नहीं था, साथ ही पढ़ाने के लिए जाने व आने के लिए पालकी की सैर मुफ्त।
उक्त संस्कृत शिक्षक—वैद्य राम लोचन कवि भूषण ने शिक्षण शुल्क लेते हुए भी अपनी ओर से कठिन शर्तें रखी थीं—देव भाषा सीखने के पात्रत्व के रूप में। उनकी शर्तें थीं—‘‘पढ़ाई नीचे के कक्ष में होगी जिसका फर्श संगमरमर का बनाया जाये। एक हिंदू नौकर इस काम के लिए नियुक्त रहे कि वह प्रतिदिन गंगाजल से शिक्षण कार्य के पूर्व उस कक्ष को धोकर पवित्र करे। कमरे में कोई मेज कुर्सी न रहे। साहब भारतीय ढंग से फर्श पर कुशासन बिछा कर बैठे। सवेरे वह केवल चाय पी सकते हैं। जब तक पढ़ाई चले वह मांस, मदिरा को छुए तक नहीं। घर में भी मांस-मदिरा न रहे।’’
इन सब शर्तों को अंग्रेज साहब ने स्वीकार किया। यहीं उसकी कठिनाइयों का अंत नहीं हुआ। न वह संस्कृत जानता था और न उसका शिक्षक अंग्रेजी। निदान टूटी-फूटी हिंदी और हाथ के संकेतों से शिक्षण का क्रम चला। थोड़े दिन कठिनाई हुई पर फिर तो गाड़ी चल निकली। साहब संस्कृत का ज्ञाता बन गया।
यह साहब और कोई नहीं अंग्रेजी, लैटिन और यूनानी भाषा के प्रकांड पंडित तथा कवि, कानून के विश्व प्रसिद्ध विशेषज्ञ, फ्रांसीसी, जर्मन, इतालवी, स्पेनी, पुर्तगाली, फारसी, अरबी के अधिकारिक ज्ञाता, इंग्लैंड व अमेरिका के जाने माने बैरिस्टर, रॉयल सोसाइटी के फेलो, सर विलियम जोन्स थे जिन्होंने संस्कृत भाषा को रूढ़ परंपरा की बेड़ियों से मुक्त करने का शुभ प्रयास किया और पूर्व और पश्चिम के सांस्कृतिक आदान-प्रदान का मार्ग खोल दिया। भारतीय प्राच्य विद्या के शोध और अध्ययन का पश्चिम के लोगों के लिए द्वार खोलने का काम उन्हीं ने किया।
‘विद्या ददाति विनयम्’ की साकार प्रतिमूर्ति थे सर विलियम जोन्स। संस्कृत सीखने के लिए उन्हें जिन कठिनाइयों और स्वाभिमान को ठेस लगने वाले व्यवहार को सहन करना पड़ा था, उसके लिए उनके माथे पर कभी बल नहीं पड़ा। इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञानार्जन की भूख कैसी होती है। अर्जन तप कितना कठिन होता है। किसी को कुछ सीखना है तो उसका पात्रत्व पैदा करना वह उनके जीवन से सीख सकता है।
पूर्व और पश्चिम के बीच बौद्धिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का सेतु बनने वाले सर विलियम जोन्स को जन्म 20 सितंबर 1746 में इंग्लैंड के एक संपन्न परिवार में हुआ था। पिता जाने माने गणितज्ञ थे और माता स्वतंत्र व्यक्तित्व की स्वामिनी। संतान का निर्माण कैसे किया जाय वह भली प्रकार जानती थीं। यही कारण था कि संपन्न परिवार में पैदा होकर भी विद्या और बुद्धि का महत्व उनके लिए धन से अधिक ही रहा। चरित्र और ज्ञान का स्वामी बनने के लिए उनकी माता उन्हें प्रेरित करती रहती थीं।
कुलीन और संपन्न परिवार के बालक के लिए जो शिक्षण सुविधाएं सुलभ हो सकती थीं वह जोन्स को मिलीं। इन सुविधाओं का उन्होंने अपने तबके के साथियों से कुछ अधिक ही सदुपयोग किया। 1768 में उन्होंने ऑक्सफोर्ड से स्नातक की उपाधि पायी। 1773 में उन्होंने एम. ए. की। इस बीच वे एक सामंत के निजी शिक्षक बनकर उसके साथ जर्मनी व इटली आदि योरोपीय देश घूम आये।
वे प्राच्य विद्याओं के ज्ञाता बनने के कितने जिज्ञासु थे और कैसे वे अनेकानेक भाषाओं के ज्ञाता बने इसके पीछे उनके श्रम और संकल्प का बल था। 1770 में उन्होंने किंग क्रिश्चियन सप्तम के आग्रह पर नादिर शाह के मूल आत्म चरित्र का फ्रांसीसी में अनुवाद किया। तब वे केवल चौबीस वर्ष के थे। इस अल्पायु में ही वे तीन भाषाओं के प्रकांड पंडित और कवि तथा ग्यारह भाषाओं के आधिकारिक ज्ञाता बन चुके थे। प्राच्य भाषाओं का उन्होंने इतना गहरा ज्ञान अर्जित किया था कि इनमें से किसी भी भाषा के ग्रंथ का किसी में अनुवाद करना उनके लिए एक खेल था।
1768 में वे फारसी और तुर्की भाषाओं की काव्य संपदा पर लैटिन में एक विशाल परिचय ग्रंथ लिख चुके थे। उन्हें रॉयल सोसायटी की ‘फैलोशिप’ और बाद में ‘सर’ की जो उपाधि मिली वह अपनी कुलीनता और संपन्नता के बल पर नहीं, स्वयं द्वारा उपार्जित प्रतिभा के बल पर मिली थी।
कानून पढ़ कर वे 1774 में बैरिस्टर बने। शीघ्र ही वे बैरिस्टर के रूप में इंग्लैंड में प्रसिद्ध हो गये। 1781 में उन्होंने जमीन के मुकदमों और तत्संबंधी निर्णयों पर जो शोध प्रबंध लिखा वह ब्रिटेन और अमेरिका में कानून का आधारभूत ग्रंथ माना गया। विलियम जोन्स की इन उपलब्धियों से स्पष्ट हो जाता है कि लगनशील व्यक्ति सब कुछ कर सकता है। जो लोग एक ही क्षेत्र में कुछ भी उल्लेखनीय सफलताएं प्राप्त नहीं कर सकते उनके लिए जोन्स का उदाहरण कम उपयोगी नहीं है। निश्चित ही ऐसे लोगों की असफलता के पीछे उनका अनुत्साह, आत्महीनता और निष्ठा का अभाव रहता है।
व्यक्ति को सदा शिखरस्थ रहने का प्रयास करना चाहिए। हिंदू अपने धर्म और संस्कृति के चिह्न शिखा को धारण करते हैं। उसे रखने के पीछे एक भावना शिखरस्थ रहने की भी जुड़ी हुई है। सर विलियम जोन्स ने भी सदा शिखरस्थ ही रहने का प्रयास किया और अपने प्रबल पुरुषार्थ के बल पर वे शिखरस्थ रहे भी।
1783 के सितंबर माह में वे किसी बड़े मुकदमे की पैरवी करने के लिए किसी मुवक्किल द्वारा अमेरिका बुलाए गये। वे वहां के लिए प्रस्थान करने ही वाले थे कि उनकी नियुक्ति भारत स्थित सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पद पर हो गयी और वे अमेरिका के बजाय भारत आ गये। इसके साथ ही पौर्वीय साहित्य, संस्कृति और भाषा का अध्ययन करने का एक और क्षेत्र उनके लिए खुल गया।
बंगाल के भूतपूर्व गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स के प्रयास से हिंदू व मुस्लिम के सार ग्रंथ तो तैयार हो गये थे पर संस्कृत के विधिसार-ग्रंथ ‘विवादाभरण सेतु’ का सीधा अंग्रेजी में अनुवाद संभव नहीं हो सका था। इसका पहले फारसी में और फारसी से अंग्रेजी में अनुवाद हुआ था। इससे स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृत का ज्ञान किसी अंग्रेज को नहीं था जो कि ईस्ट इंडिया कंपनी को यहां जमाने के लिए आवश्यक था।
सर विलियम जोन्स ने इस अभाव की पूर्ति कर दी। यों तो 1770 में एक अंग्रेज चार्ल्स विल्किन्स ने संस्कृत सीखकर उपनिषदों व गीता का अंग्रेजी में अनुवाद किया था। वह पहला अंग्रेज था जिसने संस्कृत सीखी थी। सर विलियम जोन्स ने उसके सहयोग से 1784 में ऐशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल की स्थापना करके संस्कृत भाषा तथा प्राच्य भाषा के शोध कार्य व समीक्षात्मक शास्त्रीय अध्ययन और ग्रंथ प्रकाशन के महत्वपूर्ण कार्य का शुभारंभ किया। यह संस्था आज भी अपने उस महत्वपूर्ण कार्य का संपादन कर रही है।
सर विलियम जोन्स से पहले कंपनी के जितने भी अधिकारी भारत आये थे वे केवल अपना व्यक्तिगत और अपने देश का हित भर सोच कर काम करते थे। किंतु इन्होंने जो कार्य संपादित किया वह उनसे सर्वथा भिन्न था। यह इनकी आत्मिक क्षुधा की तृप्ति का माध्यम था।
संस्कृत सीखने के लिए उनका यह अर्जन-तप उपनिषद्कालीन सत्यकाम जाबाल की स्मृति करा देने जैसा था। 1794 में उन्होंने ‘मनु संहिता’ का अनुवाद किया। यह मानना होगा कि भारतीय साहित्य, धर्म और संस्कृति का सर विलियम जोन्स जैसे पाश्चात्य विद्वान ने सच्चा महत्व समझा था जिसे अधिकांश भारतीय भूले ही हुए थे।
विश्व के महाकवियों और नाट्यकारों में एक नाम और जोड़ने का श्रेय उन्हें है। महाकवि कालिदास के कवित्व और संस्कृत भाषा के सौंदर्य से पाश्चात्य जगत को परिचित कराने का श्रेय उनके ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ के अंग्रेजी अनुवाद को है, जिसे उन्होंने 1789 में प्रकाशित करा दिया था। 1794 में उन्होंने ‘हितोपदेश’ का अंग्रेजी अनुवाद किया।
उनके इस प्रयास से पाश्चात्य जगत पूर्व के समृद्ध साहित्य को देखकर अभिभूत हो उठा। ग्यारह वर्ष तक वे ‘एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल’ के अध्यक्ष रहे। इस दौरान उन्होंने अपने भाषणों, लेखों और टिप्पणियों द्वारा इस कार्य को आगे बढ़ाने के लिए कई पाश्चात्य विद्वानों के मन में ललक उपजायी।
उन्होंने अपने एक भाषण में कहा था—‘‘संस्कृत भाषा कितनी प्राचीन है कहा नहीं जा सकता। लेकिन इसकी संरचना आश्चर्यजनक है। यह यूनानी से अधिक परिपूर्ण और ‘लैटिन’ से अधिक समृद्ध है तथा दोनों से चारुतया परिष्कृत है।’’ उनके इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि वे किसी भाषा के प्रति दुराग्रही नहीं थे।
सर विलियम जोन्स की मृत्यु मात्र अड़तालीस वर्ष की आयु में 27 अप्रैल 1794 को भारत में ही हुई। इस छोटी-सी आयु में उन्होंने जितना अधिक कार्य किया, जितनी उपलब्धियां पायीं वह कितने ही ध्येयनिष्ठों के लिए प्रेरक बनकर अमर हैं।
(यु. नि. यो. सितंबर 1974 से संकलित)

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