सन् 1860 में बंबई बंदरगाह पर एक बाईस वर्ष का नवयुवक उतरा और उसने भारतभूमि को प्रणाम किया। यह युवक बंबई प्रांत की सिविल सर्विस में एक अच्छा अधिकारी बनकर इंग्लैंड से आया था। उसके साथी ने युवक को इस प्रकार प्रणाम करते हुए देखकर बड़ा आश्चर्य व्यक्त किया। युवक ने फिर आस-पास देखा और भारतभूमि की निराली छटा को देखकर उसका मन मयूर नाच उठा। वह कहने लगा—‘कितना सुंदर है यह देश और कितने सौभाग्यशाली होंगे इस देश के निवासी।’
युवक के साथी से अब तो रहा नहीं गया। वह बोल ही उठा—‘‘बेवकूफ हो क्या? आसपास कोई सुन लेगा तो क्या कहेगा।’’
‘‘क्या कहेगा’’—निर्दोष भाव से युवक ने पूछा—‘‘मैंने तो पृथ्वी माता की प्रशंसा की है। उस देश और भू-भाग की वंदना की है, जिसका अन्न-जल खाकर मुझे जीना है।’’ तरुण साथी का आश्चर्य अभी भी समाप्त नहीं हुआ था। वह कहने लगा—‘‘पगले! यह हमारा गुलाम देश है। हम यहां के शासक हैं और इस देश के निवासी हमारे सेवक।’’
मनुष्य मनुष्य में भेद की दीवार युवक को असह्य लगी और उसने कहा—‘‘नहीं भाई! इस दुनियां में कोई किसी का गुलाम नहीं है। सभी लोग भगवान की संतान हैं।’’
‘‘लगता है तुम सिविल सर्विस में किसी की सिफारिश से आये हो। अन्यथा ऐसा कभी नहीं कहते। एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति इस बात से अनभिज्ञ नहीं होता कि शासक जाति को शासित जाति और देश के प्रति किस प्रकार सोचना चाहिए?’’
‘‘मैं यह सब जानता हूं। परंतु इसे ठीक नहीं समझता। किसी के प्रति दुर्व्यवहार और दुर्भावना बरतना मनुष्य को तो शोभा नहीं देता’’—युवक ने कहा।
दोनों साथियों में इस विषय पर देर तक वाद-विवाद चलता रहा और अंत में उस युवक का साथी अपने दोस्त से नाराज होकर चला गया। अपने तर्कों और प्रश्नों द्वारा इस अवांछनीय व्यवहार-नीति का विरोध करने वाला वह युवक और कोई नहीं विलियम वेडर वर्न ही था जिसने इंग्लैंड का नागरिक होते हुए भी सत्य, न्याय और औचित्य के आधार पर भारत के राष्ट्रीय हितों का समर्थन किया।
25 मार्च 1838 को उनका जन्म एडिनबर्ग में सर जान वेडर वर्न के घर हुआ। जान वेडर वर्न भी भारतीय सिविल सर्विस में थे। परंतु विलियम की शिक्षा-दीक्षा और पालन-पोषण इंग्लैंड में ही हुआ। उनके पिता जब भी भारत से कभी घर आते तो यहां की घटनायें सुनाते रहते। अंग्रेज लोग भारतीयों से किस प्रकार व्यवहार करते हैं, उनकी उद्दंडता को कैसी विवशता से यहां के देशवासी सह लेते हैं—ये सब बातें वे चटखारे ले ले कर सुनाया करते थे।
विलियम को इन बातों में कोई रस तो नहीं आता, उल्टे वे बड़ी बुरी तरह झल्ला उठते। एक बार जान वेडर वर्न सुना रहे थे कि उन्होंने किस प्रकार एक भारतीय की बेतों से बुरी तरह पिटाई की और वह चुपचाप पिटता रहा। सभी परिजन जोर जोर से हंस रहे थे और विलियम उदास।
पिता ने पूछा—‘‘क्यों बेटा! क्या तुम्हें ये बातें अच्छी नहीं लगतीं।’’
‘‘मैं इन्हें सुनता तो हूं परंतु यह भी सोचता हूं कि एक आदमी कितना गिर सकता है और एक कितना महान हो सकता है।’’
अधिकारपूर्वक पीटने के कारण शायद मेरा बेटा मुझे महान समझने लगा हो, यह सोचकर अपने विश्वास की पुष्टि के लिए जान वेडर वर्न ने पुनः पूछा—‘‘महान कौन है, बेटा!’’
‘‘वह भारतीय आदमी, जो चुपचाप पिटता रहा और गिरा हुआ वह जो अधिकार मद में मनुष्यता को भी भुला बैठा।’’
‘‘नोन-सेन्स’’—पुत्र का उत्तर सुनकर पिता एकदम क्रोध से उबल पड़े—‘‘तुम क्या जानो कि एक हिंदुस्तानी कितना जंगली और फूहड़ होता है।’’
‘‘हिंदुस्तानी जंगली है या फूहड़ यह तो मैं नहीं जानता परंतु यह मेरी मान्यता है कि इंसानियत को ताक में रखकर व्यवहार करने वाला व्यक्ति सभ्य और सुशिक्षित तो नहीं ही हो सकता।’’ इस प्रत्युत्तर ने पिता की क्रोधाग्नि में घी का काम किया। बेंत उठाकर वे अपने लड़के को मारने के लिए उठे। मां ने यदि बीच-बचाव न किया होता तो पता नहीं विलियम की पीठ पर कितने नीले निशान उभर आते।
इतनी निष्पक्षता के साथ मानवीय आदर्श को समझने वाले विलियम में यह सूझ-बूझ कहां से आयी—यह मननीय प्रश्न है। स्कूली पाठ्यक्रम पढ़ने के बाद विलियम अपना समय व्यर्थ की बातों में न गंवाकर उपयोगी तथा उत्कृष्ट-साहित्य का अध्ययन करने में लगाते थे। उपलब्ध समग्र धर्म-साहित्य और ईसा के उपदेशों का उनपर बड़ा प्रभाव पड़ा था। स्वाध्याय-साधना के माध्यम से प्राप्त प्रेरणाओं ने उनका प्रकाश दीप बनकर मार्गदर्शन किया। मानवता, सत्य और न्याय के सिद्धांतों पर उनकी आस्थायें दृढ़ बनीं। अच्छे साहित्य का प्रभाव पाठक की मनोभूमि पर निश्चित रूप से पड़ता है। जासूसी उपन्यास, अपराध फिल्म और साहित्य देख-पढ़ कर यदि कोई व्यक्ति चोर, डाकु और लुटेरा बन सकता है, तो यह क्या असंभव है कि सत्साहित्य का अध्ययन मनुष्य के व्यक्तित्व और विचारों का उत्कर्ष न करे।
स्वाध्याय और अध्ययन के निष्कर्षों पर चिंतन-मनन करने से ही विलियम वेडर वर्न में अनौचित्य की भत्सर्ना का साहस जाग सका। बाद में तो उन्होंने इस दिशा में सक्रिय कदम भी उठाये।
भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार की बातें सुन-सुन कर विलियम यह सोचने के लिए विवश हो गये कि हिंदुस्तान का आदमी आखिर किस मिट्टी का बना हुआ है जो इतने अत्याचारों को भी चुपचाप सहन कर लेता है, उफ तक नहीं करता। यहां के जन जीवन को निकट से देखने की इच्छा उनमें दिनों-दिन बलवती होने लगी। इसके पूर्व भारत के जनमानस को समझने के लिए उन्होंने इस देश से संबंधित साहित्य पढ़ना आरंभ किया।
एडिनबर्ग में इस विषय पर जो भी पुस्तकें मिल सकती थीं, ढूंढ़-ढूंढ़ कर पढ़ डालीं। तत्कालीन भारतीय जन मानस के प्रति उनका यह दृष्टिकोण बना कि इस देश की जनता में राष्ट्रीय चेतना का अभाव है। अन्यथा यहां की संस्कृति तो इतनी महान है कि पूरे विश्व का कायाकल्प कर सकती है।
भारत के लोग आवश्यकता से अधिक भाग्यवादी और परिस्थितियों से समझौता कर उसे स्वीकार करने वाले हैं, जबकि इस युग में कर्मवाद और संघर्ष में विश्वास करने वाले व्यक्ति और जातियां ही अपने अहं और अस्तित्व को सुरक्षित रख सकती हैं।
विलियम ने इन निष्कर्षों पर पहुंचकर ही संतोष नहीं कर लिया। भारतीय समाज की इस दशा को बदलने का प्रयास भी उन्हें आनुषंगिक कर्तव्य लगा। चाहे जिस प्रकार हो भारत पहुंचकर वहां के लोगों में राष्ट्रीय चेतना का जागरण करना चाहिए—यह निश्चय कर वे इसे पूरा करने का मार्ग ढूंढ़ने लगे। मनुष्यत्व की गरिमा और वैभव को समझने वाले तथा उसमें निष्ठा रखने वाले व्यक्ति अपने लक्ष्य को कभी ताक में नहीं रखते। एक काम पूरा कर लेने के बाद अगला कार्य वे पहले से ही निश्चित कर लेते हैं। वस्तुतः उनका लक्ष्य वह रहता भी नहीं है। वह तो जीवन ध्येय की प्राप्ति के मार्ग का एक दूरी सूचक पत्थर मात्र होता है।
विलियम ने महसूस किया कि भारत प्रवास का मूल कारण बताया गया तो शायद पिताजी न जाने दें। इसलिए उन्होंने भारतीय सिविल सर्विस की परीक्षाओं में बैठने की अनुमति मांगी। अपने पदचिह्नों पर चल रहे पुत्र के व्यक्त विचारों से पिता शीघ्र ही तैयार हो गये। विलियम वेडर वर्न ने परीक्षायें दी और वे उत्तीर्ण भी हुए। तुरंत उन्हें नियुक्ति भी मिल गयी और बाईस वर्ष की आयु में ही वे निर्धारित कार्य क्षेत्र में आ पहुंचे।
भारत की सिविल सर्विस में वे सात वर्ष तक रहे परंतु उनके अधीनस्थ कर्मचारियों ने कभी यह अनुभव नहीं किया कि हमारा अफसर अंग्रेज है। सभ्य, नम्र और शिष्ट-जनोचित व्यवहार, सुख-दुःख की घड़ियों में जिन लोगों की भी खबर मिलती, विलियम भाग उठते, भले ही वह परिचित हो या अपरिचित। इस मानवीय व्यवहार ने उन्हें अधीनस्थों का श्रद्धेय बना दिया। अभी तक इतना सज्जन अंग्रेज कोई देखने में नहीं आया था। शासकीय सेवा में होते हुए भी वे आस-पास के लोगों में स्वाभिमान पैदा करने का प्रयत्न करते थे।
परंतु उनके सद्विचारों का विपरीत परिणाम सामने आया। वे भारतीय कर्मचारी जो पहले समय-असमय पर अंग्रेज अधिकारियों को बुरा-भला कहा करते थे अब विलियम की प्रशंसा करने लगे। विलियम को यह समझते देर न लगी कि इस प्रकार भारतीयों में राष्ट्रीय चिंतन तो नहीं वरन् अंग्रेजी शासन के प्रति निष्ठा-भक्ति अवश्य जाग रही है। ब्रिटिश-गवर्नमेंट ने विलियम की इस मनचाही उपलब्धि पर उन्हें सम्मानित भी किया और ‘सर’ की उपाधि से विभूषित किया।
अपने प्रयासों का यह परिणाम देखकर विलियम को बड़ी निराशा हुई। उन्होंने गलती को पहचाना। जितनी सफलता के साथ वे स्वतंत्र रहकर राष्ट्रीय चेतना जगाने का कार्य कर सकते थे उतनी सफलता अंग्रेज सरकार का एक पुर्जा बनकर प्राप्त नहीं की जा सकती थी।
उन्होंने तुरंत सिविल सर्विस से त्यागपत्र दे दिया और स्वतंत्र रूप से काम करने लगे। सन् 1887 में उनका नाम सर एलेन ह्यूम के साथ उभरा। वे स्वयं तो कांग्रेस के गठन और उसकी गतिविधियों का संचालन करने के कारण ही विख्यात हुए परंतु विलियम भारतीय राष्ट्रवादी के रूप में राजनीति के क्षितिज पर चमके। राष्ट्रीय कांग्रेस के विकास में उन्होंने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया था। सन् 1890 में वे बंबई कांग्रेस अधिवेशन के सभापति भी चुने गये। इससे उनके सजातीय बंधु बड़े नाराज हुए। सभापति के पद से उन्होंने जोरदार भाषण दिया और भारत राष्ट्र के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त की।
इस भाषण को लेकर सभी क्षेत्रों में खलबली मच गयी। एक उच्च पदस्थ भू. पू. अंग्रेज अधिकारी भारतीय हितों के पक्ष में इतनी दृढ़ता और स्पष्टता से बोल सकता है—यह सभी के लिए आश्चर्य की बात थी। परंतु विलियम को स्वयं तो बड़ा संतोष हुआ। औचित्य और अत्याचार के विरुद्ध उन्होंने पहली बार अपना आक्रोश सार्वजनिक रूप से व्यक्त किया था। उनके मित्रों ने कहा—‘‘अंग्रेज होकर भी तुम अंग्रेजी राज्य के हितों पर चोट कर अच्छा नहीं कर रहे हो।’’
‘‘महाशय! मैं अंग्रेज होने से पहले इंसान हूं और इंसान होने के नाते मुझसे यह कभी सहन नहीं होता कि किसी के अधिकृत हितों पर स्वार्थ के वशीभूत होकर किसी भी प्रकार का आघात किया जाये।’’
मित्रों ने उन्हें यह भी समझाया कि यह उन जैसे देशभक्त को शोभा नहीं देता तो विलियम बोले—‘‘यदि किसी देश और समाज की कमजोरियों का अनुचित लाभ उठाना ही देशभक्ति है तो मुझे स्वप्न में भी उसकी चाह नहीं।’’
एक बार उन्होंने कहा था—‘‘मैं अपने शेष जीवन को भारत के लिए ही अर्पित करता हूं। स्वयं को भारत का नागरिक मानकर मेरा सिर गर्व से ऊंचा हो उठा है।’’ उन्होंने सचमुच स्वयं को इस देश और यहां की जनता के लिए अर्पित कर दिया। इंग्लैंड में वे ब्रिटिश कांग्रेस कमेटी के सदस्य बनकर और पार्लियामेंट के मेम्बर के रूप में भारतीय हितों की वकालत करते रहे।
1910 में उन्हें फिर कांग्रेस अध्यक्ष चुना गया। इस पद पर रहकर उन्होंने कांग्रेस के अंदरूनी विवादों को जिस सूझ-बूझ के साथ सुलझाया वह उनकी भारत भक्ति का ही परिचायक है। उन्होंने भारत में एक ऐसा वर्ग तैयार किया जिसने आगे चलकर स्वराज्य-आंदोलन का नेतृत्व किया। गोपालकृष्ण गोखले, महामना मालवीय, लोकमान्य तिलक जैसी अनेकों विभूतियों को ढूंढ़ने और आगे बढ़ाने का अधिकांश श्रेय विलियम वेडर वर्न को ही है।
सन् 1918 में उनका देहांत हो गया। उनकी मृत्यु के समय महादेव गोविंद रानाडे ने कहा था—‘‘इस समय जब स्वराज्य का प्रश्न पहली भूमिका में है, विदेश में भारतीय हितों की आवाज उठाने वाला व्यक्ति कोई भी यदि था, तो वे थे। भारतीय हितों के लिए ही नहीं समूचे मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए वे जीवन भर संघर्ष करते रहे। अपने मूल समाज का बैर-विरोध और चुनौती भी उन्हें अपने पथ से नहीं डिगा सकी। आज भी संसार को ऐसे ही साहसी-शूरवीरों की आवश्यकता है।’’
(यु. नि. यो. अगस्त 1975 से संकलित)