तन विदेशी मन भारतीय

डॉ. तैस्सितोरि

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बीकानेर के राज दरबार में एक विदेशी व्यक्ति ने प्रवेश किया। वेशभूषा और शिष्टाचार के तौर तरीके देखकर सभी दरबारियों को बड़ा आश्चर्य हुआ। उस समय तक बहुत से भारतीय विदेशी, खासकर पाश्चात्य ढंग के कपड़े पहनने और उन्हीं तौर-तरीकों में अपनी शान महसूस करते थे। एक प्रतिष्ठित व्यक्ति को भारतीय पोशाक में देखकर आश्चर्य होना स्वाभाविक ही था। बीकानेर नरेश को परिचय देते हुए उसने अपना संक्षिप्त नाम बताया—डॉ. तैस्सितोरि।
इटली निवासी यह विद्वान भारत के सांस्कृतिक गौरव और यहां की पुरातन साहित्य संपदा से प्रभावित होकर अपने देश परिवार और समाज को छोड़कर यहीं आ बसे थे। यहां आकर उन्होंने विशुद्ध भारतीय ढंग का रहन-सहन अपनाया। बीकानेर के महाराजा ने उनका सम्मान किया एक तो विदेशी होने के कारण और दूसरे विदेशी होते हुए भी भारतीय होने के कारण। महाराज गंगासिंह को उनकी भारत भक्ति ने प्रथम दर्शन में ही बड़ा प्रभावित कर लिया था। उन्होंने डॉ. तैस्सितौरी से कहा—‘हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं।’
उस समय बीकानेर की अनूप संस्कृत लायब्रेरी देश विदेश में प्रख्यात थी। भारतीय संस्कृति का प्राचीन से प्राचीन साहित्य वहां उपलब्ध था। तैस्सितोरी उसका अवलोकन कर भारतीय धर्म और संस्कृति के तथ्यों से परिचित होना चाहते थे। उन्होंने अपनी इच्छा व्यक्त की और महाराज ने अनूप संस्कृत लायब्रेरी का सम्पूर्ण दायित्व और अधिकार ही उन्हें सौंप दिया। डॉक्टर ने आद्योपांत इस लायब्रेरी के पुराने ग्रंथ पढ़ डाले और कई का अनुवाद भी किया, ताकि उसका प्रकाश विश्व भर में फैल सके और संसार भर के लोग इस ज्ञानामृत से लाभ उठाकर अपने जीवन को धन्य बना सकें।
डॉ. तैस्सितोरी का जन्म इटली के एक छोटे से गांव में सन् 1887 ई. में हुआ था। माता-पिता न तो अधिक धनवान थे और न ही गरीब। मध्यमवर्गीय इस परिवार में उनका जीवन अति-साधारण ढंग से आरंभ हुआ। बचपन में उन्होंने कोई विशेष प्रतिभा नहीं दिखाई। सामान्य बच्चों की तरह ही वे खेलते-कूदते और हंसते-किलकारियां मारते रहे।
स्कूल जाने योग्य होते ही उन्हें पढ़ने के लिए भेज दिया गया। विद्यार्थी जीवन में ही एक ऐसी घटना घटी जिसके कारण वे पाठ्यक्रमोत्तर अध्ययन के लिए प्रेरित हुए। एक दिन स्कूल के शिक्षक कोई कविता की पुस्तक कक्षा में लाये और उसमें से कुछ पद्य सस्वर पाठ करने के लिए तैस्सितोरी से कहा। तैस्सितोरी को अध्यापक द्वारा चुनी हुई कवितायें बहुत अच्छी लगीं और अंत में मास्टरजी से पूछ ही लिया कि हमारे कोर्स की किताबों में इतनी बढ़िया कवितायें क्यों नहीं हैं।
अध्यापक ने कहा—संसार में एक से बढ़-चढ़कर रस भरा साहित्य है। पहले तुम अपने कोर्स की पुस्तकें अच्छी तरह पढ़ो ताकि उनका आनंद ले सको।
अध्यापक की इस बात ने तैस्सितोरी के मानस-संस्थान के न जाने किस अंग को स्पर्श कर लिया और उन्होंने तत्क्षण निश्चय कर लिया कि चाहे कुछ भी हो वे संसार की सर्वश्रेष्ठ साहित्य कृतियों का आनंद लेकर ही रहेंगे। इस उत्सुकता के साथ कि कब इस योग्य होऊं-तैस्सितोरी बड़े मनोयोग से पढ़ने लगे। परिणामस्वरूप वे अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने लगे। माध्यमिक कक्षाओं में पहुंचने तक उनका भाषा ज्ञान बहुत विकसित हो चुका था। इटली की भाषा पर उनका अधिकार हो गया था।
सन् 1906 में आगे के अध्ययन के लिए वे फ्लोरेंस विश्वविद्यालय के छात्र बने। उन्होंने अपने उसी अध्यापक से पूछा कि सर्वश्रेष्ठ साहित्य कहां से प्राप्त हो सकता है।
अध्यापक ने कहा—‘यदि तुम सर्वश्रेष्ठ साहित्य ही चाहते हो तो उसके लिए संस्कृत भाषा सीखनी पड़ेगी। वैसे तो हमारी भाषाओं में भी उस साहित्य का अनुवाद मिल सकता है।’ उस समय इटालियन भाषा में कई भारतीय रचनाओं का अनुवाद यहीं के विद्वान साहित्यकार मधुसूदन दत्त ने प्रकाशित करवाया था। तैस्सितोरी ने उसका अध्ययन किया और इस प्रकार की जितनी भी कृतियां प्राप्त हुईं सबकी सब पढ़ डालीं। मधुसूदन दत्त ने बंगला भाषा में कई रचनायें लिखी थीं और उन्हें इटालियन में अनूदित कर रोम से प्रकाशित भी करवाया था।
इन कृतियों ने तैस्सितोरि को आनंदित तो किया पर वे संतुष्ट नहीं हुए। उल्टे उनकी जिज्ञासा और बढ़ी। फलस्वरूप उनका ध्यान अध्यापक के उस परामर्श की ओर गया जिसमें उन्होंने कहा था कि सर्वश्रेष्ठ साहित्य के लिए तो संस्कृत भाषा ही सीखनी पड़ेगी। ज्ञान पिपासा ने उनमें संस्कृत के अध्ययन की रुझान भी पैदा की। फ्लोरेंस विश्वविद्यालय के भाषा विभाग में संस्कृत भाषा के अध्ययन का भी प्रबंध था। उन्होंने यही विषय लिया और संस्कृत सीखने लगे। इस भाषा के साथ-साथ उन्होंने हिंदी का भी अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया।
जिज्ञासा और उसे पूरी करने की लगन तैस्सितोरी में घर कर चुकी थी। इन्हीं दो आधारों का अवलंबन लेकर वे सहज और सरल हिंदी तथा संस्कृत में धीरे-धीरे अधिकारी ज्ञान रखने लगे। सन् 1910 में जब वे स्नातक हुए तो उन्होंने तुलसी की रामचरित मानस और वाल्मीकि रामायण का अच्छा अध्ययन कर लिया था। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने संस्कृत साहित्य को ही विशेष रूप से चुना।
स्नातकोत्तर अध्ययन पूरा कर लेने के बाद उन्होंने वाल्मीकि रामायण तथा रामचरित मानस के तुलनात्मक अध्ययन पर शोध प्रबंध लिखा, जिस पर उन्हें डॉक्टर की उपाधि मिली। इन ग्रंथों के अतिरिक्त उन्होंने अन्य साहित्यिक कृतियों का भी सम्यक् अध्ययन किया था। अध्यापक का कथन अब सचमुच ही सत्य प्रतीत हुआ था। संस्कृत भाषा का साहित्य वास्तव में सर्वश्रेष्ठ लगा और डॉक्टर तैस्सितोरी इस अनुपम ज्ञान की उद्भव स्थली भारत भूमि की ओर आकृष्ट हुए। जिस सभ्यता की भाषा में इतना अगाध ज्ञान भरा पड़ा है वह सभ्यता कितनी महान होगी इस विचार ने ही उनके हृदय में भारत-प्रेम का संचार कर दिया। वे सोचने लगे कि यदि अवसर मिले तो भारत अवश्य जाना चाहिए और वहां की संस्कृति तथा जनजीवन का निकट से अध्ययन करना चाहिए।
तभी उन्हें फ्लोरेंस के पुस्तकालय का इंचार्ज बना दिया गया। यद्यपि उनके लिए अन्य प्रतिष्ठित पदों और विभागों के द्वार भी खुले हुए थे परंतु उन्हें तो चाहिए था ज्ञान और धर्म के मणि मुक्ता। इन रत्न-कणों को छोड़कर उन्हें ऊंची नौकरियां और अच्छा वेतन नहीं चाहिए था। फ्लोरेंस-पुस्तकालय भी उन्होंने इसलिए चुना कि वहां पर भारतीय भाषाओं के कई ग्रंथ थे। अध्ययन काल में उन्होंने अधिकांश पुस्तकें यहीं से प्राप्त की थीं। इस पुस्तकालय में काम करते हुए वे भारतीय भाषाओं की सभी उपलब्ध कृतियों का अध्ययन कर सकेंगे—इसी उद्देश्य से फ्लोरेंस लायब्रेरी के संचालकों से सेवा का अवसर मांगा था जो उनकी योग्यता के कारण मिल भी गया।
ज्ञान और विद्या की प्राप्ति के लिए बड़े से बड़े प्रलोभन ठुकराने वाले संकल्प के धनी संसार की दृष्टि में भले ही मूर्ख और नासमझ हों परंतु सच में बुद्धिमान वही हैं। अधिक आय और भौतिक लाभ तो मनुष्य को अहंकारी और उसके गौरव-गरिमा से पदच्युत करने का ही कारण बनते हैं परंतु विद्या मनुष्य को ऊंचा उठाती है। भौतिक दृष्टि से भले ही उन्हें उस समय घाटे में रहना पड़ा हो परंतु बौद्धिक-संपदा और विद्या-प्रतिभा के रूप में उन्होंने जो कुछ अर्जित किया वह लाखों-करोड़ों की संपत्ति से भी अधिक मूल्यवान कहा जा सकता है।
इस लाईब्रेरी में काम करते हुए उन्होंने हिंदी, गुजराती, मराठी, राजस्थानी और बंगाली भाषाएं सीखीं और इस देश में आने का अवसर तलाशने लगे। तभी सुप्रसिद्ध भाषा शास्त्री डॉ. ग्रियरसन जो काफी समय से भारत में थे, से उनका संपर्क हुआ। ग्रियरसन डॉ. तैस्सितोरि के भारत प्रेम और संस्कृत प्रेम से बड़े प्रभावित हुए और उनकी आकांक्षा पूर्ति का मार्ग सुझाया और मदद की। सन् 1914 में उन्होंने भारत सरकार के समक्ष तैस्सितोरि को कलकत्ता की एशियाटिक सोसाइटी के अंतर्गत राजस्थानी साहित्य और ऐतिहासिक सर्वेक्षण का सुपरिंटेंडेंट नियुक्त करने की सिफारिश की। सौभाग्य से उनकी सिफारिश मंजूर हो गयी और डॉ. तैस्सितोरि को अपने सपनों के देश में आने का मौका मिल गया।
8 अप्रैल 1914 को उन्होंने अपनी कल्पनाओं की पुण्य भूमि भारत की धरती पर कदम रखा। यह क्षण शायद उनके जीवन का सर्वाधिक खुशी भरा क्षण था। हर्ष से उनकी आंखें भर आयीं और उन्होंने जहाज से उतरते ही अपनी इस देवभूमि को प्रणाम किया। कलकत्ता में वे तीन महीने तक रुके और कई भारतीय विद्वानों, साहित्यकारों तथा अधिकारियों से मिले। इस अवधि में उन्होंने भावी कार्यक्रमों की रूपरेखा बनायी और तदनुसार जोधपुर को अपना कार्य केंद्र चुना।
जोधपुर आकर उन्होंने अपना काम आरंभ किया। इस शहर की ही नहीं भारत भर की भूमि और वातावरण में उनका मन खूब लगा। राजस्थानी लोकगीत भी उन्हें अच्छे लगे। कहने का तात्पर्य यह कि भारत की हर चीज ने उन्हें बांध लिया। वे अनुभव करने लगे कि इस भूमि से उनका जन्म-जन्मांतरों का संबंध है। चिर साधित इच्छा और भारत के प्रति अपनत्व की भावना ही इस मान्यता के जन्म और दृढ़ होने का कारण थी।
राजस्थान के सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ श्री रामकरण आसोवा ने उन्हें बड़ा सहयोग दिया। भारतीय ग्रंथों के संकलन, अध्ययन और अनुवाद के कार्यों में श्री आसोवा तैस्सितोरी के बहुत सहायक सिद्ध हुए और अधिक साहित्य सहजता से बीकानेर की अनूप लाइब्रेरी में प्राप्त हो सकता है यह जानकर वे कुछ समय बाद वहां चले गये।
भारतीय जीवन दर्शन के दीर्घ-सान्निध्य में रहने के कारण तैस्सितोरी पूरी तरह यहां की आध्यात्मिक विचारधारा में रंग गये थे। यहां तक कि अभिवादन और बधाई के लिए भी वे यहीं की शब्दावली के प्रयोग करने लगे थे। वेष-भूषा, रहन-सहन, बोल-चाल के लहजे से किसी भी प्रकार वे विदेशी नहीं लगते थे। यह उनकी व्यावहारिक आदर्शवाद का संदेश सुनाने वाली भारतीय संस्कृति के प्रति अगाध प्रेम का ही प्रभाव था। उन्होंने अपने जीवन में उन सभी गुणों के विकास का प्रयत्न किया था। एक साधना-अनुष्ठान के रूप में यहां की परंपराओं और मान्यताओं को जीवन में अंगीकार कर सच्चे सुख और आनंद की उपलब्धि की थी।
भारतीय धर्म दर्शन के सिद्धांतों को जीवन में उतार लेने के कारण उन्होंने जो शांति अनुभव की, उस अनुभूति ने अध्यात्म दर्शन का लाभ अपने देश के लोगों को उठाने योग्य प्रयत्न करने के लिए भी प्रेरित किया। फलस्वरूप उन्होंने संस्कृत और राजस्थानी ग्रंथों का इटालियन भाषा में अनुवाद करना आरंभ किया। इस उद्देश्य से उन्होंने वैराग्य शतक, वाल्मीकि रामायण, रामचरित मानस आदि कई महत्वपूर्ण ग्रंथों को अनूदित किया। ये अनुवाद इटली और दूसरे यूरोपीय देशों में काफी लोकप्रिय हुए। धर्म साधना के प्रभाव स्वरूप जन्म लेने वाली लोकमंगल की प्रेरणायें ही इस कार्य का मूल आधार रहीं।
अनुवाद कार्य के अतिरिक्त उन्होंने मौलिक साहित्य भी लिखा, जो भारतीय संस्कृति और सभ्यता की व्याख्या प्रस्तुत करता है। इस प्रकार उन्होंने भारतीय जनता की भी महत्वपूर्ण सेवा की। बीकानेर में वे लगभग पांच वर्ष तक रहे और इन पांच वर्षों में उन्होंने जितना लिखा तथा अनुवाद किया वह कोई शायद पचास वर्षों में भी नहीं कर सकता है। साहित्य-साधना के साथ-साथ ज्ञान साधना भी अनवरत निर्विरोध चलती ही रही।
22 नवंबर 1919 को बत्तीस वर्ष की अल्पायु में एक साधारण सी बीमारी के कारण उनका देहांत हो गया। इस छोटी सी उम्र में उन्होंने अपने जीवन और आचरण से जो आदर्श प्रस्तुत किया वह दीर्घावधि तक विश्व के लोगों को प्रेरणा देता रहेगा।
(यु. नि. यो. सितंबर 1975 से संकलित)

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