तन विदेशी मन भारतीय

मीरा बेन

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सन् 1907 में इंग्लैंड से नौ-सेना के एक उच्च अधिकारी वेस्ट इंडीज के कमांडर-इन-चीफ होकर दो वर्ष के लिए भारत आये। परिवार में दो लड़कियां थी। पंद्रह वर्षीय मेडलीज स्लेड के किशोर मन में तब भारत की जो कल्पना थी, उसके अनुसार भारत एक रहस्यमय खतरनाक काले लोगों, सांपों, चीतों, हाथियों और प्लेग जैसे भयंकर रोगों का देश था। एक अजीब-सा भ्रम समाया था उनके मन में, पर यहां आकर तस्वीर दूसरी ही दिखाई दी।
मेडलीन स्लेड 22 नवंबर 1892 को इंग्लैंड के एक उच्चाधिकारी के घर में जन्मी और सुविधा-स्नेह के वातावरण में घिरी होने पर भी एक अजीब लड़की थी। उसे अकेले खेलना पसंद था। गुड़ियों से चिढ़ती थी और खिलौनों को उठाकर पटक देती थी। फूलों, पशुओं और पक्षियों से प्यार करती थी और उनसे अकेले में बातें भी।
मेडलीन की संपूर्ण शिक्षा घर पर ही हुई। सामान्य शिक्षा के साथ मूर्तिकला, वास्तुकला और चित्रकला में भी उन्होंने पर्याप्त रुचि ली। संगीत का भी उन्हें अच्छा शौक था। बाद में जब भारत आकर उन्होंने उपनिषद्, महाभारत और रामायण आदि ग्रंथ पढ़े, तो वे आध्यात्मिक विचारधारा से अत्यधिक प्रभावित हुईं।
इसी बीच उन्हें रोमां रोलां द्वारा लिखित महात्मा गांधी के जीवन से संबंधित एक पुस्तक पढ़ने को मिली, जिसमें रोमां रोलां ने गांधी जी को ‘दूसरे ईसा’ कहकर संबोधित किया था।
मेडलीन उक्त पुस्तक एक बैठक में ही आद्योपांत पढ़ गईं। यह वही चीज थी, जिसकी उन्हें वर्षों से तलाश थी। इसमें एक आवाज थी, एक आमंत्रण था जो उनकी आंतरिक खोज को दिशा दे रहा था। बिना किसी तर्क-वितर्क में पड़े उन्होंने अपना लक्ष्य निर्धारित कर लिया। पेरिस लौट कर तैयारी भी आरंभ कर दी—आश्रम जीवन की, पवित्रता की, कताई-बुनाई की, हाथ से श्रम की और सेवा-साधना की।
साथ ही उन्होंने उर्दू सीखना भी प्रारंभ कर दिया। उन्हें बताया गया था कि भारत की भाषा उर्दू है। पृथ्वी पर सोने का अभ्यास भी आरंभ हुआ और धीरे-धीरे मांसाहार भी छूट गया। फिर हिंदी पढ़ी, गीता और वेदों का अध्ययन किया। तत्पश्चात अपनी हीरे की अंगूठी बेच कर प्राप्त राशि और अपने हाथ के कते ऊन के नमूने भारत में गांधी जी को भेजे। इसी के साथ उन्होंने गांधी जी को अपने विचारों और इरादों से सूचित करते हुए उनके प्रति अपनी अपार श्रद्धा व्यक्त की। गांधी जी का उत्तर मिला—‘‘संकल्प दृढ़ हो तो भारत आ जाओ।’’ और एक बेचैन आत्मा की भारत यात्रा की तैयारी हो गई। परिवार के सदस्यों ने समझाया पर विरोध नहीं किया। कारण वे लोग बचपन से ही इस अजीब लड़की की अज्ञात खोज से परिचित थे। फिर अब तो वह घर पर ही एक वर्ष से आश्रम-जीवन बिता रही थी। बस एक बार वह मां-बाप से अलग हुई कि जीवन में फिर उनसे दुबारा नहीं मिल सकीं।
भारत आकर मेडलीन स्लेड सीधी अहमदाबाद गईं, जहां उस समय गांधी जी साबरमती आश्रम में रहते थे। मुलाकात के समय उन्हें जो पहली अनुभूति हुई, उसे उन्होंने ‘तीव्र रोशनी’ की संज्ञा दी है। सामने पहुंचते ही घुटनों तक झुक कर उन्होंने प्रणाम किया तो बापू ने अपने हाथों से उठाते हुए कहा—‘‘आज से तुम मेरी पुत्री हुई।’’ उसी समय पिता ने पुत्री का नामकरण किया—मीरा और प्रथम काम उन्हें सौंपा गया—आश्रम में शौचालय की सफाई। पर पुत्री पिता के इस क्रूर प्यार से जरा भी विचलित नहीं हुई। प्रसन्न हुई कि उसे इस काम के योग्य समझा गया।
जलवायु अनुकूल न थी और जीवनचर्या कष्टों से भरी पर वे जरा भी नहीं घबराई और न कभी खिन्न रहीं, बल्कि प्रत्येक कार्य बड़ी लगन और उत्साह से करती थीं। उन्होंने खादी की मोटी सफेद साड़ी धारण की और बाल कटवा कर आजन्म कुमारी रहने का व्रत लिया। इंग्लैंड के समृद्ध परिवार में पली एक युवती का इस प्रकार अपनी समस्त इच्छाओं का दमन और सेवा का व्रत ले आश्रम जीवन में रम जाना एक बहुत ही आश्चर्यजनक घटना थी।
पर मेडलीन के लिए यह कोई चमत्कार नहीं, उनकी सहज इच्छा की सहज पूर्ति मात्र थी। गांधी जी व उनकी विचारधारा में उनकी जो अपार श्रद्धा थी, उसके समक्ष संसार का कोई भी आकर्षण ठहर पाना असंभव था।
आश्रम में मीरा बेन कई बार बीमार पड़ीं पर अपनी तीव्र इच्छा-शक्ति के बल पर ही बिना चिकित्सा के शीघ्र ही ठीक होती गईं। उन्होंने अनुभव किया कि बापू के संपर्क की ही विलक्षण शक्ति थी जो उन्हें हर समय और हर स्थिति में सुरक्षित व अविचलित रखती थी। स्वतंत्रता-संग्राम के वर्षों में वे हमेशा बापू के साथ रहीं। न कभी थकीं, न हारीं, न लक्ष्य से जरा भी डिगीं। स्वतंत्रता-संग्राम में भाग लेते हुए मीरा बेन दो बार जेल गईं। गांधी जी की विचारधारा को विदेशों में फैलाने के लिए और उनके संबंध में फैली अनेक भ्रांतियों का निवारण करने के लिए उन्होंने 1934 में पहले इंग्लैंड का और बाद में अमरीका का दौरा किया। लोगों ने गांधी जी को लेकर प्रश्नों की झड़ी लगा दी और मीरा बेन ने उन सबका समाधान किया। गांधी जी के विचारों को सुनने की अमरीकी जनता की बेहद बेचैनी ही इस बात का प्रमाण था कि वह भी मेडलीन स्लेड की तरह ही ऊपर से यांत्रिक जीवन में व्यस्त रहते हुए भी भीतर से किसी शांति की खोज में संलग्न थे। मीरा बेन के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि थी। भारत लौटकर मीरा बेन अनेक स्थानों पर रहीं पर अधिकतर सेवाग्राम में ही। अगस्त 1942 के ‘भारत-छोड़ो’ आंदोलन में भाग लेने के कारण वह अन्य नेताओं के साथ गिरफ्तार कर ली गईं। यरवदा जेल में श्री महादेव देसाई और कस्तूरबा की मृत्यु के समय वह उनके पास ही थीं। बापू भी उस समय वहीं थे।
रिहाई के बाद मीरा बेन कृषि, पशुपालन और ग्राम-सुधार की ओर आकर्षित हुई। 1944 में हरिद्वार के समीप ‘किसान आश्रम’ के नाम से एक ग्रामीण कल्याण केंद्र की स्थापना की। इस केंद्र में काम करते हुए भी वे गांधी जी से बराबर संपर्क बनाये रहीं। उन्होंने लिखा है कि ‘‘इस समय देश में बढ़ते हुए हिंसा और घृणा के वातावरण को देख गांधी जी जीवन के प्रति अधिकाधिक विरक्त हो चले थे।’’ वह यह महसूस ही कर रही थीं कि तभी उन्हें बापू की हत्या का समाचार मिला। इस समाचार से उन्हें गहरा धक्का लगा, फिर भी वे विचलित नहीं हुईं। उन्होंने बापू के अंतिम दर्शनों की अपनी तीव्र इच्छा पर भी अंकुश लगा लिया। उन्हें बापू के ये शब्द याद आये—‘ईश्वर पर भरोसा रखो और जहां हो, वहीं रहकर अपना कर्तव्य पूरा करते रहो।’ उन्होंने सोचा—जिस महान आत्मा से उन्हें इतना प्रेम है, वह तो अमर है। विदेशी मन में भारतीय अध्यात्म के फूटे अंकुरों का कैसा अनुपम उदाहरण है। इसे गांधी जी की अलौकिक शक्ति कहें या मीरा बेन की असीम साधना या दोनों का अद्भुत संयोग?
मीरा बेन भारतीय नेताओं की पद-लिप्सा और स्वार्थपरता को देखकर बड़े दुःखी और निराशा भरे अंतःकरण से भारत छोड़कर चली गईं। भारतीय जनता में फैले भ्रष्टाचार एवं अनैतिकतापूर्ण वातावरण से उनके हृदय को बड़ी ठेस लगी। वे यह देखकर अत्यंत दुखी हुईं कि भारत गांधी जी के आदर्शों की दुहाई देता हुआ भी दिनों-दिन उन्हें भूलता जा रहा है।
(यु. नि. यो. मई 1977 से संकलित)

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