तन विदेशी मन भारतीय

मैडम ब्लावट्स्की

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उन्नीसवीं शताब्दी में रूस में भी स्त्रियों की वही स्थिति थी जो आज भारत में है। छोटी उम्र में ही विवाह, घर में ही बंद मूक प्राणी की तरह जीवन, परावलंबन, स्त्री शिक्षा की समुचित व्यवस्था का अभाव जैसी परिस्थितियों से जकड़ी नारी कुंठित रहकर किसी तरह अपनी जीवन-लीला पूरी करती थी। पुरुषों के लिए आयु का कोई बंधन नहीं था। वे एक पत्नी के रहते दूसरी से विवाह कर लेते थे। सोलह वर्ष की आयु की नवयौवना अपने से तिगुनी आयु के प्रौढ़ों से ब्याह दी जाती थीं और वे अपनी मां की आयु वाली पत्नियों की सौत बनकर नये घर में जाती थीं। इसी विडंबना भरी परिस्थिति में हेलेना पेक्रेवना का विवाह अड़तालीस वर्षीय दमे के मरीज निकोलाई ब्लावट्स्की से तय हुआ।
इस नारी का भावी जीवन क्रम बताने से पूर्व इसका परिचय देना जरूरी है। उसका जन्म रूस के एक छोटे से कस्बे में सन् 1831 ई. में हुआ। माता-पिता तो बचपन में छोड़कर चले गये। चाचा-चाची तो उसे बेमोल की दासी समझते थे। वहां से वह अल्पायु में ही छोटी बहन के साथ अपने दादा के घर चली गयी। हेलेना उस समय मात्र ग्यारह वर्ष की थी, पर संवेदनाशील इतनी कि अपने समाज में स्त्रियों की दुर्दशा देखकर उसे रुलाई आ जाती। कई बार अपना आक्रोश वह इतने तीखे शब्दों में व्यक्त कर देती थी कि सब दंग रह जाते। सोचते, यह लड़की आगे चलकर क्या करेगी? उन्हीं दिनों उसने कहा था—‘‘मैं किसी को भी किसी की दासता सहने की पक्षधर नहीं हूं और मनुष्य को हर तरह के बंधनों से मुक्त देखना चाहती हूं।’’
विडंबना यह कि उसका स्वयं का विवाह ही परिस्थितियों के दुर्देव ने एक प्रौढ़ से रच दिया। वह विद्रोह कर उठी और विवाह होते ही पति के घर जाने की अपेक्षा अज्ञात यात्रा पर निकल पड़ी। नारी को भोग्या समझे जाने वाले उस वातावरण में अकेले रहकर कष्ट सहते हुए उसने किस प्रकार प्रतिकूलताओं से लोहा लिया व नारी स्वातंत्र्य की सशक्त परिस्थिति विनिर्मित की, यह सब वस्तुतः सच्चे आत्मिक पुरुषार्थ की एक गौरव गाथा है।
स्वतंत्र रहते हुए वे शिक्षार्जन करती रहीं और अपनी आध्यात्मिक पिपासा को शांत करने के लिए मनीषियों के द्वारा रचित पुस्तकों का स्वाध्याय भी जारी रखा। अपना नाम उन्होंने मैडम ब्लावट्स्की ही रखा। उनके लिए सुरक्षा के आश्वासन से मूल्यवान था—आत्मा का उन्मुक्त विकास। इस आस्था की अभिव्यक्ति उस समय हुई जब वे सन् 1873 में अमेरिका पहुंची। वहां एक पत्रकार ने उनके विवाह-संबंधों के बारे में खोजबीन परक प्रश्न किये तो वे बोल उठीं—‘‘नहीं! मैं विधवा हूं। ईश्वर की कृपा से विधवा। इसके लिए मैं परमपिता की आभारी हूं। नारी स्वातंत्र्य की आवाज उठाने व नर-नारी का नहीं, आत्मा के विकास का मार्ग ढूंढ़ने के लिए सृष्टा ने मुझे हर प्रकार के बंधनों से मुक्त कर दिया है।’’
इससे पूर्व मैडम ब्लावट्स्की कई देशों की यात्रा कर चुकी थीं—आध्यात्मिक यात्रा। घर छोड़ने के बाद वे जैसे जैसे आत्मनिर्भर जीवन व्यतीत करने लगीं वैसे वैसे उनका प्रतिभाशाली मन मनुष्य की आत्मिक सत्ता की अनुभूतियां करने लगा। वे अनुभव करतीं—‘‘मनुष्य के बाह्य दृश्य स्वरूप के अतिरिक्त उसकी एक आंतरिक सत्ता भी है जो वृक्ष में जड़ की तरह उसकी नियति को निर्धारित करती है। जड़ें जितनी ही गहरी और सशक्त होंगी, वृक्ष भी उतना ही ऊंचा और विशाल होगा। प्रत्येक वृक्ष की अपनी जड़ें-प्रत्येक व्यक्ति की अपनी आत्मिक सत्ता। प्रत्येक बीज में एक वृक्ष की संभावना तो प्रत्येक मनुष्य में क्षुद्र से महान होने की सामर्थ्य।’
सामान्य घटनाओं को भी सूक्ष्म दृष्टि से देखने के भाव ने उनके जीवन की दिशा ही मोड़ दी। घटनायें तो सभी के जीवन में घटती हैं—ऐसी ऐसी घटनायें जिन्हें महत्व की दृष्टि से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता परंतु कितने व्यक्ति हैं जो उन्हें गंभीरता से लेते हैं—शायद बहुत कम। और जो वस्तुतः उन्हें दृष्टि में लेते हैं उनमें कोई भी ऐसा नहीं होगा जिसे एक सुनिश्चित और महान दिशा नहीं मिली हो। मैडम ब्लावट्स्की के साथ भी यही हुआ और उन्होंने अज्ञात के आयाम खोजने, मनुष्य की जड़ों को किस प्रकार गहराई तक पहुंचाया जा सकता है—यह अनुसंधान करना ही अपना जीवन लक्ष्य बना लिया। इस खोज के लिए उन्होंने मिस्र, भारत और अफ्रीका के कई देशों की यात्रा की। मिस्र के पिरामिडों को देखकर उन्होंने ऐसे सत्य की झांकी प्राप्त की जो मनुष्य के साथ अनादिकाल से जुड़ा हुआ है और वह सत्य है—मनुष्य मरण-धर्मा होते हुए भी अमृतत्व की प्राप्ति के लिए कितना आतुर-व्याकुल हो रहा है। भारत में आकर उन्होंने योगियों और सिद्ध-संतों से आध्यात्मिक सत्यों की दीक्षा प्राप्त की। कई मंदिरों और संतों के दर्शन कर उन्होंने आध्यात्मिक रहस्यों का अनुशीलन किया। अफ्रीका के सयानों, तांत्रिक और काला जादू जानने वाले शैतान के उपासकों से भी वे मिलीं तथा उनके साथ रहकर उन्होंने अज्ञात को पहचानने के लिए उन्हीं की दृष्टि सीखी। बाद में उन्हीं सूत्रों को ‘सीक्रेट डॉक्ट्रीन’ के रूप में पुस्तकाकार प्रकाशित किया गया।
वे इस निष्कर्ष पर पहुंचीं कि इस लोक से परे भी कुछ पारलौकिक शक्तियां हैं। दिखाई देने वाली दुनियां में भी एक और दुनियां है जो इससे भी बड़ी है और यहां की शक्तियों से भी अधिक शक्तिशाली है। अपने शोध से प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर उन्होंने कहा—‘‘मनुष्य की आत्मा में अनंत, अजेय और अदम्य शक्ति सामर्थ्य भरी पड़ी है। शुद्धता, शुचिता, सत्य और आस्था के द्वारा उस शक्ति को जगाया जा सकता है तथा वह शक्ति जब पवित्र उद्देश्यों के लिए प्रयुक्त की जाती है तो दैवी चमत्कार बन जाती है।
मैडम ब्लावट्स्की स्वयं भी पवित्र और निश्चल हृदय थीं तथा उनके मन में करुणा और संवेदना की अजस्र धारा निरंतर बहती रहती थी। 1873 में जब वे स्थायी रूप से अमेरिका आ गयीं तो वहीं की नागरिक बन गईं। उन्होंने अपने रहने के लिए न्यूयार्क में ऐसा स्थान चुना जहां अधिकांशतः गरीब और निम्न वर्ग के व्यक्ति रहा करते थे। उनके पास जो कुछ भी होता वे अपने इन पिछड़े साथियों के लिए खर्च कर डालतीं। अपनी चिंता तो उन्हें जरा भी नहीं रहती। उनके पास जेब में कभी कोई रकम नहीं रहती और भी तो किसी जरूरतमंद की सहायता-सुश्रूषा में तुरंत खर्च कर डालतीं। इस गरीबी का उन्होंने स्वेच्छया वरण किया था—इसलिए इसका कभी मलाल भी नहीं रहा।
समूचे विश्व का आध्यात्मिक पुनरुत्थान करने के उद्देश्य से मैडम ब्लावट्स्की ने सन् 1875 में थियोसॉफिकल सोसाइटी की स्थापना की। इसकी स्थापना से पूर्व स्थान-स्थान पर उन्होंने कितने ही आध्यात्मिक कार्यक्रम आयोजित किये। इन कार्यक्रमों में उस समय के कई गण्यमान्य प्रतिष्ठित व्यक्ति भी सम्मिलित होते तथा मैडम के उद्देश्यों से प्रभावित होकर उसकी पूर्ति के लिए स्वयं का योगदान भी प्रस्तुत करते। कर्नल आल्काट, कांग्रेस के जन्मदाता सर ह्यूम उनसे प्रभावित होने वाले व्यक्तियों में मुख्य थे। उन्होंने थियोसॉफिकल सोसाइटी की स्थापना में भी पर्याप्त योगदान दिया। सोसाइटी का मूल उद्देश्य विश्व बंधुत्व और सर्वधर्म समभाव बनाया गया।
बाद में मैडम अपने साथियों के साथ भारत आ गयीं। यहां उन्होंने मद्रास के समीप अड्यार नदी के किनारे पूर्वी समुद्र तट पर अंतर्राष्ट्रीय थियोसॉफिकल सोसाइटी का मुख्य कार्यालय बनाया। कर्नल आलकॉट, श्रीमती एनी बिसेंट, सी. डब्ल्यू लेडबीटर जैसे मनीषियों ने उनके कार्य को यहां आगे बढ़ाया पर वे अधिक दिन यहां न रह सकीं। वे लंदन चली गयीं जहां 1891 में उनका देहांत हुआ।
‘मौन की वाणी’ ‘गोपनीय सिद्धांत’ ‘पराजागतिक रहस्यों का अध्ययन’ जैसी उनकी लिखी पुस्तकें सारे थियोसॉफी आंदोलन को दिशा देने वाली मानी जाती हैं। इसमें उन्होंने बताया है कि आध्यात्मिक नियमों का पालन सुख-शांति युक्त जीवन जीने के लिए जरूरी है। जीवन भर वे मानव मात्र की स्वतंत्रता तथा मुक्ति के लिए प्रयास करती रहीं। उनके देहावसान पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा गया कि वे सच्चे अर्थों में विश्व नागरिक थीं। देश, जाति, लिंग, संप्रदायों के बंधनों से मुक्त।’’
(यु. नि. यो. अगस्त 1981 से संकलित)

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