तन विदेशी मन भारतीय

एनी बिसेंट

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‘‘सत्य के अनुसंधान में चाहे मेरे समस्त लौकिक बंधन छूट जायें, मित्रता और सामाजिक संबंध छिन्न-भिन्न हो जायं, चाहे मैं प्रेम से वंचित हो जाऊं, चाहे उसके लिए मुझे निर्जन पथों में क्यों न भटकना पड़े और फिर सत्य प्रकट होकर चाहे मुझे ही क्यों न मिटा डाले, मैं उसका अनुसरण करने से पीछे नहीं हटूंगी। मृत्यु के पश्चात भी मैं अपनी समाधि पर यही वाक्य चाहूंगी—वह, जिसने सत्य के अन्वेषण में प्राणों की बाजी लगा दी।’’
इस शब्दावली का जीवन में कई बार प्रयोग करने वाली डॉक्टर एनी बिसेंट का समस्त जीवन गांधी जी की भांति सत्य की प्रयोगशाला और सेवा की कुटिया कहा जा सकता है। 1893 में उनका भारत आगमन ‘सत्य की खोज’ और बाद का जीवन ‘सेवा के प्रति समर्पण’ है। विश्व में बहुत कम महिलाएं ऐसी मिलेंगी जो अपने जीवन-काल में ही इतनी ऊंचाई पर पहुंची हों, जिनका नैतिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, शैक्षणिक एवं राजनीतिक स्तर समान ऊंचाई पर हो तथा जिन्होंने मानवता की विविध रूपों में इतनी महान सेवा की हो। स्वयं गांधी जी ने उनके विषय में कहा था—
‘‘श्रीमती बिसेंट ने भारत की जो गरिमापूर्ण सेवाएं की हैं, उनकी स्मृति तब तक सजीव रहेगी, जब तक स्वयं भारत-राष्ट्र के शरीर में प्राणों का स्पंदन रहेगा।’’
डॉक्टर एनी बिसेंट भारत के राष्ट्रीय जागरण आंदोलन एवं स्वतंत्रता संग्राम की प्रमुख नेत्री थीं। इस नाते भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर आसीन होने वाली प्रथम महिला का सौभाग्य उन्हें ही प्राप्त हुआ था। यह 1915 की बात है। इसी से प्रोत्साहन पाकर सन् 1917 में भारतीय महिलाओं का अखिल भारतीय संगठन और महिला मताधिकार का आंदोलन सामने आया।
एनी बिसेंट ने अन्य कई क्षेत्रों में काम किया है। 1907 में भारतीय राष्ट्रीय महासभा सूरत में दो दलों में विभक्त हो गई थी। एक के नेता थे—लो. बाल गंगाधर तिलक और दूसरे के श्री गोपालकृष्ण गोखले। एनी बिसेंट ने दोनों दलों में समझौता करवाकर ‘इंडियन होम रूल लीग’ की स्थापना की। 1913 में उन्होंने ‘कामन विल’ साप्ताहिक पत्र निकाला। इसके कुछ ही मास बाद प्रसिद्ध दैनिक पत्र ‘मद्रास स्टैंडर्ड’ खरीद कर उसका नाम ‘न्यू इंडिया’ रख दिया। कई वर्ष वे उसका सफल संपादन करती रहीं। 1921 में विश्व के प्रधान स्काउट लार्ड पावेल द्वारा वे ‘आल इंडिया बॉय स्काउट एसोसिएशन’ की प्रथम महिला आनरेरी कमिश्नर नियुक्त की गईं। 1921 में ही उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता के लिए ‘नेशनल कन्वेंशन’ नामक एक दूसरा आंदोलन चला दिया। इसके परिणामस्वरूप 1925 में ‘कॉमनवेल्थ आफ इंडिया’ बिल ब्रिटिश पार्लियामेंट में रखा गया था। बनारस में ‘सेंट्रल हिंदू कालेज’ की स्थापना उन्होंने ही की थी। बाद में पंडित मदनमोहन मालवीय ने इसी कालेज को हिंदू विश्वविद्यालय का ऐतिहासिक स्वरूप प्रदान किया।
भारतीय संस्कृति एवं हिंदू धर्म में अगाध श्रद्धा रखने वाली तथा भारतीयों को अपनी महान सांस्कृतिक विरासत का निरंतर भान कराने वाली शायद वे पहली विदेशी महिला थीं, जो भारत में पदार्पण के साथ ही भारतवासियों के लिए विदेशी नहीं, अपनी हो गई थीं। उन्होंने एक महिला प्रिंटिंग प्रेस भी चलाया तथा ‘डेली हेराल्ड’ जैसे श्रेष्ठ प्रकाशन को निकालने का श्रेय भी प्राप्त किया। भारत में ‘स्काउट’ तथा ‘गर्ल्स गाइड’ आंदोलन चलाने में भी उनका प्रमुख हाथ रहा। 1932 में इसकी विश्व-संस्था की ओर से उन्हें सर्वोच्च सम्मान ‘वुल्फ’ प्रदान किया गया था।
एनी बिसेंट का जन्म 1 अक्टूबर 1847 में लंदन में हुआ था। एक आयरिश परिवार से संबंधित कुमारी ऐनी बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा की धनी थी। इस बालिका की अद्भुत चिंतन-शक्ति और ईश्वर-भक्ति देखकर लोग चकित हो जाते थे। इस दैवी प्रेरणा को आगे जाकर राह मिली, उनके ही जीवन की एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना से। उनका वैवाहिक जीवन बहुत कष्टप्रद था। एक बार पति के दुर्व्यवहार से अत्यधिक खिन्न होकर वे विष पीने के लिए तैयार हो गई थी कि तभी उन्हें अपनी आत्मा का स्वर सुनाई दिया—‘‘कायर! कष्टों से डरकर अपनी हत्या करने पर तुली है। समर्पण का पाठ सीख और सत्य का अन्वेषण कर। क्या तू सत्य की खोज के लिए अपनी तुच्छ वासनाओं का दमन न कर सकेगी?’’ और श्रीमती एनी बिसेंट ने विष की शीशी तुरंत खिड़की के बाहर फेंक दी। फिर एक दिन चुपचाप अपने पति एवं दो सुकुमार बच्चों को छोड़कर वे सत्य की खोज में घर से निकल पड़ीं। शिकायत पति से थी, बच्चों से नहीं। मां का हृदय एक बार पुनः वात्सल्य से भर उठा पर फिर इस तपस्विनी ने उसे संभाल लिया।
फौलाद के हृदय में मां की कोमल ममता छिपाये-समेटे एनी बिसेंट लाखों-करोड़ों की मां बन गयीं। विश्व को अपना देश एवं परोपकार को अपना धर्म मान श्रीमती एनी बिसेंट ने पहले समस्त यूरोप का भ्रमण किया। वे अमरीका, न्यूजीलैंड और आस्ट्रेलिया गयीं फिर थियोसॉफिकल सोसाइटी से खिंचकर 46 वर्ष की अवस्था में भारत आ गयीं। भारत से अधिक उपयुक्त कर्मक्षेत्र उन्हें दूसरा कौन सा मिलता? यहां उनकी सत्य एवं ज्ञान की पिपासा भी शांत हो सकती थी, सेवा के लिए भी एक विशाल क्षेत्र खुला पड़ा था। बस, वे यहीं बस गयीं। भारत की राष्ट्रीयता ग्रहणकर उन्होंने जीवन का शेष भाग भारत की सेवा में ही खपा दिया।
1893 का पराधीनता में मूर्छित भारत! लोग आश्चर्यचकित थे कि एक अंग्रेज महिला भी अपने देशवासियों के दुर्व्यवहार के खिलाफ भारतीय जनता की ओर से बड़ी बहादुरी के साथ अपनी आवाज बुलंद कर रही है। उसकी नजरों में गोरे-काले, धनी-निर्धन, अपने-पराये का कोई भेद-भाव न था। वह केवल भारतीयों को स्वतंत्रता दिलाने में ही विश्वास नहीं रखती थीं, बल्कि उनके हृदय में अपने राष्ट्र, संस्कृति, धर्म एवं साहित्य की महानता का मंत्र फूंककर उन्हें जागृत भी करना चाहती थीं। वह लोगों को बताती थीं कि ब्रिटिश शासन ने इस देश का शोषण कर इसे खोखला बना दिया है और इस बात पर दुःख प्रकट करती थीं कि पाश्चात्य जीवन और विचार-प्रणाली को अंधाधुंध अपनाकर भारतीय अपने गौरव को विस्मृत करते जा रहे हैं। वह भारत के प्राचीन साहित्य और संस्कृति का कितना ज्ञान रखती थीं, अपने भाषणों में संस्कृत श्लोकों का कैसे धाराप्रवाह पाठ करती थीं—ये सब देखकर लोग मंत्र-मुग्ध से रह जाते थे।
श्रीमती बिसेंट भारत की गरिमा को पुनर्जीवित करने के लिए पूरी शक्ति से जुट गई थीं। बनारस में सेंट्रल हिंदू कालेज की स्थापना के पीछे उनका यही उद्देश्य था। इस महाविद्यालय के छात्र आधुनिक विज्ञान व पाश्चात्य साहित्य के साथ ही साथ धर्म, नीति-शास्त्र, दर्शन-शास्त्र एवं भारतीय भाषाओं का गंभीरता पूर्वक अध्ययन करते थे। मालवीय जी को हिंदू विश्वविद्यालय के निर्माण में प्रोत्साहन करने में एनी बिसेंट का ही सर्वाधिक योग था।
भारतीयों में राष्ट्रीयता का मंत्र फूंकने के अतिरिक्त उन्हें जाति-पांति के बंधनों एवं अंधविश्वासों से ऊपर उठाने के लिए उन्होंने आजीवन प्रयत्न किया। उनके महाविद्यालय के छात्रावास में सभी जाति के छात्र एक साथ बैठकर भोजन करते थे। बाल-विवाह का विरोध करने के लिए उन्होंने विवाहित छात्रों को प्रवेश देने से इन्कार कर दिया था। कालेज के संचालन के लिए ब्रिटेन और अमरीका से डॉक्टर ए. रिचर्डसन और डॉक्टर जी. एस. अरुंडेल जैसे भारतीय दर्शन के विद्वानों को आमंत्रित किया गया था।
छुआ-छूत और नीच-ऊंच का भेदभाव मिटाने के प्रयत्नों में कई बार उन्हें कड़े विरोधों का सामना करना पड़ा पर वे न तो थकीं न ही हारीं।
1914 में उन्होंने सक्रिय राजनीति में प्रवेश किया। प्रथम महायुद्ध के प्रारंभ होते ही ‘न्यू इंडिया’ एवं ‘कॉमनवेल्थ’ पत्रों के माध्यम से उन्होंने कहना शुरू किया कि इंग्लैंड संकटग्रस्त है तो भारत को इस अवसर का लाभ उठाकर अपनी मांगें सामने रखनी चाहिए। ‘होमरूल लीग’ की स्थापना इसी आंदोलन के लिए की गई थी। श्री मुहम्मद अली जिन्ना, लोकमान्य तिलक एवं सर सी. पी. रामास्वामी अय्यर जैसे नेता इस आंदोलन के प्रबल समर्थकों में से थे। 1915 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में वे उसकी अध्यक्ष चुन ली गयीं। इस पद पर आसीन प्रथम महिला के रूप में उन्होंने कांग्रेस की गतिविधियों को तो नया मोड़ दिया ही, भारतीय महिलाओं के राजनीतिक जागरण का भी पथ प्रशस्त किया। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में वे जेल भी गयीं। उनके साहस का परिचय इससे अधिक क्या मिलेगा कि इंग्लैंड जाकर भी उन्होंने भारतीयों के पक्ष में अनेक मार्मिक भाषण दिये और वहां कई संगठन स्थापित किये। श्रीमती सरोजिनी नायडू के साथ उन्होंने भारत में महिला मताधिकार आंदोलन में भाग लिया और महिला शिक्षा के लिए तो निरन्तर कार्यरत रहीं।
श्रीमती बिसेंट एक अच्छी वक्ता, योग्य नेत्री, कुशल संचालिका, विनम्र लोक-सेविका, अग्रणी संपादिका, सुधारक, राजनीतिज्ञ, लेखिका, अंतर्राष्ट्रीय विषयों की ज्ञाता एवं धार्मिक-संत महिला आदि सब कुछ थीं। उनका जीवन सरल तथा आध्यात्मिक था। मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़े, पौधे सभी में एक विराट् का दर्शन कर वे उनसे तादात्म्य स्थापित कर लेती थीं। वे पूर्णतः शाकाहारी थीं। किसी भी प्रकार की निर्दयता उन्हें असह्य थी। इसलिए पशु-संरक्षण के लिए भी उन्होंने आंदोलन चलाये। जैसे-जैसे वे वृद्ध होती गयीं, उनका साध्वी रूप अधिक प्रभावशाली बनता गया। आध्यात्मिक शक्तियों से दीप्त उनका मुख-मंडल न जाने कितनों की प्रेरणा बन गया था।
डॉक्टर एनी बिसेंट ने करीब 300 पुस्तकें, बहुत सी टिप्पणियां और लेख लिखे। अनेक दैनिक, साप्ताहिक एवं मासिक पत्रों का संपादन किया। कट्टर स्वतंत्रतावादी एवं सुधारक होने से विचार-स्वतंत्रता और मुद्रण-स्वतंत्रता के लिए भी उन्होंने डटकर संघर्ष किया। भारतीय कांग्रेस के इतिहास पर लिखा गया उनका तथ्यपूर्ण ग्रंथ विशेष रूप से पठनीय है।
20 नवंबर 1933 को मद्रास में 86 वर्ष की आयु में यह कर्मठ महिला इस संसार से विदा हो गई पर अपनी महान सेवा, तपस्या और विश्वमानवीयता के बल पर श्रीमती एनी बिसेंट ने भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के इतिहास में ही नहीं, भारत की आत्मा के अणु-अणु में सदैव के लिए अपना स्थान सुरक्षित कर लिया है।
(यु. नि. यो. अक्टूबर 1968 से संकलित)

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