विग्रह के मूल कारण-
तृतीय विश्व युद्ध की तैयारी जिस कारण चल पड़ी और कटारें एक- दूसरे की छाती पर रखकर जिस कारण भिड़ गये उसका कारण है- गुटों का- वर्गों का शासन। यह कब से चला, इसकी चर्चा निरर्थक है। पर होता यह रहा है कि समर्थ गुटों
ने अपने कब्जे में जमीन को और वहाँ रहने वाले दुर्बल लोगों
का शोषण आरम्भ कर दिया। संक्षेप में यही शासन तंत्र है। आदिम काल
से लेकर उसका स्वरूप थोड़े हेर- फेर के साथ ऐसा ही चलता रहा
है।
जापान पर दो बम गिराने और उससे आत्म- समर्पण करा लेने में
जिन शासकों को उत्साह मिला, वे सभी उपरोक्त प्रकार के वर्ग शासन
के आधार पर चल रहे थे। यह पद्धति ही विष- बेल है। जब से यह
चली है तभी से तत्कालीन साधनों के अनुरूप युद्ध होते रहे हैं
और जब तक यह रहेगी युद्धों का कभी अंत नहीं होगा। आज चिंता अधिक इसलिए है कि अणु आयुद्धों
से व्यापक विनाश की सम्भावना है। यदि वह टल भी जाय, तो भी
दूसरे साधनों से अगले दिनों युद्ध होते रहेंगे। कारण कि उसके मूल
में समर्थ वर्गों द्वारा दुर्बल का शोषण उसकी आधारभूत विधि-
व्यवस्था है।
यदि ऐसा न होता तो देशों का विभाजन भौगोलिक सुविधा के आधार
पर हुआ होता। उसमें एक और विशेषता होती। पिछड़े समुदाय का वर्चस्व
रहता। प्रगतिवान्
वर्ग उन्हें ऊँचा उठाने और आगे बढ़ाने की अपनी जिम्मेदारी अनुभव
करता। समर्थ लोग थोड़े होते हैं। असमर्थ अधिक। इसलिए बहुमत के
मार्गदर्शन एवं सुधार परिष्कार की जिम्मेदारी प्रगतिवान् अल्पमत को उठानी पड़ती है। पर आज वैसा कहाँ है? मुट्ठी भर समर्थ लोग अपने बुद्धिबल, शासन बल, ज्ञानबल और साधनबल
के सहारे जितने क्षेत्र पर चाहें कब्जा कर लेते हैं और उसे
अपना कहने लगते हैं। यह जंगल कानून हुआ। जिसकी लाठी उसकी भैंस
वाली कहावत चरितार्थ हुई। देशों का वर्तमान सीमा विभाजन और उन पर
गुटों
को आधिपत्य यह है- संघर्षों का मूलभूत कारण। यह तो छीना झपटी
हुई। जो जितना बलिष्ठ होगा वह उसी अनुपात में अपने से छोटों का
डराने धमकाने में, शिकंजे में कसे रखने में सफल होगा।
सामन्त युग में यही होता रहा है। जिसके पास डकैतों का जमघट
जितना अधिक हुआ वह उसी उत्साह से पड़ोसियों पर चढ़ दौड़ता था और
उसके राज्य को लूट- खसोट के उपरान्त अपने में मिला लेता था। अब
तरीके बदल गये हैं। अब लड़ाइयाँ इतनी खुली नहीं होतीं। उन पर सिद्धान्तवाद के आवरण उढ़ाये गये होते है।
फिर भी तथ्य एक ही है कि समर्थ वर्ग, पड़ोसी अथवा दूरवर्ती
देशों को किसी न किसी बहाने अपने चंगुल में फँसाये रखना चाहते
हैं ताकि उन्हें अधिक शोषण करने और अपने वर्ग को अधिक समर्थ
बनाये रहने का अवसर मिलता रहे।
मुद्दतों से देशों की सीमाएँ कुछ ऐसी बन गई है जो हमें
स्वाभाविक प्रतीत होती हैं। जो जहाँ कब्जा किए बैठा है वही उसका
न्यायोचित अधिकार प्रतीत होता है। पर यदि वस्तुतः न्याय एवं
औचित्य को ध्यान में रखते हुए समीक्षा की जाय तो बात कुछ दूसरी
ही प्रतीत होती है। धरती पर उत्पन्न होने वाले सभी धरती
पुत्रों के लिए उत्पादन में समान भागीदारी कहाँ है? वरिष्ठ लोग
अपनी सुख- सुविधाओं को स्वेच्छा से कम करके कनिष्ठों
को अधिक सुखी समुन्नत बनाने के लिए प्रयत्नशील कहाँ रहते हैं?
यदि ऐसा रहा होता तो गुट बनाने और क्षेत्रों पर कब्जा करने की
आवश्यकता ही क्यों पड़ती? सभी भूमि गोपाल की समझी जाती और उससे
हर क्षेत्र से हर किसी को समान लाभ लेने का अवसर मिलता। देशों
के नाम पर विभाजन रेखाएँ न होती। यदि होती तो उसके निर्धारण में
वर्गवाद को नहीं भौगोलिक यातायात आदि की सुविधाओं को ध्यान में रखा गया होता।
खनिज तेल मध्य पूर्व के कुछेक अरब देशों में बड़ी मात्रा में
निकलते हैं। आधिपत्य उन्हीं मुट्ठी भर लोगों का है जबकि भूमि
सबकी होने के कारण उस सम्पदा पर स्वामित्व सभी का होना चाहिए।
अफ्रीका और अमेरिका की ढेरों जमीन खाली पड़ी है। जबकि चीन और
भारत जैसे धनी आबादी वाले देशों को उसकी कोताही के कारण अनेकों
असुविधाएँ सहनी पड़ती हैं। यह संसार एक परिवार होना चाहिए और
उसकी भूमि सभी की भूमि। सभी उसके उत्पादन में समान लाभ उठायें।
अनीति यहाँ से शुरू होती है कि किसी क्षेत्र के निवासी उस पर
अपना आधिपत्य जमाते हैं और वहाँ के उत्पादनों को अपनी ही मुट्ठी
में रखना चाहते हैं।
अनीति में सबसे बड़ी बुराई यह है कि बड़ा ताकतवर छोटे को
सहन नहीं करता। फलतः किसी बड़े से कोई बड़ा बनता ही रहता है और
छोटे को उदरस्थ करने के लिए मचलता रहता है। छोटे या बड़े युद्ध
अब तक इसी कारण होते रहे हैं और यदि यह सिलसिला चलता रहा तो
उनका अंत कभी भी नहीं होगा।
ऋषि की दृष्टि --
पिछले लेख में यह बताने का प्रयत्न किया गया था कि दैवी शक्तियाँ सीने पर गोली रखकर ‘‘पीछे हट- पीछे हट’’ कहने वालों से भी किसी न किसी आधार पर सामयिक राजी नामा करा देंगी। ‘‘आगे बढ़े तो खैर नहीं- आगे बढ़ें तो खैर नहीं’’ के उद्घोष दोनों ओर से हो रहे हैं। ऐसी दशा में जिन्हें अपनी हस्ती ‘नेस्तनाबूद’
नहीं करानी है, समझदारी से काम ले सकते हैं और बहादुरी के साथ
पीछे हट सकते हैं। फिलहाल का युद्ध टल सकता है। हमारी दावेदारी
और भविष्यवाणी सही सिद्ध हो सकती है कि युद्ध सुनिश्चित रूप से
टल जायेगा। निशाना सधी लगी हुई अन्तर्महाद्वीपीय मिसाइलें फिलहाल
रुक जायेंगी। पर इससे होगा क्या? युद्ध अकेले बारूद से ही थोड़े
लड़ा जाता है। असली युद्ध तो आर्थिक लड़ाई है। यह खाई वर्तमान देश
विभाजन की सीमा के रहते यथावत्
बनी रहेगी और कल न सही, परसों कोई नया स्वरूप लेकर इस प्रकार
के न सही, उस प्रकार के युद्ध का मोर्चा खड़ा करेगी। बर्बादी एक
तरह की न सही दूसरे तरह की होगी। फिर समाधान क्या हुआ?
अबकी बार समस्याओं का समाधान किश्तों में नहीं एक मुश्त ही
होना है। अणु युद्ध ही नहीं रुकेगा, देशों की वह विभाजन रेखा भी
हटेगी, जो वर्गों ने, गुटों
ने अपनी- अपनी सामर्थ्य के अनुसार कब्जा जमाकर बना ली है।
वर्तमान नक्शे में जो देश जहाँ दिखाई देता है वहाँ उनमें से एक
भी न रहेगा। एक ‘विश्व राष्ट्र’
का निर्धारण होगा और यदि उसकी प्रशासनिक, औद्योगिक यातायात
सुविधा के कारण वर्गीकरण की आवश्यकता पड़ेगी, तो वह कट या बँट भी
जाएगा।
यह सुनने और सोचने वालों को असम्भव जैसा लगता होगा? अमेरिका क्यों इतनी भूमि पर से कब्जा समेटेगा
और रूस क्यों अपनी मित्र मंडली के इतने सदस्यों को ढील देगा।
चीन क्यों अपने कब्जे के इतने क्षेत्र को वर्गीकृत करेगा? तेल
वाले देश क्यों अपने उत्पादन में से दूसरों को हिस्सा देंगे?
कदाचित कोई भी स्वेच्छा से इसके लिए तैयार न होगा। खासतौर से
समृद्ध और समर्थ देश। गरीबों की वहाँ आवाज ही कौन सुनता है? उनके
पास सामर्थ्य ही कहाँ है? जो विश्व के पुनर्विभाजन
के लिए दबाव डाल सकें। वर्तमान परिस्थितियाँ यही बताती हैं कि
ऐसा परिवर्तन जैसा इन पंक्तियों में लिखा जा रहा है, असंभव है।
पर इससे आदमी अपने समय में जो सोचता है, वही भविष्य में
होता रहे यह आवश्यक नहीं। देशों की भौगोलिक, आर्थिक और बौद्धिक
स्थिति में पिछले दिनों कितना परिवर्तन हुआ, इसे देखकर चकित रह
जाना पड़ता है। प्रथम महायुद्ध के बाद दूसरे में और दूसरे के बाद
तीसरे में क्या अन्तर हुआ है, उसे यदि आर्थिक और राजनैतिक
विभाजन की दृष्टि से देखा जाय तो प्रतीत होगा कि इस दुनिया में
आश्चर्यजनक परिवर्तन हुए हैं। इतने आश्चर्यजनक जो कदाचित उस समय
के लोगों के गले बिलकुल भी न उतर सकते होंगे। हिटलर के उत्थान
और पतन के दिनों वाली बात पर ही दृष्टि डाली जाय तो प्रतीत
होगा कि उन थोड़े दिनों में ही इतना कुछ योरोप में बदला, जिसकी
इससे पूर्व किसी ने कल्पना तक न की होगी।
युद्धों का निराकरण अबकी बार अन्तिम रूप से किया जाने वाला
है। अणु बम रुकें और रासायनिक बम न चलें, ऐसी छोटी हेरा- फेरी के
लिए दैवी शक्तियों को बीच में क्यों पड़ना था। इतना तो आदमी की
मोटी अकल भी कर सकती है। यदि भगवान् को हस्तक्षेप करना है कि
युद्ध टल जाय, तो उन्हें उतना और भी करना पड़ेगा कि देशों का
वर्तमान सीमा विभाजन और उसका आधारभूत कारण भी हटे। अगले दिनों
धरती का नक्शा तो यही रहेगा पर उसमें जो अनेकों छोटे- बड़े देश
दिखाई पड़ते हैं वे न रहेंगे। एक विश्व की- एक राष्ट्र की कल्पना
तो मुद्दतों से की जाती रही है। ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ का प्रतिपादन तो मुद्दतों से होता रहा है, पर अबकी बार सचमुच ही कार्यान्वित होकर रहेगा।
समर्थ गुटों
में एक ही सबसे बड़ा गुट है- पिछड़ा वर्ग जो ज्ञान की दृष्टि
से- साधनों की दृष्टि से अनुभव और अभ्यास की दृष्टि से पीछे
पड़ता है। बहुमत इसी का है। अस्तु वर्चस्व भी इसी का होना चाहिए। सम्पत्तिवान्-
बुद्धिमान संख्या की दृष्टि से अल्पमत हैं, पर वे वर्चस्व की
दृष्टि से भारी पड़ते हैं। बड़ों को छोटे बच्चे सँभालने पड़ते हैं।
इस दृष्टि से अब तथाकथित बड़ों को नये ढंग से सोचना पड़ेगा।
उन्हें संख्या की दृष्टि अधिक, किन्तु क्षमता की दृष्टि से स्वल्प
वाले जनसमुदाय को वैसे ही सँभालना होगा जैसे कि अभिभावक अपने
कई छोटे बच्चों को सँभालते और समर्थ बनाते हैं। अब उन्हें कमजोरी
की- विवशता का लाभ उठाने की अभ्यस्त नीति का एक प्रकार से
परित्याग ही करना पड़ेगा।
परिवर्तन का दैवी चक्र --
दैवी कृतियों को चमत्कार कहा जाता है। वह घोर अन्धेरे
के बीच न जाने कहाँ से सूर्य का गरमागरम गोला निकाल देते
हैं। चिर अभ्यास में आ जाने के कारण वे अजनबी प्रतीत नहीं होते।
पर वस्तुतः है तो सही। आकाश में न जाने कहाँ से बादल आ जाते
हैं और न जाने किस प्रकार बरस कर सारा जल जंगल एक कर देते
हैं। यह अचम्भा ही अचम्भा है। सर्वनाशी युद्ध की खिंची हुई तलवार
यदि म्यान में वापस लौट सकती हों, तो समझदारी को अपनी जानकारी
में एक बात और भी सम्मिलित करना चाहिए कि देशों का वर्तमान
विभाजन कारणों की दृष्टि से भी और परिणामों की दृष्टि से भी
जितना अस्वाभाविक और अहितकर है, उसे बदलना पड़ेगा।
यह बदलाव इस दृष्टि से नहीं होगा कि कौन सा गुट कितना समर्थ है और मांस
का कितना बड़ा टुकड़ा उखाड़ ले जाता है। वरन् इस दृष्टि से होगा
कि आदमी को आखिर इसी धरती पर रहना है। चैन से रहना है। देर तक
रहना है। यदि सचमुच ऐसा ही है तो रोज- रोज की खिच- खिच करने
की अपेक्षा यह अधिक अच्छा है कि एक बार बैठकर शान्त चित्त से
विचार कर लिया जाय और जो कुछ भी भला- बुरा निश्चित करना हो कर
लिया जाय। यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि किश्तों में (एक-
एक करके) नहीं एक मुश्त फैसला होना है।
आदमी खण्डित नहीं रहेगा। एक जाति, वर्ग, लिंग की दीवारों में
उसे खण्डित नहीं रखा जा सकता। इस प्रकार भूमि के टुकड़े इस
दृष्टि से मान्यता प्राप्त नहीं कर सकते कि किस समुदाय ने कितने
क्षेत्र पर किस प्रकार कब्जा किया हुआ है। पुरातन की दुहाई
देने में अब कोई लाभ नहीं। चिर पुरातन चिर नवीन में परिवर्तित
किया जाना है। जब धरती बनी और आदमी उगा तब देश जाति की कोई
क्षेत्रीय विभाजन रेखा नहीं थी। आदमी अपनी सुविधानुसार कहीं भी आ
जा सकता था। जहाँ जीवनोपयोगी साधन मिलते थे, वहीं पर रम सकता
था। आदमी की आदत समेटने की है खदेड़ने
की नहीं। इसलिए उसने परिवार मुहल्ले, गाँव बसाना आरम्भ किया। अब
क्या ऐसी आफत आ गयी जो आपस में मिलजुलकर नहीं रहा जा सकता, मिल
बाँटकर नहीं खाया जा सकता। जो अधिक समेटने की कोशिश करेगा वह
ईर्ष्या का भाजन बनेगा और अधिक घाटे में रहेगा। जिसके पास अधिक
है वह ईश्वर का अधिक प्यारा है, अधिक पुण्यात्मा या अधिक भाग्यवान् है, यह कथन, प्रतिपादन अब अमान्य ठहरा दिये गये हैं।
बात कठिन है। युद्ध का रुकना भी कठिन है। जिसे इस कठिनाई से
सरल हो जाने पर विश्वास हो, उसे उसी मान्यता में एक कड़ी और भी
जोड़नी होगी कि संसार का नया नक्शा और नया विधि- विधान बनेगा। यह पुरातन कलेवर तो बहुत पुराना हो गया है। उसकी चिन्दियाँ और धज्जियाँ उड़ गयी हैं। उसे सीं-
सिवा कर काम नहीं चल सकता। यह बहुत छोटी दुनियाँ का है। अब वह
(दुनिया) तीन वर्ष की (बच्ची) नहीं रही, तेईस वर्ष की (युवती)हो गयी है। इसलिये समूचे आच्छादन को नये सिरे से बदलना पड़ेगा।
शासनाध्यक्षों को नये ढंग से सोचने के लिए हम विवश करेंगे कि वे लड़ाई की बात न सोचें। बढ़े हुये कदम वापस लौटायें।
खुली तलवारें वापस म्यान में करें। इसके साथ ही मनीषियों को यह
मानने के लिए विवश करेंगे कि दुनिया के वर्तमान गठन को
अनुपयुक्त घोषित करें और हर किसी को बतायें कि चिरपुरातन ने दम
तोड़ दिया और उसके स्थान पर नित नवीन को अब परिस्थितियों के
अनुरूप नूतन कलेवर धारण करना पड़ रहा है। एक दुनिया- एक राष्ट्र
की मान्यता अब सिद्धान्त क्षेत्र तक सीमित न रहेगी। उसके अनुरूप
ताना- बाना बुना जाएगा और वह बनेगा जिसमें विश्व की एकता- विश्व
मानव की एकता का व्यवहार दर्शन न केवल समझा वरन् अपनाया भी जा
सके। इसके लिये विश्व चिन्तन में ऐसी उथल- पुथल होगी, जिसे उल्टे
को उलट कर सीधा करना कहा जा सके।