संचित कुसंस्कारिता के शमन प्रतिरोध, निराकरण पर प्र्रज्ञा युग के विचारशील व्यक्ति पूरा-पूरा ध्यान देंगे। संयम बरतेंगे और सन्तुलित रहेंगे। शौर्य, साहस का केन्द्र-बिन्दु यह बनेगा कि किसने अपने दृष्टिकोंण, स्वभाव,रुझान एवं आचरण में कितनी उत्कृष्टता का समावेश किया। प्रतिभा, पराक्रम एवं वैभव को इस आधार पर सराहा जायेगा कि उस उपार्जन का जनकल्याण एवं सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन में कितना उपयोग हो सका। विचारशील लोग इसी आधार पर आत्म-निर्माण करेंगे और पुरुषार्थ का क्षेत्र चुनते समय निजी सुख- सुविधाओं की पूर्ति का नहीं विश्व उद्यान को समुन्नत, सुसंस्कृत बनाने की महानता को महत्त्व देंगे। अमीरी को नहीं मानवी गरिमा को अपनाया, सराहा जायेगा। संकीर्ण स्वर्थपरता में संलग्र व्यक्ति तब प्रतिभा के बल पर कहीं कोई श्रेय सम्मान प्राप्त नहीं करेंगे वरन् भर्त्सना के भाजन बनेंगे।
श्रमशीलता को बेइज्जती या दुर्भाग्य का चिह्न न समझा जाय वरन् प्रतिभा-विकास- उपलब्धियों का उपार्जन एवं प्रखरता का परिचायक माना जाय तो ही भौतिक विकास की सम्भावना सुनिश्चित हो सकती है। श्रम का असम्मान परोक्ष रूप से दरिद्रता एवं पिछड़ेपन का आह्वान है। निठल्लेपन के साथ एक दुःखद दुर्भाग्य और जुड़ा रहता है। ‘‘खाली दिमाग शैतान की दुकान’’ की युक्ति चरितार्थ करता है। जिनके पास काम नहीं होगा उनका दिमाग दुश्चिन्तन में और शरीर दुर्व्यसनों में निरत होगा। ठाली लोगों में क्रमशः दुर्गुण बढ़ते हैं। समय काटने के लिए वे दोस्तों की तलाश में रहते हैं और जो भी उनके चंगुल में फँस जाता है उसे अपने जैसा बना लेते हैं। नई पीढ़ी की बर्बादी में इन दिनों दोस्तबाजी का एक प्रकार से भयानक दुर्व्यसन बन चला है। आवारा लोगों की चाण्डाल चौकड़ी ही इन दिनों मित्रमण्डली कहलाती है। यह समस्त अभिशाप खाली बैठने के हैं। इस तथ्य को जितनी गम्भीरतापूर्वक समझा जा सके उतना ही उत्तम है।
प्रज्ञा युग में चिन्तन, आचरण एवं व्यवहार के सभी पक्षों में काया-कल्प जैसा हेर-फेर होगा। यही युग परिवर्त्तन है। इस परिवर्त्तन का आधार दूरदर्शी विवेकशीलता का कसौटी पर कसकर अपनाया गया औचित्य ही होगा। पिछले दिनों क्या सोचा, माना या किया जाता रहा है। इसे भावी रीति-नीति का आधार नहीं माना जाएगा वरन् तर्क, तथ्य, प्रमाण, न्याय एवं लोकहित की हर कसौटी पर कसने के उपरान्त जो खरा पाया जायेगा उसी को अपनाया जायेगा। न किसी को भूत का आग्रह होगा और न कोई भविष्य की अवज्ञा करेगा। वर्तमान का निर्धारण करते समय आज की आवश्यकता और उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना को ही महत्त्व दिया जाएगा। यह निर्धारण पूर्वाग्रहों से मुक्ति पाये हुए अन्तःकरण ही कर सकेंगे। अगले दिनों उन्हीं को युग ऋषि माना जायेगा और उन्हीं का निर्धारण लोक-मानस द्वारा श्रद्धापूर्वक अपनाया जायेगा।
महत्त्वाकांक्षाओं का सही आधार है पवित्रता एवं प्रखरता की उच्चस्तरीय अभिवृद्धि। निजी जीवन में गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से अधिक उत्कृष्ट बनना और लोकोपयोगी कार्यों में सामने अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करना किसी व्यक्ति की गौरव-गरिमा का मानदण्ड बनेगा। लोग सादा जीवन-उच्च विचार की भावनाओं से प्रेरित होंगे। जीवन की गरिमा एवं सफलता इस बात में अनुभव करेंगे कि आदर्शवादी प्रगति में कितना साहस दिखाया तथा पराक्रम किया गया। अगले दिनों लोग अपनी चतुरता व सम्पदा तथा सफलता का उद्धत प्रदर्शन करने को छछोरपन मानेंगे और उच्चस्तरीय प्रतिभा का विकास एवं सदुपयोग करने में सन्तोष तथा सम्मान अनुभव करेंगे।