इन दिनों तृतीय महायुद्ध का आतंक सर्वत्र छाया हुआ है। इस
वज्रपात की संभावना से समूची मानव जाति की नींद हराम है। कभी-
कभी लगता है कि प्रलय की घड़ी और सामूहिक मरण का दिन निकट आ
रहा है। अणु आयुधों के उपरांत विष बरसाने वाले रासायनिक अस्त्र
और लेसर जैसी मृत्यु किरणें धीमे- धीमे प्रकाश में आ रही हैं और
प्रतीत होता है कि प्राण- वायु बरसाने वाले बादलों से सुशोभित
आकाश मरघट बनकर जलेगा। सूर्य, चन्द्र और सागर तक को मनुष्य की उद्धतता
निगल बैठे, तो आश्चर्य नहीं? कल्पना तो यह भी की जाती है कि
यहाँ खण्डहरों और नीरवता के अतिरिक्त और कुछ ऐसा न बचेगा, जिसे
मृत्यु के ताण्डव नृत्य से भिन्न देखा जाय।
किन्तु आस्थावानों को विश्वास रखना चाहिए कि उस सर्वनाश के
चरितार्थ होने में लाखों- करोड़ों वर्षों की देर है। आत्म विज्ञान
की शक्तियाँ भौतिक विज्ञान द्वारा रचे हुए अनर्थ को समय रहते
रोक सकेंगी। नागासाकी और हिरोशिमा की पुनरावृत्ति अन्यन्त्र
कहीं भी नहीं दीख पड़ेगी। वृत्रासुर किसी समय ऐसा ही विनाश रच
रहा था कि दधीचि की अस्थियों से बने वज्र ने उसकी कमर तोड़ दी
और उसके मंसूबे औंधे मुँह गिरकर धूलि चाटने लगे। अभी जो बादल
बेतरह गरज रहे हैं, वे तीव्रगामी उफान के साथ उड़ जायेंगे। वे न
हिमयुग में बदलेंगे, न समुद्र में ऊफान
लाकर धरातल को उदरस्थ ही कर सकेंगे। क्रिया की प्रतिक्रिया होती
है, यह न्यूटन का नियम है। भौतिकी का दर्प दलन करने के लिए वह
उद्भव हो रहा है, जिसमें महाकाल की अप्रत्याशित भूमिका सम्पन्न
होती देखी जा सके।
वैज्ञानिक, राजनेता, भविष्यवक्ता, अन्वेषक अपने- अपने तर्क और तथ्य
आगे रखकर यह प्रमाणित करने का प्रयत्न कर रहे हैं कि महाविनाश
में अब उँगलियों पर गिनने जितने समय की देर है, किसी सीमा तक
उठे हुए कदम अब वापस नहीं लौटेंगे। इन प्रवक्ताओं
के कथन, अनुमान, विश्लेषण पर कोई आक्षेप न करते हुए हमें यह
पूरी हिम्मत के साथ कहने की छूट मिली है कि आतंक के समय रहते
शांत होने की भविष्यवाणी करें और जन साधारण से कहें कि विचलित
होने की अपेक्षा सृजन की बात सोंचे।
दुनिया यह नहीं रहेगी, जो आज है। उसकी मान्यताएँ, भावनाएँ,
विचारणाएँ, आकांक्षाएँ ही नहीं गतिविधियाँ भी इस तरह बदलेंगी कि
सब कुछ नया- नया प्रतीत होने लगे।
[युगऋषि
ने बार- बार यह तथ्य समझाने को कोशिश की है कि जब
परिस्थितियाँ मनुष्य के नियन्त्रण के परे होने लगती है, तब ईश्वरी
प्रवाह प्रत्यक्षः
अप्रत्यक्ष रूप में प्रकट होकर असम्भव को सम्भव बनाते हैं। रावण
का कंस का आतंक मिटने की कल्पना उस समय की परिस्थितियों के
आधार पर नहीं की जा सकती थी। अमेरिका की स्वतन्त्रता तथा वहाँ
से गुलामी की प्रथा समाप्त होने की बात भी परिस्थितियों के आधार
पर सम्भव नहीं लगती थी। फिर भी ईश्वरीय प्रेरणा प्रवाह के
प्रभाव से वे सभी कार्य सम्भव हुए। युगऋषि के अनुसार जिस प्रकार
वे क्षेत्रीय समस्याएँ हल हुई, वैसे ही आज की वैश्विक समस्याएँ
भी दिव्य प्रेरणा प्रवाह से संचालित मानवीय पुरुषार्थ के माध्यम
से हल होंगी।]
परिवर्तन की नई लहर --
भविष्य की कल्पना तथा योजना के विषय में दूरदर्शी विवेकशील
भी अपनी सूझबूझ और अनुभव के आधार पर वर्तमान साधनों और
परिस्थितियों को देखते हुए आगत का अनुमान लगाते हैं। इसे योजना
निर्धारण कहते हैं जिसके तीर प्रायः निशाने पर ही बैठते हैं, यदि
ऐसा न होता तो मनुष्य प्रायः अँधेरे में ही भटकता रहता और
बदलती परिस्थितियों में अपना पथ बदलता रहता। पर ऐसा होता नहीं।
दूरदर्शिता के आधार पर आगा- पीछा सोचते हुए जो योजनाएँ बनती हैं,
उसके पीछे तर्क, तथ्य और अनुभव बड़ी मात्रा में समाहित होते हैं।
अतएव विश्वास किया जाता है कि जो सोचा गया है वह होकर रहेगा।
मार्ग में आने वाले व्यवधानों से जूझा जाएगा और देर सबेर में
लक्ष्य तक पहुँच कर रहा जाएगा। होता भी ऐसा ही है।
आज से पाँच सौ वर्ष पुराना कोई मनुष्य कहीं जीवित हो और आकर
अबकी भौतिक प्रगति के दृश्य देखे, तो उसे आश्चर्यचकित होकर रह
जाना पड़ेगा और कहना पड़ेगा कि यह उसके जानने वाली दुनिया
नहीं रही। यह तो भूतों की बस्ती जैसी बन गई है। सचमुच पिछले
दिनों बुद्धिवाद और भौतिकवाद की सम्मिलित संरचना हुई भी ऐसी ही
है, जिसे असाधारण, अद्भुत और आश्चर्यजनक परिवर्तन कहा जा सके।
ठीक इसी के समतुल्य दूसरा परिवर्तन होने जा रहा है। उसके लिए
पाँच सौ वर्ष प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। इस नये परिवर्तन के
लिए एक शताब्दी पर्याप्त है। आज की चकाचौंध जैसी परिस्थितियाँ और
आसुरी मायाचार जैसी समस्याएँ अब इन दिनों भयावह लगती हैं और
उनके चलते प्रवाह को देखकर लगता है कि सूर्य अस्त हो चला और निविड़ निशा से भरा अंधकार अति समीप आ पहुँचा, पर ऐसा होगा नहीं। यह ग्रहण की युति
है। बदली की छाया है, जिसे हटा देने वाले प्रचण्ड आधार
विद्यमान भी हैं और गतिशील भी। लंकाकाण्ड की नृशंसता के उपरांत
रामराज्य का सतयुग वापस आया था। वैसी ही पुनरावृत्ति की हम
अपेक्षा कर सकते हैं।
विनाश की सोचते और चेष्टा करते हुए मनुष्य का यह संसार थक
जायेगा और वैभव के साधन स्रोत सूख जायेंगे। उन्हें नये सिरे से
नई बात सोचनी पड़ेगी कि प्रवाह को नई दिशा में उलट दिया जाय और
उपलब्ध साधनों को सृजन के लिए लगाया जाय। ऊपर से पड़ने वाले
दबाव ऐसी ही उलट फेर संभव करेंगे। उनने उलटे को उलट कर सीधा
करने का निश्चय कर लिया है।
आयुध बनाने वाले कारखाने के मजदूरों और इंजीनियरों को सृजन के
साधन विनिर्मित करने का नया काम मिलेगा। आयुधों से लोगों का अब
पेट भर गया है। मजदूरों को उधार या मुफ्त बाँटकर अपने कारखानों
की बेरोजगारी उन्हें बरबस रोकनी पड़ेगी।
अगले दिनों भूखी, प्यासी, अशिक्षित, बीमार, पिछड़ी दुनिया की
आवश्यकता इतनी अधिक दृष्टिगोचर होगी कि उनकी पूर्ति के लिए युद्ध
साधनों और निर्माताओं की समूची पूँजी खप जायेगी। माँग भी इतनी
होगी कि सीमित मुनाफा लेकर उत्पादन को जलते तवे पर पानी की
बूँदों की तरह खपाया जा सके। सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि
विनाश के लिए एक छुरी या दिया सलाई पर्याप्त है। पर विकास के
लिए तो अनेकानेक साधन बड़ी मात्रा में जुटाने पड़ते हैं। अगले
दिनों सृजनात्मक उत्पादन की हजार गुनी माँग होगी और कहीं से भी
बेकारी- बेरोजगारी की, पूँजी जमा होने की शिकायत सुनने को न
मिलेगी।
संसार भर में प्रायः दस करोड़ सैनिक और अर्ध सैनिक हैं, वे
युद्ध की पढ़ाई पढ़ते, परीक्षा देते और प्रतीक्षा करते रहते हैं।
उन्हें इस बाल कक्षा से आगे बढ़कर उस कॉलेज में भर्ती होना
चाहिए, जिससे वे गरीबी, अशिक्षा और बीमारी के विरुद्ध मोर्चा लगा
सकें और ढहा देने वाली तोपें चला सकें। दस करोड़ अध्यापक, बागवान,
चिकित्सकों को आज की दुनिया के लिए स्वर्गलोक से अवतरित होने
वाले देवता समझा जाय। उन्हें (सैनिकों को) मृत्यु दूत की पदवी से
विरत होना पड़ेगा।
युद्धों से समस्या घटती नहीं बढ़ती ही है। घटाने और मिटाने का
एक ही तरीका है। विचार विनियम, पंच फैसला, संधि या विश्वास। यह
तत्त्व उभरने ही वाले हैं। अण्डे में हैं तो क्या? कल वे चूजे
बनेंगे, परसों मुर्गे और कुछ ही समय बीतेगा कि ब्रह्ममुहूर्त होने
की बाँग लगाने लगेंगे। सोतों को जगाने की उनकी पुकार अनसुनी न की जायेगी।
विष उगलने वाले, कुंभकरण जैसी साँस लेने वाले विशालकाय कल कारखाने बंद हो जायेंगे। न वायु प्रदूषण बढ़ेगा और न जल प्रदूषण का कुहराम मचेगा।
एक- एक, दो- दो हार्स पावर की मोटरें गृह उद्योगों के माध्यम से
उन वस्तुओं का उत्पादन करने लगेंगी, जिनकी विलास के लिए नहीं
निर्वाह के लिए आवश्यकता है। न शिक्षितों की बेरोजगारी रहेगी न
अशिक्षितों की। सभी को काम मिल जायेगा। भूखों की भूख ही नहीं
मिटेंगी, वरन् समर्थों की सामर्थ्य पर भी अंकुश लगेगा, जो खाली
दिमाग होने के कारण शैतानी बनकर छाई रहती है।
शहर बिखरेंगे और सिकुडेंगे, गाँव विकसित होंगे। बीच की स्थिति कस्बों की होगी। चारों ओर खेतों और बागों के फार्म होंगे। सिंचाई और बुवाई
का ऐसा योजनाबद्ध ताना बाना बनेगा, जो न केवल हरित क्रांति की
आवश्यकता पूरी कर सकेगा, वरन् पानी को पाताल गंगाओं से खींचकर
इंदिरा नहर परियोजना की तरह रेगिस्तानों को भी उर्वरभूमि में परिणत कर सकेगा।
आज तो उत्पादन जितना ही श्रम विक्रय में लगता है। पीछे हर
कस्बे में मुहल्ले- मुहल्ले में ऐसे सुपर बाजार होंगे। जहाँ एक ही
जगह विक्रेताओं और खरीददारों की कुछ ही समय में अपनी आवश्यकताएँ पूरी करने का सुयोग मिल सके।
गाँवों की बसावट आज जैसी भोंडी न होगी, वरन् वे लार्जर फैमिली
के रूप में खेती करने वाले ऐसे परिवारों के रूप में बसे
होंगे, जो अपने आप में स्वावलम्बी भी होंगे और सुरुचि पूर्ण भी,
सुसंस्कृत एवं सुनियोजित भी। बड़े शहरों की बड़ी गंदगी को तब
जलाशयों में बहाकर पेयजल
को दूषित न करना पड़ेगा वरन् कचरे को खाद में बदल लेने की
पद्धति कार्यान्वित होने लगेगी। खेत उर्वर बनेंगे और गंदगी का
कहीं दर्शन भी न हो सकेगा।
धर्म तंत्र परिष्कृत हो --
आज धर्मजीवी अगणित हैं। ६५
लाख संत बाबा, एक लाख प्रशिक्षित पादरी तथा एक लाख अन्यान्य
धर्मों के पुरोहित। कुछ साधक, कुछ योगी। यह एक करोड़ का समुदाय
असली धर्म की सेवा करेगा। व्यक्तित्व की प्रखरता और समाज के सुगठन
के लिए जिस स्तर के लोक शिक्षण की आवश्यकता है वह नीति
निष्ठा और समाज सेवा की दो गंगा- यमुना धाराओं में भली प्रकार
समा जाना है। कर्मकाण्ड और जप- तप व्यक्तिगत रुचि एवं आवश्यकता का
विषय है। उसे ऐच्छिक छोड़ दिया जाय पर धर्म का वह पक्ष जो
जनता से अपना निर्वाह भर पाता है, मात्र इसी काम में निरत रहे
कि व्यक्ति का चिंतन, चरित्र और व्यवहार शालीनता युक्त बनाये। समाज
में ऐसे प्रचलन चलाने के लिए जनसम्पर्क साधे, जिससे सुधरे समाज
की झाँकी विनिर्मित हो सके। ऐसी झाँकी जिसे धरती पर स्वर्ग का
अवतरण कहा जा सके। यह संत वर्ग स्कूली शिक्षा के स्थान पर
सामाजिक शिक्षा का नैतिक शिक्षा का, वातावरण बनाये। परिव्राजकों की
तरह बादल बनकर उन पिछड़े क्षेत्रों में पहुँचे, जहाँ नवसृजन की
चेतना जगाने की आवश्यकता है।
अन्यान्य गिरजाघरों- मस्जिदों, देश के अगणित देवालयों की इतनी
भूमि और इतनी सम्पदा विद्यमान है जिससे कितने ही नवजीवन जगाने
वाले विश्वविद्यालय चलाये जा सकें।
यह एक करोड़ की धर्म सेना विश्व राष्ट्र की सम्पदा रहे और
जहाँ कहीं भी अनीति बरती जा रही है। जब विश्व राष्ट्र का, समस्त
संसार का शासन होगा और भौगोलिक दृष्टि से देशों का छोटे
प्रान्तों की तरह पुनर्गठन होगा, तो स्थानीय समस्याओं को सुलझाने
के लिए मनीषियों का मंत्रिमंडल काम करेगा। इनका बालिग वोट से चयन
न होगा, वरन् लोकसेवी प्रतिभाओं में से ही उन्हें नियुक्त कर
लिया जाया करेगा। अनगढ़ भीड़ द्वारा एक बालिग एक वोट के आधार पर
ऐसे सूत्र संचालक नहीं चुने जा सकते, जो अपने- पराये का पक्षपात
करने की अपेक्षा लोकहित और आदर्शों का परिपालन ही अपना कर्त्तव्य समझें।
अब बिखरे हुए, अपने क्षेत्रीय स्वार्थों की दुहाई देने वाले
देशों का जमाना चला गया। अब संसार भर का एक ही विश्वराष्ट्र
रहेगा। उसमें न्याय और विवेक चलेगा। न आर्थिक विषमता रहेगी, न ही
जातीय। हर किसी को शांति से रहने और रहने देने का अधिकार
मिलेगा। उस वर्ग का उन्मूलन किया जायेगा, जो अपने परिकर और वर्ग
को अनुचित लाभ दिलाने की दुहाई देकर लोगों को भड़काते और चलते हुए कार्य में बाधा डालते हैं।
कम आवश्यकताएँ कम समय में पूरी हो जाने के उपरांत सर्वसाधारण
को इतना समय मिल सकेगा कि वह अपना शारीरिक, मानसिक विकास करने
के लिए समुचित अवसर प्राप्त कर सके। अपने सम्पर्क क्षेत्र में
प्रगतिशीलता उत्पन्न करने वाले क्रिया कलापों में भी योगदान दे
सकें।
परस्पर मिल जुलकर उपयोगी काम करने से सहज मनोरंजन हो जाता है। संगीत, साहित्यकला
को प्रज्ञा और श्रद्धा को उभारने में प्रयुक्त किया जा सके, तो
उसमें इतने उच्च कोटि के मनोरंजन की व्यवस्था हो सकती है,
जिस पर आँखें व मन- मस्तिष्क खराब करने वाले सिनेमाओं
को निछावर किया जा सके। प्रकृति अपने आप में इतनी अधिक सुन्दर
और सुखद है कि उसकी गोदी में खेलने का आनंद उस अनुभूति की
पूर्ति कर सकता है जिसके लिए कि आज हर किसी को बड़ी प्यास है।
वैचारिक प्रदूषण की मुक्ति की दिशा में यह एक महत्त्वपूर्ण कदम
होगा।
मनुष्य में देवत्व उदय करने वाला और धरती पर स्वर्ग जैसा
वातावरण बनाने वाला समय अब निकट है। अंधकार सिमट कर पलायन कर
रहा है। उषाकाल का अरुणोदय उल्लास का संदेश लेकर आया है। हर हृदय
सरोवर में अब शतदल कमल खिलने ही वाले हैं।