दुनिया नष्ट नहीं होगी, श्रेष्ठतर बनेगी

श्री अरविन्द के अनुरूप

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एकाकी तप साधना व लेखनी के योगाभ्यास के इन क्षणों में हमें योगीराज अरविन्द के कुछ कथन सहसा स्मरण हो आते हैं, जो उन्होंने परतन्त्र भारत की उन विषम परिस्थितियों में अपने एकान्तवास में व्यक्त किये थे। उन्हें शब्दशः यहाँ  उद्धरित कर रहे हैं-

    इतना महान और विराट् भारत जिसे शक्तिशाली होना चाहिए था, युगान्तरकारी भूमिका निभाना चाहिए था, आज दुःखी है। क्या है दुःख इसका? निश्चय ही कोई भारी त्रुटि है, जीवन्त चीज का अभाव है। हमारे पास सब कुछ है, पर हम शक्तिहीन हैं, ऊर्जा रहित हैं। हमने शक्ति की उपासना छोड़ दी, शक्ति ने हमें छोड़ दिया। माँ न अब हमारे दिल में हैं, मस्तिष्क में है, भुजाओं में है।

    इस विशाल राष्ट्र के पुनर्जीवन के कितने प्रयत्न किए गए, जाने कितने आन्दोलन हुए-धर्म, समाज, राजनीति सभी क्षेत्रों में, लेकिन सदैव दुर्भाग्य साथ रहा। हमारी शुरुआतें महान होती हैं, पर न तो उनसे नतीजे निकलते हैं, न कोई तात्कालिक फल ही हाथ लगता है। हमारे अन्दर ज्ञान की कमी नहीं। ज्ञान के उच्चतम व्यक्तित्व हमारे बीच से ही पैदा हुए हैं। लेकिन यह ज्ञान मुरदा है। एक विष है, जो हमें धीरे-धीरे मार रहा है। शक्ति के अभाव में, आत्मबल के बिना यह ज्ञान अधूरा है। भक्ति भावना-उत्साह प्रशंसनीय है। लेकिन भक्ति रूपी लपट को भी शक्ति का ईंधन चाहिए। जब स्वस्थ स्वभाव ज्ञान से प्रदीप्त, कर्म से अनुशासित और विराट् शक्ति से जुड़ता है, तभी वह ईश्वरीय कृपा का अधिकारी बनता है।

    यदि हम गम्भीरता से विचार करें, तो पायेंगे कि हमें सबसे पहले शक्ति चाहिए-वह है आत्मबल, आत्मिकी की सर्वोच्च शक्ति। इसके बिना हम पंगु हैं, भारतवासी पंगु हैं, सारा विश्व पंगु है। भारत को उस शक्ति को पुनः पाना ही होगा, पुनर्जन्म लेना ही होगा; क्योंकि सारे विश्व के उज्ज्वल भविष्य के लिये इसकी माँग है। मानवता के समस्त समूहों में यह केवल भारत के लिये निर्दिष्ट है कि वह सर्वोच्च नियति को प्राप्त करे, जो सारी मानव जाति के भविष्य के लिए अत्यावश्यक है। उस शक्ति की उपासना के लिए सदैव महामानव अवतरित हुए हैं। उसी कड़ी में यदि मुझे एकाकी पुरुषार्थ हेतु नियोजित होना पड़े, तो यह मेरा परम सौभाग्य होगा।ज्ज्

    वस्तुतः योगीराज श्री अरविन्द द्वारा सन् १९०५ के आस-पास लिखे इस वक्तव्य से स्पष्ट हो जाता है कि उनके मन में भारत के उज्ज्वल भविष्य के प्रति कितनी उत्कट उमंग थी। उसी अन्तःप्रेरणा ने, परोक्ष जगत् से आए निदेर्शों ने उन्हें क्रान्तिकारी का पथ छोड़ तप साधना में निरत हो वातावरण को गरम करने हेतु विवश किया। यदि हमारी प्रस्तुत सूक्ष्मीकरण दिनचर्या को इसी साधना उपक्रम के समकक्ष समझा जाए, तो इसमें कोई अत्युक्ति न होगी। परिजन इसे उतनी ही गम्भीरता से लेंगे भी।

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