दुनिया नष्ट नहीं होगी, श्रेष्ठतर बनेगी

पक्षपात मिटाना ही होगा

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इन सिद्धान्तों की पिछले दिनों उपेक्षा होती रही है। नर को स्वामी और नारी को पालतू पशु का स्थान मिलता रहा है। सामाजिक न्याय की दृष्टि से भारी पक्षपात बरता जाता रहा है। नारी घूँघट निकाले, नर नहीं। नारी सती हो, नर नहीं। नारी को दहेज देना पड़े, नर को नहीं। नारी पिटे, नर नहीं। बिना संरक्षण के नारी घर से बाहर कदम न रख सके और नर स्वच्छंद विचरे। नर एक साथ कई विवाह कर ले, पर नारी विधवा होने पर भी नहीं। यह ऐसे प्रतिबंध हैं, जिन्हें न्याय और औचित्य की किसी कसौटी पर खरा नहीं माना जा सकता है। किन्तु फिर भी वे रहे हैं और आज भी पिछड़े क्षेत्रों में विशेष रूप से रह रहे हैं। इसका सीधा-सा परिणाम यह हुआ कि केवल पुरुष को ही पूरी गाड़ी धकेलनी पड़ी है। नारी को सहयोग कर सकने का अवसर ही नहीं मिला। फलतः उसकी प्रतिभा छीजती, घटती और गिरती गई। परिणाम समूचे समाज को सहना पड़ा। वह अर्ध विकसित बन कर रहा। अर्धांग पक्षाघात पीड़ित की तरह किसी प्रकार घिसटते हुए चला।

    नारी को रमणी, कामिनी, भोग्या और काम कौतुक के लिए विनिर्मित समझा गया। रंग बिरंगे वस्त्र, आभूषण, शृंगार प्रसाधन, इसलिए उस पर लादे गये ताकि वह अधिक आकर्षक, उत्तेजक प्रतीत हो। लाल सिन्दूर लगाकर अपने को सधवा-किसी की सम्पत्ति होने की घोषणा करे। नख शिख की सुन्दरता और मांसलता के आधार पर उसका मूल्यांकन किया गया। रूपवती प्रिय लगी और सामान्य बनावट वाली तिरस्कृत होती रही। उनका अवमूल्यन और उपहास हुआ। इसका सीधा-सा तात्पर्य है कि जो कामुकता भड़का सके, अनिच्छा होने एवं अखरता रहने पर भी उस आदेश को शिरोधार्य करती रहे, उसे ही पतिव्रता माना जाय।

    इस संदर्भ में शिक्षित-अशिक्षित, भारतीय योरोपीय सभी क्षेत्रों की नारियों की अपनी-अपनी कठिनाइयाँ हैं। किहीं को दबाव सहना पड़ता है तो किन्हीं को लुभावने आकर्षणों की सुनहरी जंजीर से बाँधा जाता है।

    विचारणीय है कि क्या भविष्य में नारी को रबड़ की गुड़िया या कठपुतली की तरह ही जीवन-यापन करना पड़ेगा? क्या वह अपनी प्रतिभा का उपयोग, व्यक्तित्व को प्रखर और समाज को सम्मुनत बनाने में कभी भी न कर सकेगी? यदि ऐसा हुआ तो समझना चाहिए कि संसार पर लदा हुआ पिछड़ापन आधी मात्रा में तो अनिवार्य रूप से बना ही रहेगा।

    नारी की एक और बड़ी भूमिका है-प्रजनन। वह मात्र प्रसव ही नहीं करती वरन् भावी पीढ़ी का स्तर भी विनिर्मित करती है। वह सच्चे अर्थों में भविष्य की निर्मात्री है। क्योंकि बालक माता के संस्कार लेकर ही जन्मते हैं और शैशव की सारी अवधि उसी के संरक्षण में गुजारते हैं। तद्नुसार उनके गुण, कर्म, स्वभाव का ढाँचा अधिकतर इसी अवधि में ढल लेता है। बाद में तो उस पर खराद होती रहती है।
    इस संदर्भ में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण वह मान्यता है जिसमें नारी का मूल्यांकन उसकी सुन्दरता-कामुकता के आधार पर किया जाता है। आज विवाह का प्रचलित अर्थ है-कामुकता की कानूनी छूट के रूप में नारी का प्रयुक्त होना। इस हेय मान्यता के कारण ही वह फुसलाई जाती है, बिकती है। व्यभिचार, बलात्कार की शिकार होती है। किसी विभाग में नौकर है, तो अफसरों के इशारे पर चलने में ही खैर मनाती है। प्रतिशोध करने पर अभियोगों और लांछनों से लदती है। कालगर्ल्स बनने से लेकर कैबरे डान्सों तक में, वेश्याओं के कोठों में उसकी दयनीय दुर्दशा देखी जा सकती है। भूली भटकी जहाँ-तहाँ नारी निकेतनों में भर्ती होती हैं। तलाक और गर्भपात की विवशता उसके लिए कितनी कष्टकर और आघातपूर्ण होती है, उसे भुक्तभोगी स्थिति में ही जाना जा सकता है। बाल विवाहों से उनका शरीर किस प्रकार खोखला और रोगी हो जाता है, इसकी जानकारी सर्वेक्षणकर्त्ताओं ने अनेक अवसरों पर प्रकट की है।

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