चिन्ता छोड़ो—प्रसन्न रहो

मेरा पति या मेरी पत्नी मुझ से असंतुष्ट है

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(1)

लक्ष्मीकान्त जी जब घर में आते हैं, तो पत्नी को घर गृहस्थी के कामों में जुटा पाते हैं। वह कभी कपड़े धोती है, कभी खाना पकाने में ही लगी रहती है। वे चाहते हैं कि पत्नी कुछ देर के लिए उनके पास बैठे और उनके दुःख सुख दैनिक समस्याओं में दिलचस्पी ले, पर विमला को इनमें कोई दिलचस्पी नहीं।

और इसमें बेचारी विमला का भी कसूर नहीं है। वह बेचारी अशिक्षित एक पिछड़े हुए परिवार की कन्या है। वह ऊंचे प्रकार के दाम्पत्य जीवन की जरूरतों को ही समझती नहीं।

उसका पति उससे असंतुष्ट है। विमला चिन्तित रहती है कि क्या करे? अब वह धीरे-धीरे मन मुटाव को समझती है पर कर कुछ भी नहीं पाती। बेचारी को शिक्षा ही नहीं मिली है। मां बाप के कसूर की वह सजा पा रही है। शिक्षित पति और अशिक्षित पत्नी में ऐसा असंतोष प्रायः देखा जाता है।

(2)

मिसेज एलवर्ट लेडी डॉक्टर हैं। गरीब पिता की संतान होते के कारण सरकारी सहायता से पढ़ती गई हैं, प्रेक्टिस भी अच्छी चलने लगी है पर शक्ल सूरत तो आखिर ईश्वर की दी हुई चीज है। पक्का रंग, छोटा कद, भारी भरकम शरीर के कारण मन चाहा पति नहीं पा सकी हैं।

जब उम्र अधिक बढ़ने लगी, तो मां बाप ने विवाह कर दिया, एक अपर डिविजन क्लर्क से। नाम है कि मि. एलबर्ट। ऐलबर्ट साहब हर प्रकार अपनी पत्नी को संतुष्ट करने का प्रयत्न करते हैं, पर वह उनसे असंतुष्ट ही रहती है। बेचारे बहुत आज्ञाकारी है। पत्नी पर शासन करने के बजाय उसके हाथ की कठपुतली बने रहते हैं। वह उन पर हुकूमत भी करती है और डांटती फटकारती भी रहती है। एलबर्ट साहब के घर जब कभी में जाता हूं तो उन्हें झल्लाते और चिड़चिड़ाते हुए पाता हूं।

(3)

वैवाहिक जीवन में प्रति-पत्नी का असंतोष ही चिन्ता का कारण है। इस चिन्ता को दोनों को उदारता से ही समझाया जा सकता है। हम एक दूसरे को समझें। स्वभाव की परख करें। एक दूसरे के साथ समझौता करें।

याद रखिए मानव स्वभाव एक अजीब सी चीज है। मनुष्य में विरोधी भाव, परस्पर विरोधी विशेषताएं प्रचुरता से भरी पड़ी हैं। कभी सद्गुण का प्रधान्य रहता है, तो कभी पशुता का कोई भाव जोर मारता है।

एक घटना मेरे नेत्रों के सामने तैर रही है। हमारे शहर में एक रोमांटिक जोड़े का प्रेम-विवाह हुआ। दोनों काम पर जाते थे। ठीक समय पर काम से वापस आते थे। एक दिन संयोग से पत्नी को पहुंचने में देर हो गई। बस, फिर क्या था पति महोदय का मन सैकड़ों आशंकाओं और व्यर्थ की चिन्ताओं से भर गया। वे पत्नी की स्वच्छन्दता पर खीजते रहे।

जब वह लौटी तो उत्तेजना में न जाने क्या के क्या कह बैठे कि दोनों में ठन गई। जिन पति-पत्नी में प्रगाढ़ प्रेम था, वे ही एक दूसरे को डांटते फटकारने लगे। वे बार-बार पत्नी से पूछते, ‘‘इतनी देर कहां लगी?’’ जो उत्तर वह देती, उसे वे सत्य मानने को तैयार न थे।

और दूसरे दिन ही समस्त शहर युवती की आत्म-हत्या के दुःखद समाचार से विक्षुब्ध हो उठा! झूठे स्वाभिमान ने उस युवती की हत्या कर दी थी।

पति पत्नियों को सदा डेलकार्नेगी के गृहस्थ जीवन को सुखी बनाने वाले सात सूत्रों का पालन करना चाहिए—

1—  पति पत्नी को और पत्नी पति को व्यर्थ ही तंग न करे।

2—  अपने जीवन-संगी को हाथ से छोड़ देने का यत्न मत कीजिए।

3—  एक दूसरे की खराबियां या कमजोरियां मत निकालिए।

4—  निष्कपट भाव से एक दूसरे की अधिक से अधिक प्रशंसा कीजिए।

5—  छोटी-छोटी बातों में भी शिष्टता का स्थान रखिये क्योंकि प्रेम अक्सर छोटी और तुच्छ उपेक्षाओं से कम होता जाता है।

6—  सुशील बनिये और एक दूसरे की कमजोरियों को सहन करना सीखिए। पत्नी या पति प्रसन्न रहे तो बिना गहने—कपड़े के भी काम चल सकता है।

7—  सहवास में संतोष और तृप्ति रहे—ऐसा प्रयत्न रखिये।

इन नियमों का पालन करने से दाम्पत्य जीवन सम्बन्धी अनेक चिंताएं दूर हो सकती हैं।

नैतिक अनैतिकता के बारे में चिन्तित — ‘‘जो मेरा हाल, उसके लिए मैं दुःखी हूं, लज्जित हूं, पर मेरी यह धारणा है कि वही हाल मेरी स्थिति में रहने वाले प्रत्येक अफसर और कार्यालय की सहकारिणी का होता है।’’

आखिर क्या समस्या है?

पत्र में आगे लिखा था, ‘‘हम दोनों प्रयोगशाला में शाम को काफी देर तक, और कभी-कभी छुट्टियों के दिन भी काम करते थे। मेरे मन में उसके लिए कोई आकर्षण नहीं था।

पर धीरे-धीरे हम दोनों का—अफसर और कार्यालय में काम करने वाली सहकारिणी का—शारीरिक सम्बन्ध स्थापित हो गया। कुछ दिन इसी प्रकार बीतते गये। विवेक बुद्धि पर वासना ने अधिकार जमाये रखा। पिछले सप्ताह एकाएक मेरी पत्नी वहां आ गई.......उफ! कैसा बुरा लगा नाराजी, उत्तेजना और झगड़ा हुआ। दोनों आकर्षण है......अब मैं चिंतित रहता हूं कि क्या करूं? कुछ समझ में नहीं आता? आप उत्तर लिखें। अपने अन्तर्द्वन्द्व के भीषण झंझावात में, संकल्प-विकल्प के झूले में झूल रहा हूं।’’

यह पत्र अब्राहम स्टोन को किसी अफसर ने अपनी चिन्ता व्यक्त करते हुए लिखा था। इस पर उन्होंने अमेरिका की स्त्रियों तथा पुरुषों के सामाजिक और वैवाहिक जीवन में आने वाले संकटों का उल्लेख करते हुए एक लेख भी लिखा था। उसके कुछ विचार यहां उद्धृत किये जाते हैं—

ऊपर लिखा पत्र जिस व्यक्ति ने लिखा है, वह एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक है और अपने विशेष क्षेत्र में उसने अनेक शोधपूर्ण कार्य किये हैं। वह तीन बच्चों के बाप हैं। अब उनकी समझ में नहीं आता कि वे क्या करें?

उसे लगता है कि दोनों औरतों में से कोई एक आत्म-हत्या कर लेगी और जिस घर और परिवार को उसने इतनी मेहनत से बनाया है, वह सब नष्ट होने वाला है। सदा नैतिकता-अनैतिकता के बारे में चिन्तित रहता है।

विवाह के उपरान्त दूसरे पुरुषों अथवा स्त्रियों से अनुचित सम्बन्ध रखने वालों की संख्या इतनी अधिक है कि आप शायद विश्वास न करेंगे। ‘किन्से’ रिपोर्ट में बताया गया है कि जिन दस हजार व्यक्तियों की गवाहियां ली गईं हैं, उनका हिसाब लगाने पर पता चला है कि प्रत्येक दो विवाहित पुरुषों में से एक और प्रत्येक चार विवाहित फैशनेबल युवतियों में से एक का अनुचित सम्बन्ध विवाह के बाद भी रहता है। चालीस वर्ष से कम उम्र वाले बहुत से स्त्री-पुरुषों के लिए वह सच बात है।

यदि आप इस प्रकार के अन्तर्द्वन्द्वों में फंसे रहते हैं, तो चिंता दूर करने का यह उपाय समझ लीजिए। यह मेरा नहीं डॉक्टर जार्ज मर्डाक की खोज का परिणाम है।

डॉक्टर मर्डाक ने 148 विभिन्न समाजों का अध्ययन किया है और निष्कर्ष रूप में लिखा है कि, ‘‘मैं अपने सारे अध्ययन के आधार पर इस नतीजे पर आया हूं कि किसी भी सामाजिक इमारत का मुख्य आधार अपने प्रति अथवा पत्नी के साथ वफादार रहने का नियम ही बन सकता है।’’

और यह वही नियम है जिसे हमारे प्राचीन धर्मशास्त्र चिल्ला-चिल्लाकर कह गये हैं। पति-पत्नी व्यर्थ ही शंका को त्याग कर पवित्र, दाम्पत्य प्रेम में जुड़े रहें, एक दूसरे के चरित्र पर कदापि भी शकशुबा न करें, परस्पर एक दूसरे के लिए त्याग करें, हर काम में सहयोग करें, साथ-साथ संयम करें, दुःख विपत्ति और जिम्मेदारी में परस्पर एक दूसरे का साथ दें। हर प्रकार से एक दूसरे पर अपना विश्वास बनाये रहें।

***                          ***                          ***

आप भविष्य में अपने प्रेम को पति या पत्नी में ही केन्द्रित करें। एक दूसरे को सब से अधिक प्रेम, सहयोग प्रदान करें, फिर आप संसार की झूठी टीका टिप्पणी की तनिक भी परवा न करें।

यदि आप पति हैं, तो प्रेम और सहयोग से उसकी कोशिश करें, उसे परिपक्व बनायें, अपने साथ उसकी उन्नति की बात सोचें और इस प्रकार बाहर से बचकर उसी में अपने आप को केन्द्रित करें।

यदि आप पत्नी हैं तो अच्छा बुरा जैसा भी पति है, उसकी उन्नति का सतत प्रयत्न करें, अपने प्रेम को उसी में केन्द्रित करें।

इस प्रकार दोनों अपना कर्त्तव्य समझ कर एक दूसरे को बढ़ाते चलें तो समाज खुद दब जायेगा। अनैतिकता स्वयं समाप्त हो जायगी। जहां एक निष्ठ प्रेम है, चाहे वह किसी के लिए क्यों न हो, वहीं विजय है। अनुचित यौन सम्बन्ध छोड़ कर पति पत्नी को वैवाहिक सम्बन्धों को और भी दृढ़ और स्थायी बनाना चाहिए। स्नेह की सुरक्षा करनी चाहिए।

मैं धीरे-धीरे बूढ़ा और अशक्त होता जा रहा हूं — ‘‘चाचा गमगीन क्यों हो? तुम्हारा तो चेहरा गुलाब सा खिला रहता था। यह मुहर्रमी सूरत क्यों बनाये हुए हो?’’

चचा सदा उत्साह में रहते थे, आज वे कुछ फीके-फीके से नजर आ रहे थे।

परेशान से होकर बोले, ‘‘क्या बतायें, अब जिन्दगी की आखरी मंजिल आ रही है।’’

हमने शंकित हो कर पूछा, ‘‘यह आशंका का बेसुरा राग कहां से निकाला। आखिर बात क्या है। चाचा!’’

‘‘और कुछ नहीं। सीधे सादे शब्दों में बात यह है कि मैं धीरे धीरे अशक्त और बूढ़ा होता जा रहा हूं।’’

‘‘चाचा, यह तो तुम्हें भ्रम हो गया है।’’

‘‘नहीं, यही असलियत है। पचास को पार कर चुका हूं। सब बाल सफेद हो चुके हैं। आंखें जवाब दे रही हैं। चेहरे पर मनहूसियत उभरने लगी है।’’

‘‘अच्छा तो कमजोरी और वृद्धावस्था आपको खाये जा रही है।’’ चाचा, तुम भी सठियाने लगे हो। मन में ज्वालामुखी फट पड़ा है और यह उसी का धुआं उमड़ रहा है। छोड़िये, इस वृथा के भ्रम को। पाश्चात्य देशों में तो 70-80 वर्षों की आयु के लोग भी शादी विवाह करते हैं, सुख से रहते हैं। बड़े-बड़े व्यापार और नौकरी चलाते हैं, राजनीति में लीडर बनते हैं और आप बावन साल में ही व्यर्थ की चिन्ता लिए बैठे हैं।’’

मेरी बातों को चाचा ने दिलचस्पी से सुना और सच्ची सहानुभूति से कुछ पिघले।

‘‘तो तुम क्या सलाह देते हो’’—वे बोले

‘‘अजी, आपको क्या सलाह देंगे। हां आपके सुपुत्र को दोस्ताना सुझाव जरूर देंगे। क्या आप उनसे कह देने की कृपा करेंगे?’’

यह सुनकर वे उत्सुकता से मुझे देखने लगे।

‘‘मेरी सलाह वही है जो कई साल पूर्व ‘सोसाइटी आफ फ्रेंडस’ के एक सदस्य ने वृद्ध व्यक्तियों की जरूरत के रूप में बहुत ही संक्षेप में, केवल एक वाक्य में पेश की थी। वे ही मैं आपके सुपुत्र को कहना चाहता हूं। उन्होंने कहा था, ‘‘वृद्ध व्यक्ति मन में सुरक्षा और पूर्ण आराम से रहना चाहते हैं, कहीं रहने का ठिकाना चाहते हैं और चाहते हैं कि कोई न कोई उनकी देखभाल करता रहे।’’ आपके सुपुत्र यह करते रहें तो आपकी सब चिन्ता पलभर में दूर हो सकती है।’’

दूसरे दिन संयोग से मिल गए उनके सुपुत्र श्री नारायण प्रसाद, तपाक से बोले, ‘‘यार, तुमने हमारे पिताजी से क्या कहा था? हमारी तो उनसे निभती नहीं है।’’

‘‘बहुत कम जवानों की वृद्धों से निभती है मेरे भाई! कारण यह है कि इस उम्र में उनकी बुद्धि बहुत कम हो जाती है।’’

‘‘उन्हें चिन्तामुक्त रखने की भी कोई मनोवैज्ञानिक रीति हो सकती है?’’

‘‘जी हां, मेरी तो बात आप शायद न मानेंगे। मैं इस विषय पर डा. मार्टिन की राय प्रस्तुत करता हूं। डा. मार्टिन ने बहुत से वृद्धों का मानसिक अध्ययन किया है। उनका निष्कर्ष है कि यद्यपि वृद्ध व्यक्तियों की बुद्धि जरूर कम हो जाती है, पर फिर भी वे काफी मेहनत कर सकते हैं और उनमें सहनशक्ति भी काफी रहती हैं। उन्हें चिन्तामुक्त रखने और उनके आराम का सारा बंदोबस्त करने की धुन में हम उनकी शक्ति और प्रेरणा का मूल्य बहुत कम आंकते हैं। आप वृद्ध व्यक्तियों के लिए नहीं, उनसे मिलजुल कर योजनाएं बनाइये। चाहे उनकी बात मानें या न मानें, समय-समय पर उनसे सलाह मशविरा जरूर लेते रहें जिससे उन्हें महत्ता का अनुभव होता रहे, अन्यथा उन्हें उपेक्षा से बड़ी चोट लगेगी।’’

‘‘पर यार, यह है, तो मुश्किल ही। क्या किया जाय?’’

‘‘मानता हूं पर वृद्धों के साथ मिल कर रहना बहुत बड़ी कला है। कर्त्तव्य भी है। याद है आपको यह उक्ति—

वृद्धान् हि नित्यं सेवेत । मत्स्य पुराण 215,52

‘‘सदा बड़े-बूढ़ों की सेवा करनी चाहिए।’’

तब से चाचा की चिंता दूर हो गई है। वे भी युवकों की हर बात में हस्तक्षेप नहीं करते हैं। पुत्र ने वृद्ध के साथ हिल मिल कर रहना शुरू कर दिया है। वे जान गए हैं कि एक दिन उन्हें भी बूढ़ा होना है और तब उन्हें अपने बच्चों के सहारे की जरूरत पड़ेगी।

मेरा बच्चा बुरी संगम में न पड़ जाय — प्रो. परशुराम का पुत्र उनकी वृद्धावस्था की एक मात्र सन्तान है। चार कन्याओं के उपरान्त उसका मुख चन्द्र देखने को मिला है। वह मां बाप की आंखों का तारा ही है। जैसे ही कोई फरमाइश करता है, मां बाप तुरन्त उसे पूर्ण कर देते हैं, रोना सुन दौड़ कर उसकी तीमारदारी के लिए आ जाते हैं। वह अगर बड़ी बहिनों से झगड़ता भी है, तो फैसला उसी के पक्ष में होता है।

प्रो. परशुराम को सदा एक ही चिन्ता रहती है, ‘‘मेरा लड़का अब स्कूल जाने लगा है। स्कूल में सिगरेट पीने, सिनेमा देखने और शरारत करने वाले अनेक बिगड़े हुए लड़के होते हैं। कहीं मेरा पुत्र भी बुरी संगत में न पड़ जाय!’’

कई बार वे मुझ से यह आशंका प्रकर कट चुके हैं। उसे अपने साथ रखते हैं। उसके मित्रों को मिलने जुलने नहीं देते। इस प्रकार के व्यवहार से बच्चे में उनके प्रति अविश्वास उत्पन्न होने लगा है। अब वह चुपचाप उनसे कतराने लगा है।

इन महाशय की चिंता का एक मात्र कारण मन में बसा हुआ मिथ्या भय है। बच्चे को अच्छा वातावरण, सहानुभूति, प्रेम और सही दिशाओं में प्रोत्साहन देने से बच्चा स्वयं ठीक मार्गों में विकसित हो सकता है।

भला सोचकर देखिये असंख्य बच्चे स्वयं अपने जन्मजात सद्गुणों के कारण सही दिशाओं में विकसित हो रहे हैं तो फिर आपका लड़का ही क्यों बुरे रास्ते पर जायगा? उसे अनुचित रूप से बन्धन में नहीं रखना चाहिए।

कितने ही दीन-हीन गरीबों के बच्चे बिना दूसरों की सहायता के स्वयं ही शिक्षित हो कर बढ़े हैं। आपको भी ऐसी ही आशा रखना और प्रेमपूर्वक उसी के लिए प्रयत्न करना चाहिए।

चिन्ता भय की विकृत दिशा का नाम है। इसके रूप कई हैं असंख्य हैं। बच्चों के लिए सावधानी की तो आवश्यकता समझ में आती है, किन्तु चिन्ता करते रहना बिल्कुल अनुचित है। ऐसी अधिक चिन्ता से किसी भी बच्चे के स्वाभिमान पर चोट पहुंचने की आशंका बनी रहती है।

अपने मैत्री सम्बन्धों के विषय में चिन्तित — ‘डा. मित्तल की बहन का विवाह है। उनका हमारे ऊपर बड़ा एहसान है। अनेक बार उन्होंने बिना फीस के चिकित्सा की है। किसी मौके पर उस एहसान का बदला देना ही चाहिए। अन्यथा हमारे मैत्री सम्बन्धों में अन्तर आ जायेगा।’’

ऐसा कह कर वे मुझ से पूछने लगे, ‘‘मुझे यही चिन्ता है कि किस शक्ल में उपहार दिया जाय? उपहार ऐसा हो, जिससे उनके एहसान का बोझ भी हल्का हो, और नवीनता भी हो, जिसे वे आसानी से भूलें भी नहीं।’’

मैंने कहा, ‘‘यह तो ठीक है कि आपके डॉक्टर साहब की बहन के विवाह के अवसर पर उपहार देना है पर चिन्ता करने से क्या बनेगा? हम और आप मिलकर सोचें कि किस तरीके से एहसान का बदला उतारा जाय।’’

फिर हम तरह-तरह की सौगातों के विषय में विचारने लगे। साड़ी, बिजली का सामान, नए-नए सुन्दर उपहार, आभूषणों के सुझाव पेश किए गए। उन्हें कोई पसन्द ही न आता था। वे अपने मैत्री सम्बन्धों को दृढ़ बनाये रखने के लिए निरन्तर चिन्ता का अनुभव कर रहे थे। उनका मन घबरा रहा था। वे अन्दर ही अन्दर डर रहे थे कि कहीं डॉक्टर महोदय बुरा न मान जायें। चिन्ता की गुप्त अनुभूति अस्पष्ट-सी उनके ललाट पर उभरी हुई थी। मैं हैरान था कि कौन सा उपहार ऐसा हो सकता है, जो उनके मैत्री सम्बन्धों को सुदृढ़ रख सकता था?

संयोग से पास रखा था अखबार। उसमें नजर पड़ी इनामी बौंड के विज्ञान। मैंने कहा, ‘‘नया विचार है। क्यों न आप पचास रुपये के इनामी बौंड कन्या को उपहार स्वरूप दें। देश की सेवा भी हैं, और यदि इनाम निकल आये, तो यह उपहार सर्वश्रेष्ठ रहेगा। पांच साल तक जब तक न भुनेगा, तब तक आपकी स्मृति जगी रहेगी।’’

उन्हें सुझाव उत्तम लगा। चिन्ता का बुखार दूर हुआ। दुःख दर्द का बादल हट गया और आशा की नई किरणें जगमगा उठीं! अब उनके मुंह पर जैसे फूल खिल रहे थे। बोले, ‘‘यार, सुझाव तो बावन तोले पाव रत्ती का है।’’

इनामी बौंड का उपहार सर्वश्रेष्ठ रहा!

आपने मैत्री सम्बन्धों में चिन्तित रहने के बजाय, कोई मनोरंजन और दिलचस्प तरीका सोचिये जिससे मैत्री संबन्ध बने रहें। मित्रों की समस्याओं और उनके उत्सवों में सच्ची दिलचस्पी लीजिए, उनका सदा मुस्कराहट से स्वागत कीजिए। समय-समय पर उनकी प्रशंसा कीजिए। वे आपकी प्रशंसा के भूखे हैं। आपकी नजरों में सदा ऊंचा रहना चाहते हैं। वे आपको सहानुभूतिपूर्ण श्रोता चाहते हैं जिसे अपने दिल की बातें सुनाकर वे मन को हलका कर सकें। आप जब उनसे मिलें, तो अपनी कहने के स्थान पर उन्हें अपनी बातचीत करने को प्रोत्साहित कीजिए और फिर देर तक उनकी बातें सुनिये। ऊबने का भाव न प्रकट कीजिए। आप कदापि उनसे भूल कर भी यह मत कहिए कि उनका ज्ञान छिछला है या वे गलत कह रहे हैं, या आप उनके दृष्टिकोण से सहमत नहीं हैं।

अपने रिश्तेदारों के बारे में चिन्तित — श्री अविनाशचन्द्र की चिन्ता उनके सगे सम्बन्धियों और रिश्तेदारों के विषय में है। आज एक आ रहा है, तो कल दूसरा जा रहा है। तीसरे के घर में विवाह है, तो चौथे के पुत्री उत्पन्न हुई है। कोई कर्ज मांग रहा है, तो कोई अपनी कन्या का विवाह सम्बन्ध पक्का कराने का आग्रह कर रहा है। जितने सम्बन्धी हैं, सभी किसी न किसी रूप से सहायता या सेवा चाहते हैं। इन रिश्तेदारों में देन-लेन सम्बन्धी सर्वाधिक जटिलताएं हैं। कोई महीना ऐसा नहीं आता जिसमें 15-20 रुपये चाय पानी में व्यय न हो जायं। दो चार बुलावों में वे जा भी नहीं पाते।

नतीजा यह है कि उनका कोई न कोई रिश्तेदार उनसे अप्रसन्न या असन्तुष्ट रहता है। वे उनकी अच्छी बुरी मांगें पूर्ण नहीं कर पाते। सब को पत्र तक नहीं लिख पाते। उनके कुछ रिश्तेदार उनसे असंतुष्ट रहते हैं। यही उनकी चिन्ता का विषय है।

वे कहा करते हैं, ‘‘मैंने आजन्म अपने रिश्तेदारों को खुश करने का भरसक प्रयत्न किया है और मैं इसमें फेल ही रहा हूं। उन्होंने कभी मेरा एहसान नहीं माना है।’’

संभव है यह आपकी चिन्ता का भी विषय हो।

हमारा सुझाव है कि आप यह चिन्ता तुरन्त छोड़ दीजिए। रिश्तेदार सदा पृथक ही रहते हैं। उनसे आपका सम्बन्ध दूर का ही होता है। किन्तु वास्तव में वे आपसे कभी न कभी अलग होने वाले हैं। आप और उन सबकी जिन्दगी की पंक्तियां अलग-अलग हैं। भविष्य में वे बिखर कर दूर-दूर हो जायेंगे। केवल कभी चिट्ठी पुत्री के द्वारा आप उससे बातचीत किया करेंगे। वे आप से जितना दूर रहेंगे, पारस्परिक सम्बन्ध उतने ही सुधरते जायेंगे।

कोई आप से कड़ी बात कह देता है और आप भावुकतावश उसे सही मान बैठते हैं। यह भी एक कमजोरी है। समाज में सैकड़ों प्रकार के नागरिक हैं, उनके उग्र, कटु, उत्तेजक, निन्दापूर्ण स्वभाव हैं। वे सब ही अपने आप को बढ़-चढ़ कर समझते हैं। संसार भिन्न-भिन्न तत्त्वों से बना है। अच्छा यही है कि हम बरदाश्त करने का अभ्यास करें और ऐसे व्यक्तियों की उपेक्षा ही करते रहें। आप अपना काम करें और इन्हें छोड़ दें।

हर रिश्तेदार कभी भी पूर्ण रूप से आपसे असंतुष्ट नहीं रहेगा। आपका भाई, बहिन, माता, पिता, चाचा, माता, मित्र कोई न कोई हर दम नाराज रहेगा। तो फिर क्या आप उनकी नाराजगी को लेकर अपना जीवन नर्क बना लेंगे? नहीं, कदापि नहीं। जितना संभव है, आप उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करते चलें, आने वालों का यथा संभव स्वागत आव-भगत करें, मित्रों के भेजे हुए पत्रों का उत्तर श्रद्धापूर्वक लिखते रहें, पर इसके बाद चिन्ताओं से मुक्त रहें। व्यर्थ चिंता में फंसे रहने से आप अपना स्वास्थ्य नष्ट कर लेंगे।

प्रो. शुक्ल की सलाह आपके काम की है। वे लिखते हैं, ‘‘चिन्ता से बचने का एक उपाय सभी परिस्थितियों में अपने कर्तव्य को करते जाना है। जो मनुष्य अपने कर्त्तव्य के विषय में सदा सजग बने रहते हैं, उन्हें वे मानसिक दुर्बलताएं नहीं सतातीं, जो चिंता का कारण बनती हैं। ऐसे व्यक्तियों की इच्छा शक्ति अपने आप ही बलवती हो जाती है। कर्तव्यपरायण व्यक्ति अपने वर्तमान के विषय में ही अधिक सोचता है, वह भविष्य के विषय में अधिक नहीं सोचता। जो मनुष्य वर्तमान काल के सम्बन्ध में जितना अधिक सोचता है, वह चिंता से उतना ही मुक्त रहता है।’’

अपने रिश्तेदारों के प्रति कर्तव्य पूर्ण करते रहिए। देर सवेर कभी तो उनसे आपका सम्बन्ध छूटना ही है। फिर यदि अब भी छूटता जाता है, तो यह तो स्वाभाविक नियम ही पूर्ण हो रहा है। सब पृथक होकर समाज के स्वतन्त्र सदस्य बन जायेंगे। फिर चिंता करने से क्या लाभ!

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