चिन्ता छोड़ो—प्रसन्न रहो

तनावपूर्ण जिन्दगी और रोग

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आज के जीवन में तनाव और उत्तेजना का प्रधान हाथ है। खाने, कमाने, विवाह तथा जीवन चलाने के साधन इतने कठिन हो गए हैं कि हम मन ही मन डरते रहते हैं कि कहीं भूखों मरने की स्थिति न आ जाय, व्यापार में हानि न हो जाय अथवा नौकरी न छूट जाय।

हम तनिक-सी बात में चिन्तित हो उठते हैं। जब हमारी अपनी बात पूरी नहीं होती, तो नाराज हो उठते हैं। मार-काट, मानहानि, आत्महत्या, मुकदमेबाजी, हत्याएं, अफसर-मातहत की तनातनी, मालिक और मजदूर का संघर्ष हमारे उत्तेजनापूर्ण जीने के प्रमाण हैं।

हाल ही की बात है कि एक अध्यापक कक्षा में कुर्सी पर बैठ कर पढ़ाते-पढ़ाते ही हृदयरोग से चल बसे। अध्यापकों तथा विद्यार्थियों को उनके शव का दाह संस्कार करना पड़ा। वे सदैव काल्पनिक बीमारियों से परेशान रहा करते थे। घर की अनेक छोटी-बड़ी चिंताएं उन्हें सदा घेरे रहती थीं। यही चिन्ता और भय बढ़कर मानसिक रोग बन गये और अन्त में उनकी मृत्यु के कारण बने।

तनिक-सी बातों से चिढ़, बैर, घृणा और उत्तेजना — आज लोगों की दुष्प्रवृत्ति इतनी रफ्तार से बढ़ी है कि जरा-सा मौका पाते ही वे नाराज हो जाते हैं। उनकी पाशविक वृत्तियां उच्छृंखल हो उठती हैं। दूसरों से असन्तुष्ट होकर उनकी स्थिति नर-शरीर वाले एक पिशाच जैसी हो जाती है।

पशुओं का स्वभाव है—बिना बात नाराज या असन्तुष्ट हो बैठना, सींग से मारना या दांतों से काट लेना।

सांप को चाहे भूल में ही या अनजाने में किसी ने छेड़ दिया हो, पर वह अपने को थोड़ा आघात लगने मात्र से इतना क्रुद्ध और उत्तेजित हो जाता है कि सामने वाले की जान ही लेकर छोड़ता है।

कहते हैं कि सिंह, बाघ, तेंदुआ आदि हिंस्र पशु केवल इतनी-सी बात पर नाराज हो जाते हैं कि हमसे किसी ने आंख ही कैसे मिलाई? नीची आंखें करके भले ही कोई क्यों न निकल जाय, पर सामना करना वे अपमान समझते हैं। इस अपमान की सजा वे मौत ही देते हैं और जहां उन्हें बेइज्जती होती लगती है, सामना करने वाले के टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं।

लोग बताते हैं कि भूत, पलीद, पिशाच और राक्षस भी ऐसे ही असहिष्णु होते हैं। अपने विरुद्ध जरा-सी बात सुनते ही आवेश में भर जाते हैं। उनके पीपल या मरघट के नीचे होकर कोई निकल जाय, तो उसकी जान ही ले डालते हैं।

सर्प, बाघ और भूत-पिशाच मनुष्य-योनि में तो नहीं माने जाते, पर मनुष्यों की शक्ल में भी बहुत से पाये जाते हैं। जिन्होंने अपनी हिंस्र प्रवृत्तियों, अपने क्रोध, उत्तेजना, उन्माद और आवेश को वश में करना नहीं सीखा वह पशु ही तो हैं।

आज कानून उनकी उत्तेजना और आवेश में बाधा डालता है। आज मुकदमेबाजी तेजी से चल रही है और वकीलों का पेशा खूब चमक रहा है। इसका कारण यह है कि लोग अपना बदला निकालने को चिन्तित रहते हैं।

एक मामूली क्लर्क एक दिन मेरे पास आये और पांच सौ रुपया मुझसे उधार मांगा। मैंने पूछा, ‘‘क्या कीजिएगा?’’

वे बोले, ‘‘अजी, घर के सामने वाला पड़ोसी मुझसे लड़ बैठा। कुछ हाथापाई हो गई थी। उसने फौजदारी का मुकदमा दायर कर दिया है। मैंने भी वकील किया है। अभी जीत ही रहा हूं। भला मैं कैसे नीचा देख सकता हूं? मेरी भी इज्जत है। अब देखिये, उन्हें कैसा हराता हूं। बस पांच सौ का खर्चा है। रुपया तो हाथ का मैल है। आता-जाता ही रहता है पर एक बार उसे हराना जरूर है।’’

वे इसी में चिंतित थे। उनकी उत्तेजना और आवेश शान्त नहीं हुए थे। बड़े लोभ, बड़े प्रतिशोध, हत्याएं, लूट और डकैतियां केवल अस्वस्थ मानसिक अवस्था के कारण होती हैं। ये सब मानसिक चिन्ताओं से उत्पन्न होते हैं।

चिन्ताओं से कोई समस्या सुलझती नहीं, वरन् मुकदमे वाले जीत या हार कर भी अपने पीछे सन्ताप, पश्चात्ताप दुःखद और बेबसी की एक लम्बी श्रृंखला छोड़ देते हैं।

इसलिए मानसिक उद्वेगों से बचा जाय। आवेश और उत्तेजना घबराहट और हड़बड़ी, क्रोध और असंतुलन के समय धैर्य और शांति से काम किया जाय। कोई भी प्रतिकूल परिस्थिति ऐसी नहीं है कि उसका हल न निकल सके। आप अपना मानसिक सन्तुलन बनाये रहें और अपनी सूझ समझ, बुद्धि और दूरदर्शिता से काम लें। चिन्ता की दशा में हम जो कुछ करने की स्थिति में होते हैं, वह भी पूरी तरह नहीं कर पाते। मानसिक विक्षोभ आज अगणित लोगों को लुंजपुंज बनाये हुए है। आंशिक रूप से यह आवेश, उन्माद, चिन्ता हम में से अनेकों को चढ़ता रहता है और समय-समय पर हम उसके छोटे बड़े दुष्परिणाम भी भुगतते रहते हैं।

मानसिक मलीनता, शारीरिक अस्वस्थता से भी हानिकारक है। रोगी उतना दुखदायी नहीं, जितना आवेशग्रस्त आततायी। यह कभी भी एक छोटी-सी बात पर भी बड़ा अनर्थ खड़ा कर सकता है। इस प्रकार की मानसिक विकृति से हम बचें, यह नितान्त आवश्यक है। मन की शांति, संतुलन और धैर्य बढ़ावें, इसके लिए हम विवेकशीलता की अभिवृद्धि करें। सहनशीलता, उदारता, धीरज, शिष्टाचार, समय और दूरदर्शिता की दैवी भावनाएं उत्पन्न करें।

निश्चय जानिये आप विवेकपूर्ण दृष्टिकोण से अपनी चिंताओं को जरूर दूर कर सकते हैं। अन्दर के मन पर बाहरी हलचलों का तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए।

समाज में जब तक सहनशील और शांति धारण करने वाले विवेकी पुरुषों का बाहुल्य न होगा, तब तक सुख शांति की आकांक्षा एक कल्पना मात्र ही बनी रहेगी। चिन्तित मनोभूमि सुधारने के लिए ईश्वर में अखण्ड विश्वास, उज्ज्वल भविष्य के प्रति आशा और अपने कर्म पर दृढ़ रहना बहुत जरूरी है।

मनुष्य के भावना स्तर में पैदा हुई संकीर्णता, स्वार्थपरता और दुर्बुद्धि का समाधान कर के उसके स्थान पर उच्च आदर्शवाद के प्रति, मानवता के प्रति उत्तरदायित्व निवाहने के प्रति, धर्म और ईश्वर के प्रति आस्था उत्पन्न की जाय। यह एक ही प्रयत्न विश्व शांति का वास्तविक आधार बन सकता है। हम अपने मन को स्वस्थ और आशावादी रखें।

दुःख की घड़ियों में हंसी की आशा-किरणें — वह व्यक्ति धन्य है, जो सुख का आनन्द लेता है, तो दुःख का भी मधुर मुस्कान से ही स्वागत करता है। यह कार्य कठिन नहीं केवल अभ्यास मात्र की बात है। एक उदाहरण लीजिए—

खुरासान का राजकुमार लड़ाई में चला तो उसके खाने पीने और सुख सुभीते का सामान तीन सौ ऊंटों पर लदा। उसे अपनी विजय का पूरा भरोसा था। उसके पास दुश्मन को हराने के समस्त साधन मौजूद थे।

लेकिन लड़ाई तो एक चांस है। कभी चित्त, तो कभी पट्ट! कभी जीत है, तो कभी हार भी हो सकती है। संयोग से लड़ाई का पासा उलटा पड़ा, और वह खलीफा इस्माइल के कैदी हो गये। बड़ी बेबसी और अप्रत्याशित स्थिति में फंस गये।

पर भूख, नींद और प्यास तो कैदी और राजा किसी का भी साथ नहीं छोड़ती!

अपने रसोइया से राजकुमार ने कहा, ‘अरे भाई, कुछ खाना वाना तो बना! बड़ी भूख लगी है! प्राण ही निकले जा रहे हैं।’’

रसोइया के पास सिर्फ मांस का एक टुकड़ा ही बचा था। उसे ही उसने एक हन्डिया में उबालने रख दिया और किसी शाक-सब्जी की तलाश में चला।

अवसर देखकर एक कुत्ते ने हन्डिया में मुंह डाला, तो कुछ ऐसा हुआ कि वह उसके गले में फंस गई और वह हन्डिया लिए भागा।

यह दृश्य देख कर राजकुमार खिलखिला कर हंस दिया!

खलीफा की ओर से पहरे तैनात एक अफसर ने पूछा—‘‘क्या कारण है कि आप इन दुःखों की घड़ियों में भी इस तरह उन्मुक्त हंसी हंसते हैं?’’

राजकुमार ने कहा, ‘मुझे यह सोच कर हंसी आ रही है कि सुबह जिस सामान के लिए तीन सौ ऊंट जरूरी थे, अब एक कुत्ता ही काफी है।’’

सब लोग राजकुमार के आशावाद पर मुग्ध थे। उनमें से प्रायः सब ही किसी न किसी कारण चिन्तित थे। दुःखों की निविड़ अमावस्या उन्हें घेरे हुए थी, विपत्ति के काले बादल छाये थे, संसार की मारकाट से वे परेशान थे। वे दुनिया के भिन्न-भिन्न मामलों में बुरी तरह जकड़े हुए थे। उन्हें दम मारने का अवकाश न था। प्रातः से सायंकाल तक, यहां तक कि रात्रि में भी वे उसी उधेड़बुन में लगे रहते थे। अन्धकार और दुःखों की गलियों में भटकते हुए चिन्ता और परेशानी की भट्टी में जलते हुए उन आदमियों ने पूछा—

‘‘राजकुमार जी, जिन्दगी से फिक्र और भय दूर करने की क्या तरकीब है? आपके आशावाद का क्या रहस्य है?’’

राजकुमार प्रश्न सुनकर मुस्कराये। फिर बोले—

‘चिन्ता तो सबको रहती है। कुछ ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें चिन्ता पछाड़ देती है लेकिन मैं उन आदमियों में से हूं जो व्यर्थ ही चिन्तित न रह कर उसके कारणों को दूर करने में विश्वास करते हैं। मौजूदा कष्टों को खुशी से सहन करो और उनके कारणों को धीरे-धीरे दूर करो। चिंता के कारणों को युक्ति से दूर करना ही उत्तम है। दूसरी बात है प्रसन्न और विनोदी स्वभाव विकसित करना। संकट और मुसीबत में यह मस्ती खुशमिजाजी बड़ी ही लाभदायक संजीवनी है। परिहास पूर्ण स्वभाव बनाइये, उत्साही मुखमुद्रा में रहा कीजिए। सच मानिये, आप सुख से रह सकेंगे यदि आप मस्त रहना जानते हों, आनन्द उत्साह और आशा को आपने अपने स्वभाव का अंग बना लिया हो, यदि आपका मसखरा स्वभाव है, तो चिन्ताएं कभी भी पास न फटकेंगी। आप अपूर्व शान्ति का अनुभव करेंगे अगर अपने निश्चिंत और निर्द्वन्द्व रहना सीख लिया हो। कल के लिए परेशान होना न सीखा हो।’’

वास्तव में यह सलाह उन्हीं के लिए नहीं, हम सब के लिए बहुमूल्य और अनुकरणीय है।

ऊपर लिखी घटना से यह निष्कर्ष निकलता है कि आज की विषम, कुटिल परिस्थितियों को अधिक से अधिक उत्तमता से समाप्त कर दीजिये।

आज हम जो हैं सो हैं, हम आज की परवाह करें, कल स्वयं अपनी परवाह कर लेगा।

कोई भी व्यक्ति अपने चिंता रूपी बोझ को, चाहे वह कितना ही भारी क्यों न हो, दिन मुंदे तक तो ढो ही सकता है। आपका काम, चाहे वह कितना ही कठिन क्यों न हो, एक दिन तक तो सरलता से किया जा सकता है। फिर आप आज का दिन सुख और प्रसन्नता से काट दीजिए। बस, इतना ही काफी है। कल तक आपके दुःख स्वयं दूर हो जायेंगे।

डेल कार्नेगी ने ऐसी सलाह दी है जो सदा याद रखने और काम में लाने योग्य है—

हमारे आजकल की जिन्दगी के रंग ढंग की सबसे खतरनाक आलोचना यह है कि हमारे अस्पतालों के आधे बिस्तर ऐसे रोगियों से भरे हुए हैं जो चिन्ता और मानसिक बीमारियों के शिकार हैं।

इसका मुख्य कारण यह है कि ज्यादातर लोग बहुत-सी बीती हुई ‘कलों’ और भयावह आने वाली ‘कलों’ के कुचलने वाले बोझ के नीचे दम तोड़ते रहते हैं।

इसका इलाज, जैसे स्टीवन्सन ने कहा है, ‘‘आज में जीवित रहना’’ सीखना है। यह हो सकता है कि आज का काम करने के लिए बीते हुए कल के लिए चिन्ता की जरूरत नहीं है। लेकिन पश्चाताप और भय के भारी बोझ के नीचे दम तोड़ने के बजाय हमें यथार्थ को पहचानना चाहिए और वहीं से हमें निरन्तर आगे बढ़ते जाना चाहिए।

‘आज’ ही वह कल है जिसमें जीवित रहना हमारे लिए संभव है। भविष्य की उद्देश्यहीन चिन्ताओं और बीते हुए जीवन की चिड़चिड़ाहट पैदा करने वाली भूलों को आज के आगे पीछे जोड़कर उसे स्थूल या मानसिक नरक नहीं बना देना चाहिए।

देखिये आपकी पैदल यात्रा कितनी छोटी हो जाती है जब आप मंजिल की पूरी दूरी से अपना ध्यान हटा कर सिर्फ अगले मील के पत्थर के फासले का ही ध्यान रखते हैं।

इसी प्रकार हमें आज की सीमा के भीतर रहने पर ही अपनी पूरी शक्ति लगानी चाहिए। अच्छा भविष्य स्वयं ही तुम्हारी ओर चला आयेगा।

आज हम जो हैं, सो आज हैं। आज तो अच्छी तरह इस मधुर जीवन का आनन्द लूट लें, इस दिन के प्रकाश और मस्त हवा का आनन्द ले लें, कल पता नहीं ये चीज देखने को मिलें, या न मिलें!

परमपिता परमात्मा ने इस सुमनोहर पृथ्वी पर हमें इसलिए भेजा है कि हम जब तक जिये, सदैव खुशमिजाज रहें, मस्त रहें, और आनन्द के अक्षय समुद्र में तैरते रहें।

कल की चिन्ता के लिए न घबराइये। कल जब आयेगा तो अपनी फिक्र खुद ही कर लेगा। रोज-रोज की क्षुद्र चिन्ताओं को लेकर झींकते न रहो। इससे शक्तियों का क्षय होता है और जीवन कम होता जाता है।

दुनिया में उस व्यक्ति के लिये कोई स्थान नहीं है, जो स्वभाव से उदास, खिन्न और निराश रहने या दीखने का आदी है। निराशा और उदासीनता से बढ़कर भयंकर दूसरी घातक मनःस्थिति कोई नहीं है। रोते हुए व्यक्ति के साथ कोई भी नहीं रहना चाहता। चिन्ता की बातें सोच-सोच कर आप कल्पित भयों से अपने मधुर जीवन में कांटे बिछा रहे हैं।

आप अपने जीवन की राहों को तब ही सोचिये, जब आपका मन ठंडा हो, बिलकुल शांत और संतुलित हो—मस्त हो। जब आप शंकित, चिंतित या निराश हों, तो कभी उन पर मत सोचिये। कुछ देर के लिए अपनी समस्त चिंताओं को मन से बिलकुल निकाल दीजिए। यदि आप चिंताओं के लिए अपना मनो मन्दिर बन्द रखेंगे, तो कोई भी कष्ट और पीड़ा स्वयं ही आपकी ओर आने का साहस न करेगी।

नासमझी में की हुई भूलों के लिए आप दुःखी हैं। उन पर आपको काफी पश्चाताप भी हो चुका है। बस यही पश्चाताप काफी है। अब सदा के लिए उसे मन से बाहर फेंक दीजिए और व्यर्थ की चिन्ताओं में न घुलिए। अपने प्रति किये गये दूसरों के दुर्व्यवहारों को याद कर के दिल दुखाते मत रहिये। उधर से मन को हटा कर उत्साह यौवन और आशावादी विचारों पर ही मन को केन्द्रित कीजिए।

गरीबी, महंगाई, पारस्परिक शत्रुता, आर्थिक तंगी इत्यादि के कारण आपकी परेशानी बढ़ती जाती है। घर की जिम्मेदारी कमर तोड़ डालती है। आपका अफसर या घर का मुखिया, बुजुर्ग, पड़ौसी आपको बुरा-बुरा कहते हैं, किसी ने कटु बात कह कर संभव है आपको बुरी तरह चिढ़ाया है। किसी के प्रति आपके हृदय में घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, और दुर्भाव जड़ पकड़ गए हैं। आपका प्रिय व्यक्ति आपको तड़पता छोड़कर मर्मान्तक कर गया है। आपका प्रिय व्यक्ति आपको तड़पता छोड़कर मर्मान्तक कर गया है। आपको वहम हो गया है कि कोई हमारा सत्यानाश करने पर तुला हुआ है। ऐसी स्थिति में आप पूछते हैं कि हम क्या करें?

मस्त रहिये। उन्हें तिरस्कृत कर दीजिए। उधर से चित्त बिल्कुल हटा लीजिए, आंखें फेर लीजिए, मन को बिल्कुल मोड़ लीजिए। ये जहरीले मनोविकार हैं। इन्हें मन से निकाल दीजिए अन्यथा ये सब विष ही विष फैला देंगे।

दुःख की, चिंता की, बीमारी की कटु बातें भुला कर उत्तम स्वास्थ्य की, आनन्द और प्रेम की, हंसी की मीठी-मीठी बातों में मस्त रहिये।

आप हंसते हुए फूलों के साथ हंसिये। ऊषा की मुस्कान में मिसरी घोल दीजिए। संसार में हंसी बिखेरते हुए आगे बढ़िये!

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