हर्मन ओल्ड नामक अंग्रेजी नाट्यकार ने एकांकी नाटक लिखा है जिसका नाम है ‘‘पथ प्रदर्शक’’। इसमें डेविड लिविंग्स्टन के द्वारा अफ्रीका में हब्शियों को गुलामी से मुक्त करने का कथानक है। लिविंग्स्टन के सामने दस वर्ष का लड़का भागता हुआ आता है। वह उसके पांवों पर गिर पड़ता है और अपने स्वामी से रक्षा चाहता है। उसका स्वामी पुर्तगाली दासों का एक व्यापारी है। वह गुलाम लड़के पर तनिक भी दया नहीं करता है। लड़का गुलामी से मुक्त होकर अपने घर जाने का आग्रह करता है, किन्तु गुलामों का व्यापारी उसे ऐसा नहीं करने देता है। स्वतन्त्रता की जिन्दगी बिताने के लिए वह दासत्व से मुक्ति चाहता है। दास व्यापारी गुलाम लड़के को बलपूर्वक ले जाना चाहता है। लिविंग्स्टन व्यापारी को फुसलाने का प्रयत्न करता है कि वह लड़के को आजाद कर दे, पर गुलामों का व्यापारी राजी नहीं होता है। यह देखकर लिविंग्स्टन व्यापारी से लड़के का मूल्य लेने को कहता है। व्यापारी चार बकरियां चाहता है, लेकिन लिविंग्स्टन के पास केवल दो हैं। इस सौदे पर व्यापारी तैयार नहीं होता। विवश होकर गुलाम लड़के को फिर दास व्यापारी के साथ जाना पड़ता है। व्यापारी लड़के को ठोकर मारता है। लड़का रोता हुआ उसके साथ चला जाता है। इससे लिविंग्स्टन बहुत दुःखी होता है। वह ईश्वर से गुलामों की मुक्ति के लिए प्रार्थना करता है। यहां नाटक समाप्त होता है।
इस नाटक में गुलामों की दशा का वर्णन बड़े मार्मिक रूप में हुआ है। लिविंग्स्टन दास लड़के से पूछता है, ‘‘क्या ये लोग तुम्हें अच्छा खिलाते नहीं हैं कि तुम जल्दी मर जाते हो।’’
लड़का उत्तर देता है—‘‘वे हमें खूब खिलाते हैं। पिलाते हैं। जंजीरों में बांध कर ले जाते हैं। भारी बोझ उठवाते हैं। हमारी कमर बोझ से टूटने लगती है। फिर सुरक्षित स्थान पर पहुंच कर वे हमारी जंजीरें खोल देते हैं, क्योंकि उन्हें भागने का डर नहीं रहता। हम वापिस नहीं जा सकते। वे समझते हैं कि हम सदा के लिए अच्छे दास हो जायेंगे.........फिर भी बहुत से गुलाम मर जाते हैं।
‘‘क्यों मर जाते हैं?’’
‘‘वे भूखे नहीं होते। वे बीमार नहीं होते। वे प्यासे नहीं होते। वे निराशा से मर जाते हैं। उन्हें यह पता रहता है कि वे मर कर ही गुलामी से छूट सकेंगे। उनका जीवन परतन्त्र है। सदा सर्वदा के लिये गुलामी की काली जंजीरों में बंधा हुआ है। उनका भविष्य निराशा से भरा है। उसमें अन्धकार ही अन्धकार है।’’
वास्तव में यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है।
मनुष्य खाता-पीता, हंसता-खेलता, जीता-जागता केवल निराशा नामक महा पिशाच के द्वारा भक्षण किया जा सकता है।
जब अणु-अणु और रोम-रोम में नाउम्मीदी हो, सुख आनन्द या शान्ति की आशा न हो, तो शोक, ग्लानि, दुःख, चिंता, मोह, अविश्वास, उद्वेग, मानसिक कष्ट, भय और क्रोध आदि मनोविकारों से मनुष्य मर जाता है। विकारों से ऐसा जहर पैदा होता है जो धीरे-धीरे उसकी प्राणशक्ति को क्षीण कर देता है।
जिस मनुष्य का आत्मविश्वास हिल गया है, उसे राग-द्वेष, चिंता, भय आदि राक्षसी विकार खा डालते हैं।
क्या दूसरों के सामने रोजी और बेकारी की समस्याएं नहीं हैं? क्या बच्चों के विवाह की समस्याओं से दूसरे मुक्त हैं? क्या और विद्यार्थी परीक्षाओं में फेल नहीं होते?
मुसीबतें सब पर आती हैं, पर सब लोग धैर्यपूर्वक उनका हल निकालते हैं। यदि जिन्दगी है, तो सब कुछ है। जिन्दगी ईश्वर की दी हुई बहुमूल्य धरोहर है। अपनी हत्या करने का आपको कोई अधिकार नहीं है। आपको जन्म देने वाला कोई और है, तो वह जब चाहेगा, जिन्दगी वापस ले लेगा।
जीवन की रक्षा और उत्तरोत्तर उन्नति के लिए आखरी दम तक प्रयत्न कीजिये।
मुसीबतों से हार मत मानिये। दूसरों से सलाह लीजिये। नई-नई जीवनोपयोगी पुस्तकें बढ़ने की आदत डालिये क्योंकि अनेक समस्याओं का हल आपको उनमें प्राप्त हो जायगा।
निराशा नाम की मानसिक बीमारी को कदापि पास न फटकने दीजिए। इसने सैकड़ों को खा डाला है। अतः इस से सदा ही बड़े सावधान रहिये।
मन में नैराश्य भाव रखने से सैकड़ों चिन्ताएं जन्म लेती हैं। जब मन नैराश्य की कालिमा से काला पड़ जाता है, तो वह वातावरण से चिन्ताएं ही खींचता है।
निराशा मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु ईश्वर का अभिशाप है। आपकी शारीरिक और मानसिक शक्तियों को समूल नष्ट करने वाली है। इस अवसरों पर जिन व्यक्तियों में धैर्य और आत्म-विश्वास की कमी हुई, उनके पथभ्रष्ट होने में किंचित देर नहीं लगती।
निराशा का मूल कारण है आत्मविश्वास की कमी। अपने ऊपर जिन्हें प्रत्येक क्षण अविश्वास बना रहता है, वे पूरे मन से लगकर अपना काम नहीं कर पाते। अधूरे प्रयासों से असफलता और चिन्ताओं का जन्म होता है।
इसके विपरीत छोटी-छोटी सफलताएं मनुष्य के विश्वास को मजबूत करती हैं। उतने ही अंशों में निराशा और चिंता का अन्त होता है।
कई बार मनुष्य अपनी बौद्धिक, आर्थिक और शारीरिक क्षमता से बड़ा काम हाथ में ले लेता है तो जटिल काम की वजह से वह जल्दी सफल नहीं हो पाता। समय और सामर्थ्य की कमी प्रायः आगे बढ़ने से रोकती है। तब भी निराशा का उदय होता।
सफलता के लिए रुचि, लगन, परिश्रम और स्थान की अनुकूलता भी होनी चाहिए। यदि ये गुण न हुए तो चिन्ता बनी रहती है। इसलिए ऊंची स्थिति प्राप्त करने के लिए पहले इन्हीं गुणों की अभिवृद्धि करनी चाहिए।
यदि दुर्भाग्य से आप निराशा से मुक्ति नहीं पा रहे हैं, तो उसे मन में ही मत डाले रहिये। मरी हुई इच्छाओं को सदा के लिए उखाड़ फेंकिये। उनका मन में नाम निशान तक मत रहने दीजिये। मन ही मन घुलते रहने से व्यर्थ ही आपके स्वास्थ्य और यौवन का नाश होगा। मानसिक शक्तियां क्षीण होंगी। आप ऐसी छोटी असफलताओं से मत घबराइये।
अपने दुःख को दूसरों पर प्रकट कीजिए। वे अपनी सहानुभूति देंगे। आपकी पीड़ा बंट जायगी। मन हलका हो जायगा और आगे के लिए नई सूझ उत्पन्न होगी। कैसी भी कष्टदायक बात क्यों न हो, उसे मन में छिपा कर रखना खतरनाक है। जहां तक हो सके, अपने परिजनों और मित्रों में व्यक्त कर देने से आपकी आधी चिन्ता दूर हो जायगी। शेष के लिए भी कोई हल निकल ही आयेगा।
विचारों को मूर्त रूप दीजिये — अपने विचारों को कार्य रूप में परिणत न करने से भी चिन्ता पैदा होती है। प्रसिद्ध दार्शनिक गोथे ने लिखा है—‘‘क्रिया में परिणत न होने वाले विचार रोग बन जाते हैं।’’
इसी प्रकार डॉक्टर हेनरी ने भी ऐसे ही विचार व्यक्त किए हैं। वे लिखते हैं—
‘‘मस्तिष्क जब अपने ही व्यूह में द्रुतगति से चक्कर लगाने लगता है और शारीरिक अवयवों को गति नहीं दे पाता, तभी निराशा उत्पन्न होती है।’’
अतएव यह सुनिश्चित है कि अपने विचारों, अपनी इच्छाओं की पूरी तरह कार्यों में अभिव्यक्त होना चाहिए। यदि ऐसा न हुआ, तो अन्तःकरण में घोर अशान्ति छाई रहेगी।
अपनी कठिनाइयों को समस्या का रूप मत दीजिए। परिस्थितियों के अनुसार अच्छे बुरे सभी तरह के परिणाम भुगतने के लिए अपना दिल और दिमाग मजबूत रखिए। दिन में सोलह घन्टे अपने ऊंचे उद्देश्य की पूर्ति में लगे रहिये। न व्यर्थ गंवाने, अहितकर चिन्ता के लिए समय ही मिलेगा, न आयेगी चिन्ता या निराशा। इसी तरह उन बातों की कामना करना भी छोड़ दीजिये, जो आपके वश की बात नहीं है। जो कुछ मिलता है, उसी में तृप्ति और संतोष करने का अभ्यास कीजिये। संघर्ष के क्षणों में कदापि हार मत मानिये।