एक बार एक वजनदार आदमी मुझ से अपने पुत्र के कॉलेज के विज्ञान विभाग में दाखिले के लिए आये। लड़का पढ़ने में कमजोर रहा था और पूरक परीक्षा देकर बी.एस.सी. में पास हुआ था। कॉलेज के नियमानुसार सेकिण्ड डिवीजन वाले ही एम.एस.सी. कक्षा में प्रवेश पा सकते थे।
उन्होंने कहा, ‘‘अजी, यह मेरा पुत्र है। उसके लिए कायदे कानून कुछ ढीले करवाइयेगा। सब यों ही चलता है। अपने आखिर अपने ही होते हैं। आप लोगों के हाथ में सब कुछ रहता है। कोशिश करें, तो भला आप क्या नहीं कर सकते। मुझे विश्वास है आप जैसा प्रभावशाली व्यक्ति कोशिश करेगा, तो जरूर दाखिला हो जायगा।’’
मैं जानता था सरकारी नियमों की अवहेलना नहीं हो सकती। दाखिला स्पष्टतः विद्यार्थी की योग्यता के अनुसार होता है। चुनाव ताश के खुले पत्तों के अनुसार सब के सामने खुला रहता है। मेरी कमजोरी यह रही कि मैं उन मित्र से स्पष्ट शब्दों में यह न कह सका कि ‘‘दाखिला नहीं हो सकेगा।’’
मैंने भरपूर कोशिश की, पर कोई भी अपने ऊपर गलत चुनाव का अपराध नहीं लेना चाहता था, मैं जिसके पास गया, वे भी आज कल करते रहे। अन्त में दाखिला न हो सका।
उस समय साफ-साफ ‘‘नहीं’’ न कहने के कारण मेरा एक सप्ताह चिन्ता में व्यतीत हुआ। मैं मन ही मन सोचता रहा था कि किस प्रकार अच्छे बुरे तरीके से दाखिला जरूर करना चाहिए। चिन्ता में डूबे रह कर मैं दुबला हो गया। व्यर्थ का भार मैंने अपने ऊपर ले लिया था। यही मेरी मूर्खता रही।
मुझे साफ-साफ उनसे कहना था कि यह मेरे वश की बात नहीं है और में सरकारी नियमों की अवहेलना कर उनके सुपुत्र (अथवा कुपुत्र) का दाखिला नहीं कर सकता। स्पष्टोक्ति कटु थी, पर थी गुणकारी!
यह बात उन्हें उस समय जरूर बुरी मालूम होती, किन्तु मैं एक सप्ताह की व्यर्थ की चिन्ता से मुक्त रह सकता था।
एक बार की बात है—
मैं कर्ज न देता हूं, न लेता हूं। दूसरे शब्दों में शेक्सपीयर की उस उक्ति को अक्षरशः पालन करता हूं जिसमें कहां गया है कि प्रसन्न रहने का अचूक नुस्खा यह है कि न आप किसी से कर्ज लें, न किसी को अपना रुपया उधार दें। क्योंकि ये दोनों ही बुरे हैं।
जब मित्र बार-बार आग्रह करने लगे, तो मुझे कुछ लज्जा आ गई। मैं तरह-तरह के बहाने बना कर टालमटोल करता रहा। साफ साफ न कह सका कि मैं कर्ज न दे सकूंगा। यह मेरे नियम के विरुद्ध है। मैं कर्ज लेता देता नहीं।
वे बोले, ‘‘अच्छा, आप स्वयं नहीं, तो अपनी जमानत पर ही मुझे कहीं से ऋण दिला दीजिये।’’
मैं बोला, ‘‘मुझे पता नहीं कौन कर्ज देता है। मेरी जमानत कौन मानेगा?’’
वे बोले, ‘‘मैं कई स्थानों से पूछ आया हूं। आपकी साख अच्छी है। आप बड़े आदमी हैं। कोई भी आपकी जमानत पर कर्ज दे देगा। यह लीजिये में कागजात तैयार करा कर लाया हूं। बस आप यहां हस्ताक्षर कर दीजिए।’’
ऐसा कहते-कहते उन्होंने अपना फाउन्टेन पेन निकाला और मेरे हाथ में पकड़ा दिया। मेरा मन पशोपेश में था। विवेक बुद्धि कहती थी कि ‘‘नहीं’’ कह दूं। क्षमा मांग लूं। साफ इंकार कर दूं।’’
लोकलाज जीभ रोकती थी ‘‘ये शरीफ आदमी मन ही मन क्या कहेंगे। मेरी कठोरता और अशिष्टता पर गालियां देंगे। मनहूस कह कर पुकारेंगे।’’
बस मैंने हस्ताक्षर कर दिये और मेरी जमानत पर मित्र को उसी दिन हजार का ऋण मिल गया, वे मेरी सहायता पर बधाई देने आये।
उधर मेरा मन चिन्ता से व्यग्र हो उठा। मैं सोचने लगा—‘‘यदि यह व्यक्ति ऋण न दे सका, तो व्यर्थ ही मुझे वह रुपया देना पड़ेगा। बार-बार उससे तकाजा करना होगा। कोर्ट भी भागे-भागे फिरना पड़ेगा। वकीलों की फीस देनी होगी। कहां से गवाह लाऊंगा। किस-किस की खुशामदें मिन्नतें करता फिरूंगा।’’
इसी प्रकार की सैकड़ों बातें सोच-सोच कर मैं कई महीने चिंता में घुलता रहा। उन मित्र से कई बार प्रार्थनाएं कीं। बड़ी कठिनता से ऋण को उतार पाये। मैं सोचता हूं यदि पहली बार ही मैं उन महोदय से क्षमा प्रार्थना कर मन को कड़ा कर लेता, तो कितनी मुसीबत से बच जाता।
मुझे दृढ़तापूर्वक नम्रता से कहना चाहिए था, ‘‘यह नहीं हो सकेगा। आपकी सहायता न करने के लिए क्षमा करें। मैं लेन देन में तनिक भी विश्वास नहीं करता। गुस्ताखी के लिए माफी चाहता हूं।’’
इस साफ-साफ कहने से संभव है मेरे मित्र नाराज हो जाते पर मैं भविष्य की चिंता से स्पष्ट बच जाता और मेरा स्वास्थ्य ठीक रहता।
तब से मैंने यह सीखा है कि ‘‘नहीं’’ कहने में व्यर्थ की शर्म नहीं करनी चाहिए। एक स्पष्ट ‘‘नहीं’’ भविष्य की सैकड़ों चिंताओं से मुक्त रहती है।
आप भी नम्रतापूर्वक ‘‘नहीं’’ शब्द का प्रयोग किया करें।