चिन्ता छोड़ो—प्रसन्न रहो

हमने चिंता को इस प्रकार दूर किया

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परीक्षा सम्बन्धी चिन्ताएं — मेरे पिताजी का एक संस्मरण मार्गदर्शक है, तो दिशा बोधक भी। हमारी चिन्ता का आधार प्रायः कितना छोटा और व्यर्थ का थोथा होता है, यह इससे स्पष्ट हो जाता है। आपकी चिन्ताएं भी ऐसी ही निराधार और कल्पित हो सकती हैं।

बात उन दिनों की है जब वे अध्यात्म विषय लेकर एम.ए. (फाइनल) की परीक्षा दे कर आये थे। परीक्षा में फेल होने की चिंता उन पर सवार हो गई थी। घटना उन्हीं के शब्दों में सुनिये—

‘‘जब मैं परीक्षा भवन से बाहर निकला, तो मेरे एक सहपाठी ने मुझ से पूछा, कहिए, आपने कितने प्रश्न किए हैं? पर्चा कैसा रहा?’’

‘‘प्रश्न तो सब ही किए हैं। पर्चा ज्यादा अच्छा नहीं हुआ है।’’

‘‘कुल कितने पृष्ठ भरे हैं आपने?’’

‘‘यही कोई दस बारह पृष्ठ होंगे! गिने नहीं।’’

‘‘छै प्रश्नों में आपने कुल 10-12 पृष्ठ ही भरे हैं अर्थात् प्रत्येक प्रश्न में लगभग दो ही पृष्ठ लिखे हैं। यह तो बहुत कम लिखा है। मैंने तो कुल मिलाकर छत्तीस सफे लिखे हैं। हर सवाल में छै-छै पृष्ठ लिखे हैं। पूरी उत्तर पुस्तक भरी-भरी दीखती थी। परीक्षक एक-एक सफे को पढ़ेगा, तो भी आधा घण्टा तो उन उत्तरों को पढ़ने में लग जायगा। जो कुछ भी कह सकता था, सब कुछ कह डाला है। ‘‘पंडित सोई जो गाल बजावा’’ वाली युक्ति को मानता हूं।’’

मैंने यह सुना तो मन एक गुप्त भय से परिपूर्ण हो उठा। मैंने इतना कम लिखा है। प्रत्येक प्रश्न के उत्तर डेढ़ दो पृष्ठ ही भरे हैं। मुझे अंग्रेज कवि पोप का वह कथन याद आया ‘शब्द पत्तों के समान हैं। जहां यह बहुतायत से रहते हैं, वहां फलयुक्त ज्ञान की बातें मुश्किल से मिलती हैं।’ फिर मुझे जान नील के ये शब्द स्मरण हो आये कि, ‘जो कुछ तुम्हें कहना या लिखना हो, उसे थोड़े ही में कहो या लिखो।’’ बटलर ने तो यहां तक कहा था कि ‘चाहे हमारी बात कोई समझे या न समझे, संक्षेप में कहना ही अच्छा है। ‘‘मैं इन सब उक्तियों को एक-एक याद करता रहा पर मन में डर बैठ गया। मैं सोचता था कि मेरा इस परीक्षा में उत्तीर्ण होना किसी प्रकार संभव नहीं है। मैंने बहुत कम लिखा है! बुरा किया!

प्रतीक्षा के वे दिन चिन्ता के भार से बुरी तरह भर गये। दिन रात सोचता रहता कि इतना कम लिखने से क्या पास हो जाऊंगा? मेरे मित्रों ने 30-30 सफे लिखे हैं। इनके मुकाबले में मैं क्या ठहरूंगा। चिंता के मारे रात को नींद न आती थी, और दिन में भी चैन नहीं था। मेरा शरीर छीजता गया। भूख भी मर गई। अब मैं प्रति दिन उत्सुकतापूर्वक परीक्षा फल की बाट देख रहा था।

धीरे-धीरे परीक्षाफल आया। वह दिन मेरे लिए संकट का था। सुबह से ही मैं अखबार में नतीजा देखने स्टेशन पहुंच चुका था।

जब परीक्षा-फल आया, तो मैं उत्तीर्ण था। जब मित्र का परीक्षा-फल देखा, तो वे फेल थे। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ!

लेकिन सबसे अधिक तरस मुझे अपनी मूर्खता पर आया कि मैं व्यर्थ ही डेढ़ महीना चिंता में घुलता रहा। भय की भावना को व्यर्थ ही मन में छिपाये रहा। इस क्रिया ने मेरी शारीरिक और मानसिक शक्ति का ह्रास किया और अनिद्रा रोग पैदा किया। मैंने उन दिनों यह अनुभव किया कि इस जमी हुई चिंता ने मेरे मस्तिष्क को इतना कमजोर बना दिया था कि मैंने किसी भी रचनात्मक नए काम को करने में अपने को असमर्थ पाया।

मैं बार-बार सोचा करता हूं कि दिन भर में हम कमजोर मन के कारण कितने व्यर्थ के भय गुप्त मन में लिये फिरते हैं। ये चिंताएं फिजूल ही होती हैं और जिन बातों के लिए हम डरते रहते हैं, वे जिंदगी में आती ही नहीं।

आप स्वयं अपने अनुभवों की गठरी खोलिये, तो पाइयेगा कि आपकी अधिकांश चिंताएं कल्पना-मात्र की चीजें हैं।

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हमारे एक विद्यार्थी हैं श्री कैलाशचन्द्र गुप्त। गत वर्ष संयोग से फेल हो गए। तब से उनके मन में भारी चिंता बैठ गई। दुबारा नए साल फिर अध्ययन क्रम शुरू किया, पर अपनी शक्तियों के प्रति अविश्वास उनके मन में भरा ही रहा। उनका दिमाग बहुत कुशाग्र है। काफी परिश्रमी भी हैं। पर पर्याप्त श्रम करने पर भी उन्हें अपनी प्रगति के विषय में चिन्ता बनी ही रही।

हमने बहुत परिश्रम से उनकी सहायता की। उन्होंने भी जीतोड़ परिश्रम किया। खूब मनोयोग से अध्ययन जारी रखा। फिर भी उनकी चिन्ता परीक्षा के समय अत्यन्त उग्र हो उठी। वे बार-बार कहते, ‘‘पता अब क्या होगा? इस बार न जाने कैसे प्रश्नपत्र आयेंगे? हम उनका उत्तर दे पायेंगे या नहीं?’’

हमने बार-बार उनका ढाढ़स बंधाया, पर वे न माने। परीक्षा में जाने के समय वे घबरा रहे थे, जैसे कसाई के सामने जाने से बकरा घबराता है!

जब पर्चा करके निकले तो दौड़े-दौड़े मेरे पास आये बोले, ‘मैंने सब प्रश्नों के ठीक-ठीक उत्तर लिख दिये हैं। कोई नहीं छूटा है, न गलत ही हुआ है। आपके बतलाये हुए प्रायः सब ही सवाल परीक्षा में आ गए हैं। मुझे यह कहते हुए लज्जा है कि मैं यों ही कल्पना में चिंतित था। मिथ्या डर के कारण मुझे परीक्षा पहाड़ जैसी दीखती थी, पर वह तो जैसे कागज का भूत ही था। मैं यों ही भयभीत हो रहा था। अब मुझे पढ़ाई की चिंता दूर हो गई है।’’ अन्त में वे पास ही हो गए।

इस प्रकार मनुष्य जिन बातों की व्यर्थ ही फिक्र करता है, वे प्रायः जीवन में आती ही नहीं हैं। व्यर्थ की चिंता की कुत्सित कल्पना में हम घुल-घुल कर मौत को पास खेंचते हैं। भय का कल्पित भूत हमारा स्वास्थ्य आशा और उत्साह नष्ट कर डालता है। गलती हमारी है।

तंदुरुस्ती के विषय में चिन्ताएं — हमारे एक मित्र हैं जिन्हें दवाओं के सूचीपत्र देखने और ताकत की दवाइयां प्रयोग में लाने का शौक है। जब देखिये तब ही उन के हाथ में कोई चिकित्सा संबंधी पुस्तक, या दवाइयों का विज्ञापन मिलेगा।

एक दिन बदहवास हमारे पास आये, बोले, ‘‘डॉक्टर साहब, हमें तो भूख नहीं लगती। भोजन सामने आता है, कुछ अच्छा ही नहीं लगता। कौर मुंह में डालने को तबियत ही नहीं चाहता। कहीं पेचिश, अपच या जलोदर न हो जाय।’’ बस वे अनेक रोगों के नाम गिनाने लगे। उन्हें चिन्ता हो गई कि मुझे रोग बढ़ते जा रहे हैं। मनुष्य के बहुत से रोग सोचने मात्र से उत्पन्न होते हैं।

अब उनका दिमाग अपने शरीर में नए-नए रोगों को अनुभव करने लगा। वह जितना ही रोगों से बचना चाहते, मन बार-बार नये रोगों की ओर दौड़ता। रोगों की चिंताएं जितनी बढ़ती गईं, उतना ही शरीर रोगग्रस्त रहने लगा। मन शरीर का संचालन करता है। जब मन ही रोगों की कल्पना से परिपूर्ण था, तो निश्चय ही शारीरिक रोग उत्पन्न होने थे।

जब उसका इलाज हुआ, तो वह चिंता को दूर करके ही किया गया। उनके मन को बार-बार स्वास्थ्य, यौवन, दीर्घ-जीवन और आनन्द को संकेत दिये गये।

आज वे चिन्ता से पूर्ण मुक्त हो चुके हैं और साथ ही उनके समस्त शारीरिक रोग भी खुद ही गायब हो चुके हैं।

जब कभी उनसे चिन्ता सम्बन्ध में बातचीत होती है, तो वे कहते हैं, ‘मैं अब मन को रोगों के भय की कल्पना में नहीं बहकने देता। रोगों का चिंतन ही नहीं करता। यह कभी नहीं सोचा कि भविष्य में क्या संकट आने वाले हैं। मेरे मन में कोई विकारी भाव तूफान नहीं मचा सकते। मेरी रोग मुक्त आत्मा में रोग ठहर ही नहीं सकता।’’

शुभ विचारों में रमण करने से वे चिंता से मुक्त जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

प्रो. लालजीराम शुक्ल ने एक बिगड़े हुए लड़के की चिन्ताओं के विषय इन शब्दों में लिखा है, ‘‘एक विद्वान अपने पुत्र को अपने समान ही बनाना चाहते थे, परन्तु पुत्र में इस प्रकार का सामर्थ्य न था। वह पढ़ाई में कमजोर था इसलिए पढ़ाई उसे बोझ रूप दिखाई देती थी। परीक्षा निकट आई, तो वह अपनी मानसिक परिस्थिति से परेशान होकर भाग निकला। कुछ दिनों बाद वह वापस आया। उसके पिता अब भी उसे पढ़ने में लगाना चाहते थे, पर उसने पढ़ने से अपने मन को हटा लिया था। अब उसकी पढ़ने की चिंता जाती रही।

परन्तु अब उसे भय होने लगा कि कहीं उसे शारीरिक रोग न हो जाय। जिस नगर में वह भाग कर गया था, उसमें चेचक फैली थी। उसे साधारण भय हो गया कि कहीं चेचक न हो जाय।

अतएव वहां से भागकर घर आ गया, परन्तु यहां भी उसे भय हुआ कि कहीं क्षय रोग न हो जाय। अपनी चिंता की मनोवृत्ति को भुलाने के लिए वह सिगरेट पीने लगा। वह बड़ा चरित्रवान लड़का है सिगरेट पीने को वह बुरा मानता है। अतएव वह सिगरेट पीने के लिए अपनी भर्त्सना करने लगा.............फिर उसे भय हुआ है कि कहीं मैं चरित्र के उन सभी दोषों को न पकड़ लूं जिनसे मैं अभी तक अपने आप को बचा रहा हूं। उसने लेखक से कहा कि यदि मैं अपने इच्छित काम में न लग गया, तो चरित्र के सब दोष मुझ में आ जायेंगे।’’
यह अनुभव सिद्ध करता है कि निकम्मे होने पर बाहर की चिंताएं तो बढ़ती जाती हैं, भीतर की चिंताएं भी मनुष्य को परेशान कर देती हैं। इसलिए मनुष्य को सदा कुछ न कुछ करते रहना चाहिए। मन काम में लग कर चिंता को भूल जाता है। खाली रहने पर शैतान की तरह वे उसके इर्द-गिर्द चिपकी रहती हैं।
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