चिन्ता छोड़ो—प्रसन्न रहो

आप कितने भाग्यशाली हैं !

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आप व्यर्थ ही अपने आप को अभागा और दीन-हीन समझ रहे हैं, अपना कम मूल्यांकन कर रहे हैं, अपनी चीजों का काम महत्त्व समझ रहे हैं। वास्तव में इस अवस्था में भी आपके पास बहुत है। आप में गुण हैं, जो दूसरों में नहीं हैं। आप के शारीरिक और मानसिक गुण आपको दूसरों की उपेक्षा ऊंचा उठाते हैं। यही भाग्यशाली होने के चिन्ह हैं।

एक बार हैराल्ड एबोट नामक व्यक्ति की अपनी सम्पूर्ण कमाई नष्ट हो गई और ऋण भी बढ़ गया। उन्होंने अनुमान लगाया कि ऋण दूर करने में उन्हें सात वर्ष चाहिए। वे नई दुकान खोलने के लिए और रुपया कर्ज लेने जा रहे थे। मन आर्थिक चिन्ताओं से भरा हुआ था। वे सोचते थे किस प्रकार ऋण उतरे? गृहस्थी का कार्य फिर कैसे चले? सामाजिक प्रतिष्ठा कैसे कायम रहे?

इन्हीं चिन्ताओं में डूबे हुए वे एक पराजित व्यक्ति के समान चले जा रहे थे कि उन्हें सड़क के किनारे बैठा हुआ एक व्यक्ति मिला, जिसकी टांगें कट चुकी थीं। बेचारा हाथों के सहारे चलता था। उस के शारीरिक कष्टों का आप स्वयं ही अनुमान कर सकते हैं। जो जिन्दगी भर सीधा खड़ा होकर न चल सके, उससे कष्टकर भला क्या होगा?

फिर भी उसने हंसते हुए हैराल्ड एबोट का स्वागत करते हुए कहा, ‘‘नमस्ते, क्या सुहावना प्रभाव है। कहिए आप अच्छे तो हैं?’’

इस व्यक्ति के प्रसन्न जीवन ने, भीषण कठिनाई तथा अंग-भंग में भी प्रसन्न और उल्लसित रहने की आदत ने, उनका जीवन बदल दिया।

‘‘जब यह आदमी विषम परिस्थितियों में भी प्रसन्न रह सकता है, जितने दिन का जीवन मिला है, उसे हंसी खुशी से काट सकता है, तो फिर मैं यह क्यों नहीं कर सकता?

‘‘जब इस व्यक्ति को सुख और आनन्द मिल सकता है, तो मुझे तो इससे और भी अधिक सुख मिल सकता है। क्यों न मैं उन तत्वों को देखूं और सराहूं, जो ईश्वर ने मुझे दिये हैं। इस व्यक्ति की अपेक्षा मेरे पास धन, सम्पदा, सामाजिक स्थिति, बुद्धि सभी कुछ अधिक है, मुसीबतों को अधिक दृढ़ता से सहन कर सकता हूं। इन विचारों ने मेरे जीवन को बदल दिया। इस आत्मविश्वास की भावना ने मेरी चिन्ता को उल्लास में बदल दिया। मैं अपनी उन दैवी सम्पदाओं को देखने लगा जो ईश्वर ने मुझे दी थीं। इस चमत्कारी फार्मूला ने—अनिष्ट का मुकाबला करो—सिद्धांत ने मुझे ऊंचा उठाया। सदा मेरी रक्षा की है।’’

आप व्यर्थ ही चिन्ता कर रहे हैं? क्या आपका उत्तम स्वास्थ्य वह दिव्य दैवी विभूति नहीं है जिस पर आप गर्व कर सकें? इस शरीर का एक-एक अंग इतना कीमती है कि किसी भी मूल्य पर नहीं खरीदा जा सकता। इस शरीर रूपी सम्पदा को ही सम्हालिए।

आपका मकान, वस्त्र और दिखाने की वस्तुएं आपके पास नहीं हैं, तो क्या परवाह है? आपकी आय कम है, तो क्या हुआ! उन गरीबों को देखिये जो रोज मजदूरी करते और पेट पालते हैं। दूसरे दिन फिर मजदूरी के लिए तैयार रहते हैं। लेकिन दूसरे दिन की फिक्र नहीं करते!

चिड़ियों को देखिए जो सिर्फ एक वक्त से अधिक भोजन नहीं खातीं, कभी संचय नहीं करतीं। दो चोंच जल पीकर मस्त रहती हैं पर जिन्दगी का सुख पूरा लेती हैं। ईश्वर ने जो जीवन के दिन दिये हैं उनका पूरा और खरा उपयोग करती हैं। इसलिए अधिक संचय की तृष्णा त्याग दीजिए और जो मौजूद वस्तुएं हैं, उन्हीं में आनन्द लीजिए। आपके बच्चे भी आपकी सहायता करेंगे। इसलिए आर्थिक चिन्ताएं त्याग दीजिए।

हमारे जीवन में नब्बे प्रतिशत बातें आगे चल कर ठीक हमारे सुख-सुविधा, प्रसन्नता और लाभ के लिए होती हैं। केवल दस प्रतिशत ऐसी कठोर बातें होती हैं, जिनके विषय में हमें वास्तव में गंभीरता से सोचने की जरूरत होती है चिन्ता की नहीं। चिन्ता से तो कुछ भी हाथ नहीं आता? हड़बड़ाहट ही पैदा हो जाती है। हमें प्रसन्नता होने के लिए इस बात की जरूरत है कि हम उज्ज्वल पक्ष की इन नब्बे प्रतिशत भाग्यशाली चीजों को ही देखें और उन्हीं पर मन को एकाग्र करें।

अपने विपक्ष की, कष्टों की, पीड़ा की दस प्रतिशत वस्तुओं को त्याग दें। उनके बारे में चिन्तित होकर अपनी शक्तियों का क्षय न करें।

अपने अभाव का, अपनी कमजोरी का, अपने पास जो-जो विलास और दिखावे की वस्तुएं नहीं, उनका चिन्तन करने से हमारी उत्पादक और सृजनात्मक शक्तियां कम होती हैं।

बिगड़ी बात बनाई जाय — प्रत्येक व्यक्ति को जीवन में हानियां हुई हैं। दुःख और तकलीफें उठानी पड़ी हैं। बन्धु बांधव का वियोग सहन करना पड़ा है। सम्बन्ध बिगड़े हैं।

लेकिन उन सबके लिए झींकने, कलपने और सदा आंसू बहाते रहने से अब कोई भी लाभ नहीं है।

हानि पर दुःख, असफलता पर निराशा और बेबसी तो हर कोई व्यक्ति आसानी से प्रकट कर सकता है। रोना, कलपना और कायरता दिखाना तो मामूली सी बातें हैं। ये तो कमजोरी और निर्बलता के चिन्ह हैं।

महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि हानि से अधिकतम लाभ उठाया जाय। अपनी बिगड़ी हुई बात को बनाया जाय, टूटे को सम्हाल कर दुरुस्त किया जाय। रूठे को मनाया जाय और अणु-अणु एकत्रित कर विशृंखलित चीज को सम्पूर्ण बनाया जाय। बिगड़ी को बनाने के लिए बुद्धि, क्षमता, धैर्य और चातुर्य की आवश्यकता है। हानि पर सदा रोना तो कायरता है।

फिर आप क्यों मूर्ख बनें?

क्यों न चिन्ताओं के कारणों को दूर कर उसे आशा, उत्साह और प्रेरणा में परिवर्तित कर लें।

सूर और मिल्टन जैसे विश्वविश्रुत अन्धे लोग महान् कवि हो गये हैं। उन्होंने अपने अन्धेपन का सदा सदुपयोग ही किया था। अंतर की छिपी कवित शक्ति विकसित की थी। इसी से बड़े भारी कवि बन गये थे। वे कभी भी अपनी तकलीफों के लिए नहीं पछताये थे। कभी रोते नहीं थे।

कर्ण और ईसा के वंश ऊंचे न थे। तुलसी और कबीर अज्ञात वंश के थे। फिर भी वे अपनी मौजूदा ताकतों से ही प्रसिद्ध बने।

अष्टावक्र आठ जगह से टेढ़े थे। उनसे ठीक तरह चला फिरा न जाता था। सभी कोई उनके शरीर पर हंसते थे। खिल्लियां उड़ाते थे। इसी प्रकार चाणक्य और सुकरात बड़े बदसूरत थे। इनकी इन कमजोरियों के बावजूद ये लोग निरंतर आगे ही बढ़ते रहे थे। अपनी ईश्वर प्रदत्त योग्यताओं को ही उत्तरोत्तर बढ़ाते रहे थे। इन लोगों का एक ही सिद्धान्त था—

‘‘हम वर्षों में नहीं, कार्यों में जीते हैं। जिसके कार्य ऊंचे हैं, वही सबसे अधिक जीता है।’’

ध्रुव, कृष्ण, बुद्ध इत्यादि महापुरुषों को सम्बन्धियों के प्रेम की कमी थी।  बचपन में कठोर संघर्षों का सामना करना पड़ा था। नेपोलियन और हिटलर को धन और पारिवारिक प्रतिष्ठा की कमी थी। औरंगजेब सबसे छोटा भाई था। उसकी उन्नति के लिए बहुत कम गुंजाइश थी। फिर ये सब चिन्तित न हुए।

उन्होंने कितनी कठिनाइयों और विरोधों के बावजूद अपनी दृढ़ता, आत्मशक्ति एवं सतत उद्योग के द्वारा चिन्ता और नैराश्य भावना को समीप नहीं आने दिया था। वे इस कष्टदायक परिस्थितियों में ही ऊंचे उठे और महान् बने थे।

चिन्ता के स्थान पर हम भी अपना सोया हुआ आत्म–विश्वास जाग्रत करें। गुप्त मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करें। हमारी प्रार्थना बस यही होनी चाहिए—

हतेह्ँह मा मित्रस्य मा चक्षुषा
   सर्वाणि भूतानि समीक्षान्ताम् ।
                   मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे ।।
                                           मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ।                    —यजुर्वेद 36।18


‘‘हे देव! मुझे सुदृढ़ करो। सभी प्राणी मुझे मित्र के समान देखें और मैं भी सभी प्राणियों को मित्र रूप में देखूं।’’

आप साधारण-सी बातों और तिल के बराबर कठिनाइयों से क्यों परेशान हैं? ऊपर जिन व्यक्तियों के उदाहरण दिये गये हैं उन के मुकाबले में आपकी चिन्ता का कारण कुछ भी तो नहीं है। वीर पुरुष की तरह अपनी चिन्ताओं के हल निकालिये। व्यर्थ हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाने से तो कुछ भी लाभ नहीं होगा।

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