चिन्ता छोड़ो—प्रसन्न रहो

दो शब्द

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हमारे देश में एक प्राचीन कहावत है कि ‘‘चिन्ता मनुष्य के लिए चिता से भी बढ़कर है।’’ चिता मृत मानव-देह को एक बार ही भस्म कर देती है, पर चिन्ता मनुष्य को प्रतिदिन चौबीस घण्टे जलाती और सुखाती रहती है। संसार की अनेक सुख-सुविधायें प्राप्त होने पर भी चिन्ता किसी ऐसे अप्रत्यक्ष रूप से हम पर आक्रमण करती है कि हम उसके कारण को भी ठीक तरह नहीं समझ पाते, बस एक अव्यक्त भय और भविष्य की आशंका हमारे ऊपर सवार हो जाती है और हमारे जीवन-रस को चूसने लगती है। अनेक बार चिन्ता का कारण कोई अभाव या किसी आपत्ति का आगमन भी होता है। पर उस दशा में वह चिन्ता निरर्थक होती है और जिस शक्ति और साहस को हम बिगड़ते हुए कामों में सुधारने के लिए प्रयुक्त कर सकते थे, वह इस प्रकार व्यर्थ में ही नष्ट होकर हमारी समस्याओं को और भी गम्भीर बना देते हैं।

आगामी पृष्ठों में चिन्ता उत्पन्न होने के अनेक वास्तविक और काल्पनिक कारणों पर प्रकाश डालते हुए उसे दूर करने के व्यवहारिक उपायों का वर्णन किया गया है। इसमें बतलाया गया है कि जो चिन्ता या आपत्ति हमको अनुभव हो रही है वह कोई नवीन या अनहोनी बात नहीं है और अन्य बहुसंख्यक व्यक्ति अपने मानसिक तनाव या किसी निराधार भ्रम को मिटा कर उससे छुटकारा पा चुके हैं। आप भी इन उदाहरणों और सुझावों से लाभ उठा कर इस अत्यन्त भयजनक पर भीतर से खोखली पिशाचिनी चिन्ता के पंजे से मुक्त हो सकते हैं।
                                                  
                                                                                                                                                         —श्रीराम शर्म आचार्य
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