चिन्ता छोड़ो—प्रसन्न रहो

अकारण आलोचना से चिन्तित न हों

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एक महिला का पत्र इस प्रकार है—

मैं एक असहनीय वेदना से जल-भुन रही हूं। यह चिन्ता मुझे अन्दर ही अन्दर कचोटती जा हरी है। मेरी आत्मा चीत्कार कर रही है।

कुछ महीनों से मैं एक ऐसे संकट में फंस रही हूं कि मेरी आत्मा और गुप्त मन में प्रतिक्षण एक ज्वाला धधकती रहती है। मुझे डर लगता है कि इस असहनीय वेदना को सहन करने में असमर्थ होकर कहीं मैं मानसिक सन्तुलन न खो बैठूं, अथवा आत्म-हनन जैसा भयानक पाप न कर बैठूं।

लेखिका जिनकी आयु 52 वर्ष के लगभग है, अपनी समस्यायें लिखती हैं—

‘लगभग एक वर्ष होने आया कि मेरे देवर के पुत्र की बहू (जो मेरी बहन की पुत्री भी है और जिसे मैं प्राणों से अधिक प्यार करती रही हूं) का तीन हजार रुपये की लागत का जेवर चोरी हो गया। वह रात की गाड़ी पटियाला से मेरठ गई थीं। यहां से जाते हुए उसने अपने ट्रंक को नहीं देखा था। दोपहर को 12 बजे ट्रंक लगाया था। तभी उसमें जेवरों का बक्स छिपा कर रख दिया था। वह तो और कामों में लगी रही, ध्यान नहीं दिया। मेरठ पहुंच कर उसे पता लगा कि उसका जेवर चोरी चला गया। दुर्भाग्य की ठोकर कहिये या बदकिस्मती कहिये, उस लड़की ने इस जेवर की चोरी का इल्जाम मेरे ऊपर लगा दिया। यह बिल्कुल झूठा है। मेरे साथ अन्याय है। सरासर बेसिर पैर का गलत आरोप है। मैं 52-53 वर्ष की स्त्री हूं, जिन्दगी देख चुकी हूं। अच्छा–बुरा, उचित-अनुचित, पाप-पुण्य सब को समझती हूं। मैं इस लड़की को इतना प्यार करती हूं जितना कोई अपने पेट की लड़की को न करती होगी। मैंने अपने हृदय का पवित्रतम निःस्वार्थ स्नेह देकर इसे पाला पोसा और बड़ा किया है।

अब वही लड़की मुझे चोर समझकर घृणा करने लगी है। यही नहीं, सब जगह मुझको चोर बता कर मेरी बदनामी करती है। मैं इस अपमानित और तिरस्कृत जीवन से मौत बेहतर समझती हूं। उफ! मुझे कैसा बुरा लांछन लगा है। मैं क्या करूं? भगवान् तो अन्तर्यामी हैं, न्यायकारी है। फिर वे मेरा न्याय क्यों नहीं करते? मैंने तो अपने जीवन में भूलकर भी कोई ऐसा घृणित काम नहीं किया, जिससे किसी के मन को जरा-सा भी दुःख पहुंचे। मेरी आत्मा कहती है—यह सब अन्याय है, संसार का दुर्व्यवहार एवं कपट है। संसार सही मूल्यांकन क्यों नहीं करता?

पहले मैं ध्यान, पूजन, सद्ग्रन्थों का पठन-पाठन, भजन इत्यादि धार्मिक कार्यों में लगी रहती थी। दो-दो घंटे ध्यान में बैठती थी। सदैव प्रसन्न मुख रहती थी। मन भी शान्त रहता था, लेकिन इस घटना के बाद से मन में ऐसी टक्कर लगी है, ऐसा मानसिक आघात लगा है कि मैं न ध्यान में बैठ सकती हूं, न भजन-पूजन, धर्म-कार्यों में ही मन लगता है, न प्रसन्न रहती हूं। हर समय संसार के अन्याय की अग्नि धधकती रहती है। जेवर तो जिसने चुराया होगा वह वापिस नहीं देगा? मैं कैसे उन लोगों का सन्देह दूर करूं? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता। चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार नजर आता है। कृपया कोई उपाय बताइये?

हमारी आत्मा की आवाज!

यह पत्र एक बहिन की सत्-चित्-आनन्द-स्वरूप, निष्कलुष, आत्मा की आवाज है!

हम जिसे पवित्रतम मानते हैं, जो हमारा उच्चतम लक्ष्य है, उसमें तनिक सी रुकावट पड़ते ही हमारी आत्मा बोलती है।

धर्म की अपनी एक पृथक् शक्ति है। यह शक्ति हमारी अन्तरात्मा से उदित होती है। जब कोई अधार्मिक काम होता है तो आत्मा हमें रोकती है और पवित्र मार्ग दिखाती है। भले कामों के करने में जो आनन्द आता है, जो अन्दर से सन्तोष और तृप्ति मिलती है, वह हमारी आत्मा का ही आनन्द है, आत्मा ही स्थायी देव है।

ऊपर जिस बहिन की समस्या दी गई है, वह एक पवित्र हृदय के उद्गार हैं। सांसारिक जीवन में अनेक ऐसे अवसर आते हैं, जब हमारी आत्मा पर ठेस लगती है। हमारी आत्मा ईश्वर का रूप है। आत्मा निष्पाप है। संसार जब व्यर्थ ही कोई झूठा गन्दा अनैतिक विकार पूर्ण आरोप हम पर लगाता है, तो हमारी आत्मा उसे कदापि स्वीकार नहीं करती है।

जिसका जीवन निष्पाप है, पाप से मुक्त है, जो सज्जन है, दैवी जीवन से मिला-जुला है, जिसकी वृत्तियां शुभ और सात्त्विक हैं, उस पर झूठा कलंक लगने से मानसिक आघात लगना स्वाभाविक है। पर उसे आत्मा में स्थिर होकर धैर्य धारण करना चाहिये।

जो पाप से मुक्त है, वह पाप की बात कैसे सुनेगा! क्यों सुनेगा! भला कैसे उसे सहन करेगा! जिस बहिन ने जेवरों की चोरी नहीं की है, वह क्यों कर कलंक से दुःखी न हो। पर उसे अपने आप को शरीर नहीं, आत्मा मान कर धैर्य धारण करना चाहिए। दृढ़ता से अपना व्यवहार आत्मवत् रखना चाहिये।

अचरज है कि एक निराधार कलंक माता सीता पर भी लगाया गया था, जिसके कारण उन्हें वनवास की कठोर यातनाएं सहन करनी पड़ी थीं।

माता सीता परम पवित्र थीं। उनकी यश कीर्ति फिर भी सूर्य के सामने चमकती रही। अन्त में पुण्य-कर्मों की ही विजय हुई और व्यर्थ का कलंक लगाने पर संसार के अस्थिर और थोथे व्यक्तियों को लज्जित होना पड़ा था।

संसार के अधिकतर व्यक्ति दूषित संस्कारों और पाशविक प्रवृत्तियों के हैं। अविकसित हैं। इसलिए सत्य को ही ग्रहण करना चाहिये और भयंकर विरोध और घृणा के बावजूद उसी पर डटे रहना चाहिये।

महात्मा ईसा को सूली पर लटका दिया गया, उनके हाथों और पांवों में लम्बे कील गाढ़कर टांग दिया था। उनके साथ घोर अन्याय हुआ था। विरोधी लोग उनका संदेश ही नहीं समझ सके थे। कोई साधारण व्यक्ति होता तो क्रोध में गालियां देता, कुवचनों का उच्चारण करता। लेकिन ईसा बोले—

‘हे ईश्वर! इन अज्ञानियों को क्षमा करना। ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं।’

ईसा की आत्मा साफ थी। इसलिये क्रोध के स्थान पर उन्होंने क्षमा से काम लिया था। मरते हुए भी उनके मन में गलती करने वाले भ्रमित मूर्खों के लिए दया और करुणा की ही भावना थी। उन्होंने सब हत्याओं को क्षमा कर दिया।

स्वामी दयानन्द जी को हत्यारों ने कांच पीस कर पिला दिया था। यह एक जघन्य पाप था। कांच का विषैला प्रभाव उनके शरीर में फैलता गया। स्वामी जी के शरीर पर उसके छाले उभर आये थे। उनकी सांस रुक-रुककर चल रही थी। जलन से सारा शरीर जल रहा था। जीवन का अन्त समीप था। उनकी पवित्र आत्मा नश्वर शरीर को छोड़ने की तैयारी में थी, परन्तु स्वामी जी को सत्य न्याय, पुण्य, नीति और सदाचार पर दृढ़ रहने के कारण सुख था। वे चुपचाप आराम से लेटे थे।

एक भक्त ने पूछा—‘स्वामी जी! तबियत कैसी है? आपके साथ तो बड़ा भारी अन्याय हुआ है।’

स्वामीजी ने उत्तर दिया—‘अच्छा है’ प्रकाश की ओर प्रस्थान है।’ वे वेदमन्त्रों का ज्ञान करने लगे। मरते हुए दिव्य-ज्योति की किरणें छोड़ते हुए बोले—

‘हे दयामय! हे सर्वशक्तिमान्! तेरी यही इच्छा है। मैं आत्मा के सुख में प्राण त्याग कर रहा हूं। मैंने सदा अपनी आत्मा के अनुसार ही कार्य किया है। हे परमात्मदेव, अज्ञानियों को क्षमा कीजिये।’

संसार कुछ कहता रहे, आप उसी को मान कर सन्तोष कीजिये जो आपकी आत्मा कहती है। आत्मा द्वारा दिया हुआ मार्ग ही सबसे उत्तम है।

आत्मा की आवाज हमें सब पाप कर्मों से बचाने वाली है। उसी का मार्ग न्यायपूर्ण है। सदाचार सम्पन्न है।

आत्मा में स्थिर होना ही परम तीर्थ है। सब पवित्रताओं में आत्मा की पवित्रता ही मुख्य है। आर्यगण आत्मा के कथनानुसार ही चलते हैं। आत्मा का आचरण ही न्यायपूर्ण आचरण है। यही पूर्ण शास्त्र है।

राजा हरिश्चन्द्र, स्वामी विवेकानन्द, रामतीर्थ, गांधीजी, नेहरू जी इत्यादि ने आत्मा की आवाज के अनुसार ही सदा कार्य किया था। उनके न जाने कितने विरोध हुए होंगे, पर उन्होंने कदापि किसी की परवाह न की, समाज की थोथी और निस्सार आलोचनाओं से कभी परेशान न हुए थे। विरोधों में भी उनका मानसिक संतुलन बना रहा था। आत्मा के आदेश पर टिके रहने से मनुष्य का आध्यात्मिक विकास होता है।

आत्मा के आदेश पर टिके रहने से मनुष्य का आध्यात्मिक विकास होता है।

आज जब अन्धकार में भटक रहे हों, रास्ता नजर न आता हो, संगी साथी कोई सलाह न दे रहे हों, तो आत्मा की आवाज सुनें।

यह आत्मा ईश्वर का रूप है। सही रास्ता दिखाने के लिये सदा आपके साथ है।

पाप कहां है? कोई बात आत्मा में चुभे, वह उसका विरोध करे और तुम उसकी कुछ भी परवाह न करो तो तुम पाप कर रहे हो।

कोई घृणा करे तो कोई परवाह नहीं है। कोई आलोचना करे तो परेशान होने की जरूरत नहीं। बस आत्मा आपके साथ रहे। उस की अवहेलना न हो।

जिसकी आत्मा चुप है, जिन्होंने उसकी आवाज की परवाह नहीं की है, वे ही अभागे हैं।

आत्मा निष्पाप है। आप भी निर्मल हैं। फिर कोई कुछ कहता फिरे आपको क्या प्रयोजन।

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