प्रो. गौड़ साहब की आयु केवल 30-31 वर्ष है, खेलते हैं, मिलिटरी के एन.सी.सी. में भाग लेते हैं, लेकिन शरीर दुबला-पतला है, चेहरे पर निराशा की हलकी-सी छाया है। गाल पिचक गए हैं, नेत्रों में चश्मा चढ़ा हुआ है और आंखें बेहद खिंचाव के कारण भीतर धंसती जा रही हैं। उनका भावहीन चेहरा देखकर दया आये बिना नहीं रहती।
उस दिन बातें हुईं। हमने पूछा, ‘‘मित्र, क्या बात है, गमगीन से क्यों रहते हो? तुम्हारी तो जवानी अभी पूरी तरह शुरू भी नहीं हुई है।’’
गौड़ साहब ने उत्तर दिया, ‘‘बेहद व्यस्त रहता हूं।’’
‘‘आप शायद अपनी बढ़ी हुई जिम्मेदारियों से परेशान हैं?’’
‘‘जिम्मेदारियां! नहीं जिम्मेदारियां तो अधिक नहीं हैं। लेकिन तीन बच्चे हैं, दो पुत्र, एक पुत्री।’’
‘‘तो फिर पत्नी निराश-प्रवृत्ति का मालूम होती है।’’
‘‘अजी नहीं, उसकी वजह से ही तो घर में रौनक रहती है। वह बड़ी खुश-मिजाज है।’’
‘‘तो आप ही कुछ अधिक गम्भीर प्रकृति के हैं।’’
‘‘बस यही समझिये।’’
‘‘क्या आपने इसका कोई कारण खोजा है।’’
‘‘अजी, बात यह है कि मुझे ऐसे लोगों से वास्ता पड़ा है, जो बड़े अकृतज्ञ (यानी नाशुक्रे) रहे हैं। मैंने घर वालों की अनेक बार रुपये पैसे से सहायता की है पर किसी ने आज तक एक शब्द भी मेरी सहायता के विषय में नहीं कहा है। मैं मनुष्य की इस अकृतज्ञता पर बड़ा दुःखी हूं। अब भला, आदमी किस पर विश्वास करे! किसे अपना समझे!’’
‘‘आप आवश्यकता से अधिक भावुक हैं। आप भले से भला काम करते हैं, बढ़िया से बढ़िया फल की आशा रखते हैं, पर लोग आपकी सेवाओं को पूरा मान-सम्मान नहीं देते, तो चिंता और स्नायविक खिंचाव से पीड़ित रहते हैं। प्रायः एकाकी बने रहते हैं। व्यर्थ ही लोगों से प्यार, प्रोत्साहन, और प्रशंसा पाने की इच्छा पूरी न होने से आपकी अच्छी से अच्छी कोशिश बेकार हो जाती है। आपकी काफी शक्ति बेकार नष्ट होती जा रही है।’’
‘‘फिर आपकी क्या सलाह है?’’
‘‘याद रखिये, स्नायु मंडल कर हर वक्त का खिंचाव शरीर को बीमार बना देता है। आदमी की जिन्दगी कम हो जाती है। असमय ही बुढ़ापा आ घेरता है।’’
‘‘कुछ सलाह भी देंगे, या पहेलियां ही बुझाते रहेंगे!’’
‘‘भाई साहब, मेरी सलाह वही है, जो अमेरिका के एक बड़े मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स ने कहा है—वह कहता है दूसरों से प्रशंसा की आशा छोड़ो और यह सारे दिन की भाग-दौड़, यह अति संघर्ष भी कम करो। कम पैसे से ही गुजारा करो। आराम अधिक लो। वर्तमान और भविष्य की चिन्ता और नाड़ियों से खिंचाव से मनुष्य की कार्य-क्षमता निश्चित रूप से घटती है और उसकी तरक्की के रास्ते में रोड़े अटकाती है। आप खुशदिल बनने का अभ्यास करें, हंसमुख और आशावादी बनें।’’
गौड़ साहब को इस सलाह से लाभ हो रहा है। अब वे कुछ अधिक हंसते हैं। चेहरे पर मुस्कराहट स्थायी रखने की कोशिश करते हैं। भावों का मन से गहरा संबंध है। चेहरे पर से चिंता का भाव हटते ही उनके स्नायु मंडल और मांसपेशियों का तनाव दूर हो जाता है।
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भटनागर साहब की उम्र यही कोई 52-53 की होगी। हम सब उन्हें बुजुर्ग गिनते हैं। अनेक जटिल मामलों में सलाह लेते हैं। दुनिया जितनी उन्होंने देखी है, दूसरों ने नहीं देखी। जमाने की असंख्य मुसीबतों से वे टक्कर ले चुके हैं। उनके पास जिम्मेदारियां पहाड़ जैसी हैं, पर उनके चेहरे पर एक भी शिकन नहीं। उन पर सदैव एक मन्द मन्द मुस्कराहट खेलती रहती है। यही कारण है कि वे 25-30 के युवक जंचते हैं और बाल अब भी भौरों जैसे काले बने हैं।
चेहरा आकर्षक है और उनके पास दो मिनट बैठ कर ताजगी का अनुभव करता है। हमने पूछा, ‘‘भटनागर साहब, आपने चिंताओं पर विजय कैसे प्राप्त की है? क्या आपको घर-बार, बच्चों की नौकरी, शिक्षा, शादी, विवाह की कोई चिंता नहीं है?’’
वे बोले, ‘‘आप भी कैसी बातें करते हैं। जिन्दगी है चलती जाती है, मुसीबतें किस पर नहीं आतीं, पर वे आती हैं ऊपर निकल जाती है। जिन्दगी चलती जाती है। एक-एक कर खुद ही ये दूर होती रहती हैं। अपने राम परेशान होना नहीं सीखे हैं। लोग जरा-जरा सी बातों से व्यर्थ ही चिंतित हो उठते हैं जब कि वे खुद-ब-खुद ही दूर होती जाती हैं। जिन परिस्थितियों में हम परेशान हो जाते हैं, अपने मन पर जरूरत से ज्यादा वजन डालते हैं, उनमें अगर हम जानबूझ कर शान्त रहें, अपनी मांसपेशियों को ढीला रखें, अपनी नाड़ियों पर खिंचाव न पड़ने दें, तो मन की सारी आशंकाएं और दुश्चिन्ताएं अपने आप दूर हो जायेंगी। अभ्यास से यह बात संभव है और हमारी व्यर्थ की सारी परेशानी दूर हो सकती है।’’
आप शरीर को ढीला रखा करें और पूरा-पूरा विश्राम किया करें।
गहरी सांस लें और प्राणवायु को अधिक देर तक रोके रहें। किसी एक पोज या स्थिति में तने हुए न बैठें, बल्कि आराम से बैठ कर निश्चिंत मन से काम करें।
जिस काम से थकान अनुभव होने लगा है, उसे छोड़ कर कोई नया काम हाथ में लें। किसी सुन्दर दृश्य की कल्पना करें या कभी-कभी सिनेमा भी देख आया करें, बाग की सैर को भी निकल जाया करें।
अपनी तरक्की के बारे में चिंतित — श्री पुरुषोत्तमलाल जब कभी मिलते हैं, तो प्रायः यही कहा करते हैं, ‘‘क्या आपको पता है कि सरकार कब हम लोगों के ग्रेड या महंगाई में तरक्की कर रही है? सब की तनख्वाहें बढ़ती जा रही हैं, पर हम डाकखाने के मुलाजिमों के आज भी वही ग्रेड हैं, जो पहले थे। मिलों के मजदूर अपनी मजदूरी बढ़वा रहे हैं, सर्वत्र महंगाई बढ़ाई जा रही है, पर हमारी तरक्की नहीं होती। आज के बढ़ते हुए मूल्यों के कारण गुजारा ही नहीं चलता। हमें तो यही फिक्र लगा रहता है’’।
इन मित्र की तरक्की की चिन्ता बढ़ कर जटिल गुत्थी बन गई है। और जटिलता सुलझने के स्थान पर उलझती ही जा रही है। वे समझने लगे हैं कि छोटे से वेतन में गुजारा क्यों कर चलेगा?
बस, वे इसी परेशानी को लेकर अपनी कल्पना में व्यर्थ के खौफनाक किले बनाया करते हैं। यह स्पष्ट है कि महंगाई से घबराने से उनका आर्थिक संकट किसी भी प्रकार कम नहीं हुआ है, पर वे मन में अभाव और मजबूरी के चित्र ही बनाते रहते हैं।
मनुष्यों में ताकत की कमी नहीं होती, केवल इच्छा शक्ति तथा कल्पनाओं को सही दिशाओं में चलाने की कमी होती है। इच्छाशक्ति में दृढ़ता आते ही आदमी में आगे बढ़ने की ताकत का गुप्त मन से जन्म होता है।
हमने इन बन्धु को बताया है कि वे व्यर्थ की चिन्ता करने के बजाय, अपना समय बचाकर कोई छोटा-मोटा काम किया करें। घरवालों को कोई दस्तकारी या कोई उत्पादक काम सिखायें और ईमानदारी से कुछ और कमाने का प्रयत्न करें। यदि यह संभव न हो, तो खर्चे और भी कम करें और सादगी तथा मितव्ययिता से जीवन व्यतीत करें। फैशनपरस्त लोगों की नकल न करें।
अब श्री पुरुसोत्तमलाल धीरे-धीरे मन में चिन्ता के बजाय, कोई उत्पादक कार्य करने की योजना बना रहे हैं। पिछले दिनों मिले, तो कहने लगे, ‘‘फालतू मन मुझे परेशान करता था। अब हम बचे हुए सामान में कुछ घरेलू उद्योग करते हैं। मूंग के पापड़, बड़िया तथा इसी प्रकार की चीजें सीधे दुकानदारों को सप्लाई करते हैं। रद्दी कागज की थैली बनाते हैं। चिन्ता छूट गई है और घर को सहारा लगा है।’’
आप भी यह गुर काम में लायें!
अपने अफसर के रुख के विषय में चिन्तित — ‘‘शर्मा साहब आज चहरा उतरा-उतरा क्यों लगा रहा है? कुछ दाल में काला है?’’
‘‘तुम भी यार न जाने कैसे मन की बात ताड़ लेते हो? हमारा अफसर मद्रासी है। साला तेज मिजाज है। तनिक-सी भूल होते ही बिखर पड़ता है। आज अकाउंट में जरासी गलती हो गई, तो इतना डांटा फटकारा कि परेशान हो गया। जब से यह अफसर आया है, आये दिन डांट फटकार पड़ती रहती है। इसी की चिन्ता से मन परेशान रहता है।’’
‘‘भाई कसूर तुम्हारा नहीं, तुम्हारे बिगड़े दिल अफसर का ही है। प्रायः देखा जाता है कि बच्चों को डराने की कुछ आदत-सी पड़ जाती है। डांट पड़ने पर भय के कारण बच्चे चहरे बिगाड़ लेते हैं और उनके बेसूरत चेहरे को देख कर कुछ लोगों को आनन्द होता है। डांट फटकार से बच्चे की बाढ़ रुक जाती है। बड़ा होने पर यह चोट खाया हुआ बच्चा दूसरों को डांट कर बदला निकाला करता है। तुम्हारा अफसर ऐसा ही डांटा हुआ बच्चा है। वह सब से बदला ले रहा है।’’
‘‘लेकिन मुझे उसकी डांट सुनकर बड़ी उत्तेजना हो जाती है। उसकी बुरी आदत सम्हाली नहीं जाती।’’
‘‘सो तो ठीक है भाई! पर नौकरी थोड़े ही छोड़ी जाती है।’’
‘‘तो क्या सलाह देते हो?’’
‘‘तुम तो यह समझो कि अफसर तो आते-जाते ही रहते हैं। आज यह है तो कल कोई दूसरा और आ जायेगा। फिर तीसरा, चौथा। हम अगर यही सोचते रहें कि हर अफसर हमारे स्वभाव के अनुकूल ही आयेगा, हमारे साथ सज्जनता का ही व्यवहार करेगा, तो यह संभव नहीं है। संसार में अफसर कभी भी अनुकूल नहीं होता। सब स्वार्थ ही स्वार्थ है। अपना काम निकालो। दफ्तर की गाड़ी को आगे खिसकाते चलो। मेरा ख्याल है मनुष्य को संकट और कठोर व्यक्तियों का सामना धैर्य पूर्वक करना चाहिए। मनुष्य को व्यर्थ की खौफनाक चिन्ताएं मन में नहीं छिपानी चाहिए। अगर आप इन संकटों का सामना नहीं करते, तो वे भय, डरावने स्वप्न, आतंक और राक्षस बन कर हमारा पीछा किया करते हैं।’’
शर्मा को इस राय से लाभ हुआ है। वह अपना कर्त्तव्य निभाये जा रहा है डांट चुपचाप सह लेता है।
लोग मुझे ज्यादा पसन्द नहीं करते — धर्मपाल बोले, ‘‘जैसे ही मैं बोलने खड़ा हुआ, लोगों ने शोर करना आरंभ कर दिया। पांच मिनट भी न बोल पाया हूंगा कि ‘‘बैठ जाओ, बैठ जाओ’’ के नारे चारों तरफ से लगने लगे। आखिर बैठना ही पड़ा। मैं तब से बड़ा चिंतित रहता हूं कि लोग मुझे पसन्द नहीं करते।’’
यह बात कहते-कहते धर्मपाल अनावश्यक रूप से गम्भीर हो गये। चेहरे से मायूसी टपकने लगी। उनकी बेचैनी उस वक्त छिपाये नहीं छिप रही थी।
वे फिर बोले, मैं दूसरों से मेलजोल नहीं रख पाता, मेरी किसी से नहीं बनती, लोग मुझसे बचते रहते हैं। बस यही चिन्ता मुझे सताया करती है।’’
धर्मपाल जी से बातचीत करने पर मालूम हुआ कि वे सदा नाराज हो जाते हैं और सब के कामों में खराबी निकालते हैं। खीजते हैं, नाराज हो उठते हैं। यदि दूसरा कोई कड़वी बात कह देता है, तो उसे अपना तिरस्कार समझते हैं, पलट कर तीखा-सा जवाब देते हैं। उन्हें इस बात से बड़ी चिढ़ है कि दूसरे उनसे अपने को बहुत बड़ा समझते हैं।
हमने उनसे दूसरों की पसन्दगी या नापसन्दगी पर बेकार ही दुःखी होना और अनुचित महत्व देने की प्रवृत्ति को तुरन्त छोड़ देने को कहा। मैं बोला, ‘‘दोस्त, दुनियां दुरंगी, चौरंगी और सतरंगी है। रंग-रंग के इंसान हैं, भिन्न–भिन्न रुचियां हैं, परखने की तरह-तरह की कसौटियां हैं। उनके मानसिक, नैतिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक स्तर भी पृथक-पृथक हैं। फिर आप कैसे यह आशा करते हैं कि सब आपको या आपकी नीति, स्वभाव, रुचि को पसन्द करेंगे।’’
‘‘हां, सो तो बात है। इस पृथकता को तो मैं महसूस करता हूं।’’
‘‘बस, फिर आप क्यों यह सोच कर चिंतित रहते हैं कि आपका दूसरों से मतभेद न होगा? हर इंसान को अपनी स्वतन्त्र राय रखने का अधिकार है।’’
सौभाग्य से अब धर्मपाल दूसरों की निन्दा से दुःखी नहीं होते वे उसे पी लेते हैं।
एक दिन मिले तो बोले, ‘‘यार यह तो बतलाओ लोग तुम्हारे पास से हटाये नहीं हटते, दो चार मिलने वाले प्रेमी मित्र क्यों बैठे रहते हैं? क्या मिठाई है तुम्हारे पास?’’
‘‘मिठाई बेचते हैं हलवाई। दूसरों की प्रशंसा करने में कंजूसी नहीं करता, दूसरों के आत्म-विश्वास को मजबूत बनाता रहता हूं। हमेशा कोशिश यही करता हूं कि उसकी व्यक्तिगत मजबूरियां सुन, सहानुभूति प्रदान करूं और संभव होता हो तो हल करूं। कोशिश करता हूं कि मुझ से मिलने के बाद उनका साहस बढ़ जाय और वे आत्मीयता का अनुभव कर सकें। उनकी सलाह पर हार्दिक बधाई देता हूं। आप भी अपने आप को दूसरों की परिस्थिति में रख कर उसके दृष्टिकोण से विचार करना आरम्भ करें। दूसरों के प्रति उतनी ही उदारता दिखाइये, जितना आप उनसे पाना चाहते हैं।’’
बातें उन्हें जंची और उनका अभ्यास उन्होंने करना शुरू किया है।
पिछले दिन मिले तो बोले, ‘‘यार बातें तो तुम्हारी बड़ी अनुभवपूर्ण थीं। अब मेरे यहां कई व्यक्ति आने लगे हैं। बैठक में कोई न कोई बैठा रहता है। मैंने जब से दूसरों की भावनाओं का खयाल रखना सीखा है, तब से लोग मुझे पसन्द करने लगे हैं।’’
‘‘एक बात और कहूं’’ मैं बोला।
‘‘क्या कुछ और भी रह गया भाई जान!’’
‘‘एक क्या, बातें तो अनेक काम की हैं, यह भी याद रखिए कि दूसरों की आलोचना मत कीजिए और भूलकर भी दूसरों को झेंपाने की कोशिश न कीजिए।’’
उमड़े आंसू रोकते हुए वे बोले, ‘‘मैं पहले दूसरों की गुप्त बातें हर किसी को बताता फिरता था। मुहल्ले भर की सच्ची झूठी बातें दूसरों को सुनाता रहता था, पर आज से अपना दृष्टिकोण बदलता हूं।’’
‘‘हां मित्र, विश्वास बड़ी पवित्र चीज है। दूसरे तुमसे अपनी गुप्त बातें सच्ची सलाह और सहानुभूति पाने के लिए ही कहते हैं, अगर वे उन्हें गुप्त रखने को न भी कहें, तब भी उनके भेदों को सदा छिपा ही रखिये। किसी की व्यक्तिगत बातें दूसरों पर प्रकट न कीजिये।’’
धर्मपाल की चिन्ता अब बिल्कुल मिट चुकी है और अब लोग उन्हें पसन्द करने लगे हैं।