श्री सतीशकुमार सिंह की पत्नी का देहावसान प्रसव में हुआ। घर में 6 बच्चे हैं और स्वयं उनकी आयु पैंतालीस को पार कर चुकी है। बड़ी कन्या की आयु 16 वर्ष से ऊपर है। वे प्रायः अपने पारिवारिक जीवन को फिर बसाने की सोचते रहते हैं पर घर नहीं सम्हलता। आज कोई बीमार है, तो कल बच्चे आपस में लड़ झगड़ रहे हैं। उनके काम में भी अड़चन उपस्थित होती है। वे कभी-कभी सोचते हैं, ‘‘यदि घर में कोई नारी होती, जो घर को सम्हाल लेती तो कितना अच्छा रहता!’’
एक दिन एक सज्जन एक रिश्ते का प्रस्ताव लेकर आते हैं, ‘‘कन्या पढ़ी लिखी है। 25 वर्ष की है। रिश्ता स्वीकार कर लीजिए। आपका घर-गृहस्थी का भार सम्हाल लेगी।’’
और श्री सतीशकुमार सिंह रिश्ता स्वीकार कर लेते हैं। विवाह हो जाता है। पति-पत्नी की आयु में 20 वर्ष का अन्तर है। पति बेचारे नाना पुरस्कार, नई-नई साड़ियां, आभूषण, क्रीम पाउडर, तेल-पालिश तथा सिनेमा दिखा-दिखा कर युवती पत्नी को प्रसन्न करने की चेष्टा करते हैं, पर दोनों में भावात्मक सम्बन्धों की एकता नहीं स्थापित हो पाती। जिन बच्चों की माता मर चुकी है वे नई मां से वात्सल्य की आशा करते हैं। नई मां उन्हें ऊपरी दृष्टि से सूखा हाथ भी फेरती हैं, किन्तु सच्चा स्नेह न पाने से वे सूखते जाते हैं। उनके मन में दरार बड़े होते जाते हैं। बच्चों के मन की तड़प नई मां पहचान ही नहीं पाती है। मातृहीन बालक मां बाप के होते हुए भी अपने आप को अकेले और निस्सहाय समझते हैं उनका तो मानो नीड़ ही उड़ गया है।
अब प्रौढ़ सतीशकुमार सिंह चिंतित रहते हैं। इनकी चिंता के दो विषय हैं। 1—युवती पत्नी की वासना को पूर्णतः तृप्त करने में वे अपने आप को पूर्ण समर्थ नहीं पाते हैं। भरसक प्रयत्न करने पर भी उन्हें ऐसा लगता है कि उनके शरीर की कुछ सीमाएं हैं। उनमें शरीर-शक्ति इतनी नहीं है कि युवती के शरीर को उसकी अभिलाषित तृप्ति दे सकें। उधर युवती पत्नी भी अतृप्त होने के कारण विक्षुब्ध और तनी-सी रहती है। वह भी अधेड़ उम्र के पति से विवाह कर लेने की मूर्खता को अन्दर ही अन्दर अनुभव करती है। पर दिखावटी नाज नखरों, दिलजोई रुपये से पूरी नहीं हो पा रही है। जवानी की कमी धन से कब पूर्ण हुई है?
2—दूसरी ओर उनके बच्चे बड़े होते जा रहे हैं। मातृहीन बच्चे पिता के नये विवाह करने की मूर्खता को धीरे-धीरे समझने लगे हैं। वे सब उनके समक्ष दबे-दबे से रहते हैं। न मुसकराते हैं, न हंसते हैं। घर की एकता नष्ट होती जा रही है।
नतीजा यह है कि श्री सतीशकुमार सिंह को हृदय-रोग हो गया है और उनका स्वास्थ्य भी बिगड़ने लगा है। दिल में धड़कन विशेष रूप से अनुभव किया करते हैं। यह दिल का रोग उन्हें सुहागरात से कुछ ही महीनों के भीतर महसूस होने लगा है। स्वस्थ युवती को तृप्त न कर सकने के कारण उनके सारे शारीरिक और मनोवैज्ञानिक कार्य और खिंचाव दुगने हो गए हैं। पहले उनका विधुर जीवन सीधे-सादे तरीके से नियमित चल रहा था। अब उन्हें काफी शक्ति नष्ट करनी पड़ती है। नींद और आराम की मात्रा कम कर देनी पड़ी है। इस प्रकार अधेड़ अवस्था में उनकी चिंताएं बढ़ती जा रही हैं।
ऐसी परिस्थिति में वे क्या करें?
हमें इस प्रश्न को दो दृष्टियों से सोचना चाहिए। पहला तो यह कि 40-42 साल तक के विधुर विवाह करें अथवा? उनके लिए कौन-सा रास्ता ठीक रहेगा, विवाहित या विधुर का? ईश्वर न करे यदि आप के जीवन में ऐसा विषम अवसर आ जाय, तो आप क्या करिएगा?
हमारी सलाह है कि प्रौढ़ पुरुष विवाह न करें तब ही उत्तम है। 20-25 वर्ष की आयु में होने वाली शादी ही ठीक रहती है। 45 की आयु तक पहुंचते-पहुंचते जीवन का एक अध्याय समाप्त होता है। वैवाहिक यौन सम्भोग की अवस्था समाप्त होती है। और बच्चों की जिम्मेदारियां निभा लेने की कठिन स्थिति उपस्थित होती है। इस अवस्था पर भोगविलास तथा नए बच्चे को जन्म देने की मूर्खता नहीं करनी चाहिए। गृहस्थी की देख-भाल किसी नौकरानी या परिवार की वृद्ध बहन, भौजाई, चाची, ताई या बड़ी कन्या के द्वारा करानी चाहिए।
यदि आप यह गलती कर चुके हैं, तो पत्नी की रुचि काम-वासनाओं से हटा कर साहित्य, समाजसेवा, संगीत या अन्य किसी सुरुचिपूर्ण कार्य की ओर मोड़िये। स्वयं अपना स्वास्थ्य ठीक रखिये और विषय प्रसंग में पूर्ण संयोग का ध्यान रखिये। कामोत्तेजक औषधियों के प्रयोग द्वारा युवती की वासना तृप्ति करते जाना हर दृष्टि से बुरा और घातक है। इससे मृत्यु तक संभव है। पत्नी की रुचि धर्म में मोड़ने से सर्वाधिक लाभ हो सकता है।
ऐसे पति-पत्नी को अपनी चिंता दूर करने के लिए सदा किसी उच्च धार्मिक, नैतिक या सामाजिक सेवा के सत्कार्य में लगे रहना चाहिए। मन में तनिक-सा भी विकास आने पर उसे किसी अन्य उपयोगी कार्य में लगा देना चाहिए। संसार में ऐसे अनेक उपयोगी कार्य पड़े हैं जिनमें लग कर जीवन की कटुताओं और विषमताओं को भूला जा सकता है।
एक प्रौढ़ दम्पत्ति जो ऐसी ही भूल कर बैठा था, आजकल घर का स्कूल चला रहा है। पत्नी शिक्षित और संयमी थी। परिवार की इज्जत बेइज्जती को भली भांति समझती थीं। एक नया शिशु होने के बाद वे घर का स्कूल चला रही हैं। उनका बहुत-सा समय बच्चों की देखभाल और शिक्षा में लग जाता है। पति समय-समय पर उसकी सहायता करते रहते हैं। दोनों जीवन की गाड़ी खींच रहे हैं।
एक दम्पत्ति ने आयुर्वेदिक अस्पताल चलाया है और वे रोग-शोक निवारण का कार्य कर जीवन को धन्य बना रहे हैं। एक तीसरी महिला समाज सेवा के कार्यों में लगी रहती है। उपदेश देना, महिलाओं में जागृति उत्पन्न करना, दहेज प्रथा दूर करने, देश के गौरव, उसकी महानता और पीड़ितों के कष्टनिवारण में उन्हें बहुत सुख मिलता है। ऐसी नारियों को अपनी रुचि, शिक्षा और स्वभाव के अनुसार अपनी ऊंची वृत्तियों को विकसित करने और समाज को आगे बढ़ाने में अपना समय लगाना चाहिए।
अच्छी बातों को बार-बार दोहराने से नई आदतें बनती हैं और पुरानी बुरी आदतें टूटती हैं।
थकावट के कारण चिंता — श्री मुनींद्रनाथ शुक्ल अध्यापक हैं। स्कूल से उन्हें डेढ़ सौ रुपये मासिक वेतन प्राप्त होता है। इतने रुपये में गुजारा नहीं होता। पांच बाल बच्चे, दो पति-पत्नी सात प्राणी पालने के लिए और मासिक आय केवल डेढ़ सौ मात्र। उन्हें और रुपया चाहिए। इसलिए बेचारे ट्यूशन करते हैं। दो ट्यूशनें स्कूल जाने से पहले, तीन ट्यूशन स्कूल के उपरान्त। इस प्रकार मजदूरी कर गृहस्थी की गाड़ी खींचते हैं। पूरे दिन में 13-14 घन्टों का परिश्रम करना पड़ता है। उस दिन मिले, तो बोले, ‘‘प्रोफेसर साहब, आज-कल तो मन परेशान-सा रहता है।’’
उनसे अनेक प्रकार की पूछताछ की, तो मालूम हुआ कि वे आर्थिक भार से बुरी तरह परेशान हैं, पर इससे भी अधिक चिन्ता का कारण शारीरिक थकान है। दिन भर जी तोड़ श्रम करने की वजह से उनका शरीर घोर थकावट अनुभव करता है, पर गृहस्थी के खर्चों को पूरा करने के लिए वे उससे अनाप शनाप शारीरिक और मानसिक श्रम लिए जाते हैं। अधिक से अधिक कमाने की योजनाएं बनाते हैं, जी तोड़ मेहनत करते हैं। दिन भर में थोड़ी देर भी टिक कर शान्ति से नहीं बैठते। शाम तक उनका शरीर चूर-चूर हो जाता है। भोजन तक की ओर उनकी रुचि नहीं रहती। प्रायः वे बिना खाये ही सो जाया करते हैं या दो-तीन रोटियों से अधिक ले ही नहीं पाते।
उनकी चिन्ता का कारण काम नहीं, जरूरत से अधिक काम है। शरीर जितना श्रम सम्हाल कसता है, वे उससे दुगुना-चौगुना कर बैठते हैं। उनकी शक्ति और क्षमता में मोर्चा लग जाता है।
संसार में सैकड़ों मनुष्य मजबूरी या लालच के कारण क्षमता से अधिक परिश्रम करके परेशानी का अनुभव कर रहे हैं। उनकी शक्ति क्षीण होती जा रही है, स्वास्थ्य चौपट हो गया है। आयु कम होती जा रही है। दिन-रात चिन्ता में घुल रहे हैं। उनका रोग थकावट है। उनकी चिंता थकावट कम करने और अधिक आराम करने से ही दूर हो सकती है। थकान की रोकथाम से ही चिंता दूर हो सकती है।
यही बात डाक्टर जेकबसन ने वर्षों के अनुभव और खोज करने पर मालूम की। वे चिकित्सालय में अनुसंधान कर रहे थे। अनेक रोगियों की परीक्षा करने पर वे इस परिणाम पर पहुंचे थे कि आधुनिक व्यस्त और संघर्षशील जीवन में मनुष्यों के स्नायु अथवा मनोवेग सम्बन्धी अनेक रोग केवल थकावट के कारण उत्पन्न होते हैं। उनकी सम्मति है कि मनुष्य को सदा सर्वदा यह ध्यान रखना चाहिए कि उसकी क्षमता कहां, कब, किस स्थिति में समाप्त होने जा रही है। शक्ति के बिलकुल खतम होने से पूर्व ही उसे वह कार्य त्याग कर कुछ देर आराम कर लेना चाहिए। जब पी लेने, कुछ देर बाहर घूम आने, या मित्रों से गपशप कर लेना या सो लेने से थके हुए शरीर या मन को आराम मिल जाता है और कार्य क्षमता काफी देर तक बनी रहती है।
दूसरे महायुद्ध में इंग्लैंड के प्रधान मंत्री विन्स्टन चर्चिल ने अपनी सत्तर वर्ष की आयु में सोलह घण्टे प्रतिदिन काम किया था। लोग उनकी मुस्तैदी, चुस्ती, जागरुकता और विलक्षण सैन्य संचालन शक्ति पर चकित थे। आखिर उनमें इतनी ताकत कहां से आती थी? वे क्या करते थे? उनकी अपरिमित शक्ति का उद्गम-स्रोत आखिर क्या था? उन्हीं के शब्दों में उत्तर सुनिये—
‘‘मैं युद्ध संचालन के दिनों में मुस्तैदी से सोलह घन्टे काम करता रहा। मेरी शक्ति के स्रोत अच्छा पौष्टिक भोजन और निश्चिन्त आराम था। पोष्टिक भोजन की अपेक्षा भी आराम को मैं अपेक्षाकृत अधिक महत्व देता हूं। स्नायु या मनोवेग सम्बन्धी मेरी सारी तकलीफें आराम के द्वारा दूर होती रही हैं। थकान दूर होते ही मेरी चिंता अपने आप गायब होती रही है। थक जाने पर मैं बिस्तरे पर लेट कर अपना काम करता था। वहीं से कागजात तथा आवश्यक पत्र पढ़ता था, उन पर अपनी आज्ञाएं लिखता था, टेलीफोन पर महत्वपूर्ण बैठकें बुलाता था। दोपहर को भोजन के बाद फिर एक घण्टे अवश्य सोता था। सोते समय मन में से हर प्रकार की चिन्ता को दूर कर देता था। संध्या को भोजन करने के बाद फिर विश्राम करता था और रात्रि में तो निर्विघ्न शान्तिपूर्ण नींद का आनन्द लेता था। इसी से मुझे ताजगी और शक्ति मिलती थी।’’