चिन्ता छोड़ो—प्रसन्न रहो

चिन्तानाश का नया उपाय

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उस दिन अपने मित्र गिरधर गोपाल के यहां गया, तो एक बड़ी अजीब बात देखी। एक चित्र की तरह कांच में मढ़ी हुई, स्वच्छ सुवाच्य अक्षरों में एक कविता मेंटलपीस पर सजी थी।

मैंने पूछा, ‘‘यह क्या लिखा है। क्या देख सकता हूं?’’

‘‘शौक से देखिये? यह है स्वर्गीय महादेव भाई की दुर्लभ कविता जिसे प्रति दिन सुबह पढ़ कर मैं अपनी चिन्ताएं भगाया करता हूं।’’

फिर उन्होंने कविता पढ़ी। उसमें तन्मय हो गये। उसका भावार्थ मुझे समझाते गये। लीजिए, आप भी दोहराइये और प्रेरणा प्राप्त कीजिए—

‘‘माना कि तुम्हारे अपने प्रियजन तुम्हें छोड़कर चले जायेंगे, पर इसके लिए व्यर्थ ही चिन्ता करने से काम नहीं चलेगा!’’

‘‘भले ही तुम्हारी आशा-लता टूट पड़े, उसके फल तुम्हें भले न प्राप्त हों, लेकिन इसके लिए चिन्ता करने से तो काम नहीं चलेगा।’’

‘‘आधी रात में अन्धेरा आयेगा, तो इससे क्या तुम वहीं ठहर जाओगे? उस समय तुम बार-बार दिया जला कर अंधेरा दूर करने का प्रयास करना।’’

‘‘और अन्ततः अगर दिया नहीं जले, तो इसके लिए आखिर चिन्ता करने से तो काम नहीं चलेगा।’’

‘‘यह ठीक है कि तुम्हारी करुण वाणी सुनकर वन के प्राणी तुम्हारे पास हमदर्दी जताने आयेंगे और तब भी तुम्हारे अपने घर के पत्थर नहीं पिघलेंगे।’’

‘‘याद रखो, घर का कोई व्यक्ति तुम्हारे साथ सहानुभूति नहीं दिखायेगा, लेकिन इसके लिए चिन्ता करने से तो काम नहीं चलेगा।’’

बड़ी तन्मयतापूर्वक वे कविता पढ़ते रहे, फिर बोले, ‘‘इस कविता के सहारे मैंने अनेक संकटों को हंसते-हंसते पार किया है और आत्म-बल संग्रह किया है। आप भी करें।’’

तब से मैं भी इन विचारों से लाभ उठा रहा हूं। यही नहीं, उनके कमरे में लगे हुए चित्रों और उनके पुस्तकालय से भी मुझे चिंता सम्बन्धी व्यग्रता से छुटकारा मिला है।

उनके घर में दीवारों पर अनेक चित्र लगे थे—भगवान बुद्ध का शान्तिमय मुद्रा में चित्र, बालरूप भगवान श्रीकृष्ण का विहंसता हुआ चित्र, भगवान राम का प्रसन्न मुख, गांधी जी, नेहरू जी, चित्तरंजनदास, भगतसिंह, सरोजिनी नायडू, ऐनी बेसेंट आदि नेताओं के प्रसन्नमुद्रा में आकर्षक और लुभावने चित्र! दीवारें जैसे हंस रही हों! सर्वत्र जीवन बिखरा पड़ा हो!!

मैं इस चित्र में देख ही रहा था, कि वे बोले, ‘‘मित्र क्या तुम चित्रों के विषय में एक मनोवैज्ञानिक की राय जानते हो?’’

मैं चुप था!

नहीं जानते तो लो सुनो। लाभदायक बात है। मुझे तो इन चित्रों से बड़ा लाभ हुआ है। एक मनोवैज्ञानिक कहता है, ‘‘किसी के घर में लगे हुए चित्र तो होते ही हैं, पर वे लगाने वाले के मन के चित्र भी होते हैं, इस नियम के साथ मेरी नई खोज यह है कि ये चित्र हमारे घर का सुखद उत्साहवर्द्धक, प्रफुल्ल, धैर्य और साहसपूर्ण प्रसन्नतादायक नया वातावरण भी बनाते हैं। हर आदमी अपनी नई भावनाएं इन चित्रों के अनुसार ही बना सकता है और घर को स्वर्ग के कोने में बदल सकता है।’’

फिर उन्होंने अपना घरेलू पुस्तकालय दिखाया जिसमें जीवन निर्माण संबंधी उत्साहवर्द्धक साहित्य, वीर पुरुषों की साहसपूर्ण कहानियां, धैर्य और साहस बढ़ाने वाले उपन्यास और ओजपूर्ण कविताएं थीं।

वास्तव में उनका तरीका नया था। मैंने तब से अपना घर उत्तम चित्रों और उत्साहवर्द्धक साहित्य से सजाया है। दीवारों पर वह चित्र हैं जो मनहूसियत और निराशा को मार भगाने वाले हैं। भारत की मूलवृत्तियों, वीरता, साहस, धैर्य और कष्टसहिष्णुता को बढ़ाने वाले हैं। मानसिक उल्लास भर देने वाले हैं। इस शांत सुखद उत्साहवर्द्धक वातावरण में भला चिंता कहीं टिक सकती है?

चर्चिल साहब का अनुभूत प्रयोग — चर्चिल साहब राजनीति में गले तक सारे दिन डूबे रहते थे। उन्हें न केवल अपने देश की प्रत्युत समग्र विश्व की राजनैतिक उथल-पुथल की चिंता रहती थी पर उन्होंने अपनी चिंता को दूर करने का अपना पृथक ही तरीका निकाल रखा था।

वह क्या था?

जब उनसे पूछा गया, तो वे बोले, ‘‘मुझ में जरा भी थकान आयी कि मैं राजनीति को पूर्णतः विस्मृत कर चित्रांकन में जुट जाता हूं। जितनी देर में चित्र बनाता रहता हूं, चित्र में अंकित मनोरम भाव मेरे मन से चिंता दूर कर देते हैं।’’

अजीब अनुभव है। चित्रकला द्वारा चिंताओं को पछाड़ा जा सकता है। श्री आइसन होवर का अनुभव भी इसी से मिलता-जुलता है।

‘‘चित्रकला ने मुझे नया प्राण, बल और नई स्फूर्ति दी है।’’

कुछ ऐसे ही अनुभव भारतीय चित्रकारों के भी हैं। भारतीय चित्रकारों ने भी अपनी चित्रकला से अपना दुःख दर्द दूर किया है। चित्रकार नंदलाल बाबू एक चित्र पर परिश्रम कर रहे थे। वे आस-पास का सब कुछ उसमें भूले हुए थे। चित्र की समस्त वृत्तियां कला की उदात्त भावना पर केन्द्रित थीं। चित्र बनाने में वे सब कुछ विस्मृत किये हुए थे। एक व्यक्ति ने पूछा, ‘‘मास्टर मोशाय! आप चित्र-निर्माण में इतना परिश्रम कैसे कर लेते हैं?’’

उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘चित्र-निर्माण में मैं परिश्रम अवश्य करता हूं, पर उस परिश्रम को परिश्रम के रूप में स्वीकार नहीं करता। ज्यों-ज्यों चित्रकार की कल्पना चित्र के रूप में मूर्त होती जाती है तथा जितनी सफलता से मूर्त होती है, उतना ही रस चित्रकार को अपने कार्य में मिलता है। और, उस रस का आनन्द श्रम की क्लांति को प्रतिक्षण नष्ट करता रहता है। मेरे हर चित्र के पीछे एक इतिहास है और मैं तो ऐसा मानता हूं कि मेरे हर चित्र में मेरे ही अन्तर के सुख-दुःख, जय पराजय तथा चढ़ाव-उतार का चित्रण होता है। मेरी ‘‘पार्वती’’ (एक प्रसिद्ध चित्र की नायिका) का कष्ट वस्तुतः मेरे मन का कष्ट है। जब तक चित्रकार के मन का तादात्म्य नहीं होता, मैं उसकी कला की साधना को अधूरी मानता हूं। मेरा यह अनुभव है कि चित्रकार के मन और उसके चित्र में तादात्म्य होने से चित्रकार के मन का बोझ हलका होता है और तब परिश्रम के लिए स्थान ही कहां रह जाता है भला।’’

श्री राबर्ट हेनरी के शब्द भी ऐसे ही हैं, ‘‘चित्रकार की तूलिका के हर पात्र के पीछे उसी मनःस्थिति की कहानी होती है और उसे कोई भी जानकार बड़ी आसानी से पढ़ सकता है।’’

चित्रकार की काल्पनिक दुनिया एक अलग ही संसार है। उस संसार में प्रविष्ट होकर वह अपना दुःख-दर्द और समस्त चिन्ताएं अनायास ही भूल जाता है। थके मन को नयी स्फूर्ति देने के लिए चित्रकला एक सशक्त साधन है।

बड़े-बड़े विद्वान् और राजनीतिज्ञों ने चित्रकला द्वारा परेशानियों को दूर किया है और ताजगी प्राप्त की है। उनका यह शौक उनके दुःख सुख का सच्चा साथी रहा है।

लार्ड अलेक्जेंडर कैबिनेट मिशन के साथ भारत आये थे। वे भी चित्रों के शौकीन थे। ‘‘आपके चित्रकला के सम्बन्ध में क्या अनुभव है?’’

वे बोले, ‘‘तूलिका मेरी ऐसी संगिनी है कि वह न जाने कैसे मेरे अन्दर की वेदना को पहचान लेती है। मैं स्वयं उसके इस अद्भुत गुण को देख कर कभी-कभी आश्चर्य में पड़ जाता हूं जब वह रंगों में डूब कर कागज पर चलती है, तो सदा इस बात का ध्यान रखती है। कि कैसे और किस रूप में वह मेरे अन्तर के शिव को उभार देकर मेरी वेदना पर विजय प्राप्त करा दे। मेरा यह अनुभव है कि वह अपने कार्य में सदा ही सफल रही है।’’

चित्रकला को अपना संगी बनाइये।

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