ऋषियों की प्रयोगशाला- यज्ञशाला है। महर्षि याज्ञवल्क्य अपने यज्ञ आश्रम के अन्तेवासी विद्यार्थियों को यज्ञ विज्ञान की मूढ़ताओं का बोध करा रहे थे। महर्षि याज्ञवल्क्य यज्ञ विज्ञान के महान् अनुसन्धानकर्त्ता
ऋषि थे। वह सुदीर्घ काल से यज्ञ विज्ञान पर व्यापक, सूक्ष्म व
गहन अन्वेषण करने में तल्लीन थे। इसी उद्देश्य से उन्होंने राजाओं
व ऋषियों में समान रूप से सम्मानित महाराज जनक के राज्य के
इस उत्तम प्राकृतिक भू- भाग में इस यज्ञ- आश्रम की स्थापना की
थी। उनका यह आश्रम सुविस्तीर्ण भू- भाग में फैला हुआ था। इसमें छोटी- बड़ी अनेकों यज्ञशालाएँ
थी, जिनमें निरन्तर अनुसन्धान कार्य होते रहते थे। इन यज्ञशालाओं
में विविध प्रकार के आकार- प्रकार वाले यज्ञ कुण्ड थे। त्रिकोण, चतुष्कोण, षटकोण, शत, सहस्रकमल दल वाले, मण्डलाकार, कुम्भाकार और भी न जाने कितने आकार- प्रकार वाले भांति- भांति की माप वाले यज्ञकुण्ड- यज्ञवेदियाँ यहाँ थी। कई यज्ञ- शालाएँ तो यहाँ ऐसी भी थी जिनमें किसी तरह का कोई यज्ञकुण्ड न था। बस प्रयोग- परीक्षण के लिए विविध प्रकार के उपकरण यहाँ लगे हुए थे।
महर्षि
के इस आश्रम में विस्तीर्ण औषधि उद्यान एवं सघन अरण्य भी थे।
औषधि उद्यान में प्रायः सभी तरह की औषधियाँ लगी थीं, जिनका
प्रयोग यज्ञ के अलग- अलग वैज्ञानिक विधानों में किया जाता था। पास
के सघन अरण्य में भिन्न- भिन्न प्रजातियों के वृक्ष संरक्षित थे, जिनकी काष्ठ समिधाएँ यज्ञ के वैज्ञानिक प्रयोगों में काम आती थी। इस आश्रम की सुविस्तीर्णता में आश्रम का अपना कृषिक्षेत्र भी था। जिनमें विविध फसलों को उगाकर उन पर यज्ञ के वैज्ञानिक प्रभावों का परीक्षण किया जाता था। महर्षि
उद्यान एवं अरण्य में विहार करने वाले पशु- पक्षियों को भी
अपनी यज्ञीय- प्रयोगशाला का अभिन्न सदस्य मानते थे। उनका कहना था
कि यज्ञ केवल मानवों के लिए नहीं, केवल धरा के लिए भी नहीं, यह
तो समस्त सृष्टि के लिए है। इसलिए सभी को इसमें भागीदार होना
चाहिए और सभी को इससे लाभान्वित होना चाहिए।
याज्ञवल्क्य के इस यज्ञ आश्रम में एक ऐसा भी क्षेत्र था, जहाँ
सभी का प्रवेश सम्भव न था। इस क्षेत्र की यज्ञशालाओं में सृष्टि
संचालन, जीवन संचालन में विघ्र
उत्पन्न करने वाली, जीवन की सम्पन्नता- सम्पदा का विनाश करने
वाली राक्षसी, आसुरी शक्तियों को नियंत्रित करने वाले, उनके
विनाशकारी कृत्यों का विनाश करने वाले, स्वयं उन्हें ही विनष्ट
करने में समर्थ रक्षोघ्र प्रयोग यहाँ सम्पन्न होते थे। इस कार्य का संचालन ऋषि काठक करते थे। जो स्वयं रूद्र के उपासक होने के साथ स्वयं भी रौद्र तेज से सम्पन्न थे। असुरता उनके नाम से भय खाती थी, विनाशक कृत्याओं के वह काल थे। अपनी महान् तेजस्विता के बावजूद वह हृदय से सजल व सौम्य थे। सुदीर्घ काल से वह महर्षि याज्ञवल्क्य के सहयोगी थे। इस समय भी वह महर्षि के साथ ही बैठे थे। उनके साथ ऋषि दीर्घतमा, कुत्स एवं ऋषि गृत्समद भी थे। जो महर्षि याज्ञवल्क्य के स्नेह सूत्र से आबद्ध यहाँ आए हुए थे।
ये सब ऋषिगण हमेशा कहा करते थे कि महान् तत्त्ववेत्ता, महान्
योगी एवं महान् यज्ञ विज्ञानी ऋषि याज्ञवल्क्य का सान्निध्य, सुदुर्लभ एवं सुपावन है। महर्षि इस समय समझा रहे थे कि यूं
तो प्रत्येक लोक हितकारी कर्म यज्ञ है। जिन कर्मों में स्वार्थ
एवं अहं का तनिक भी कलुष नहीं होता, जो सर्वथा इदं न मम् (यह
मेरा नहीं, मेरे लिए नहीं, लोक हित के लिए है) के भाव से
प्रेरित व प्रवर्तित
होते हैं, वे सभी कर्म यज्ञ हैं। स्वयं परमेश्वर ने यह सृष्टि
यज्ञीय भाव से, यज्ञ प्रयोग से और यज्ञ कर्म करने के लिए
उत्पन्न की है। इसलिए वह श्रेष्ठतम् यज्ञकर्त्ता
हैं और यज्ञ पुरुष कहलाते हैं। लेकिन इसके बावजूद यज्ञ का
सर्वोत्कृष्ट एवं समर्थ विज्ञान है, जिसके विविध प्रयोग बाह्यजगत् में, अन्तर्जगत् में, स्थूल कर्मकाण्डों एवं सूक्ष्म क्रियाओं से किये जाते हैं।
इनके मुख्य भेद इक्कीस हैं, जैसा कि ऋक्वाणी कहती है-अग्निर्विद्वान्यज्ञं नः कल्पयाति पञ्चयामं त्रिवृतं सप्ततन्तुम् (ऋक् १०.५२.४)’ परन्तु उपभेदों की कोई सीमा नहीं है। इतना कहते हुए महर्षि थोड़ा रुके, किंचित विचारमग्र
हुए फिर कहने लगे कि यज्ञ प्रयोग में भौतिक एवं आध्यात्मिक
दोनों शक्तियों का सामञ्जस्यपूर्ण, सन्तुलित एवं सर्वोत्कृष्ट उपयोग
होता है। यज्ञ की भौतिक शक्तियों की बात कहें तो विविध श्रेणी
का ताप देने वाली अलग- अलग काष्ट समिधाएँ, जैसे कि आम्र, अश्वत्थ, उदुम्बर, अर्क, बिल्व इन सभी का तापक्रम अलग है। भिन्न- भिन्न गुणों वाली औषधियाँ भी यज्ञ प्रयोग की भौतिक शक्ति का घटक हैं। यज्ञकुण्डों के विविध आकार- प्रकार भी यज्ञ ऊर्जा को संरक्षित व अभिवर्धित करने के लिए हैं। ये और इस जैसे कई और घटक यज्ञ की भौतिक शक्तियों के प्रतीक हैं।
यज्ञ प्रयोग आध्यात्मिक शक्तियों के महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं-
भिन्न- भिन्न प्रकार के मन्त्र, उनके उच्चारण के विविध आरोह- अवरोह
क्रम। इनके यज्ञ प्रयोग में भागीदार- ऋत्विक्, होता आदि अनुष्ठित
साधकों की साधना की संकल्पित आध्यात्मिक ऊर्जा। इन दोनों भौतिक
एवं आध्यात्मिक शक्तियों का यज्ञ के वैज्ञानिक प्रयोग में कुशल
सामञ्जस्य एवं सन्तुलन उत्पन्न करते हैं विशिष्ट मुहूर्त। जो अलग-
अलग तिथियों, योगों केअनुसार अन्तरीक्षीय
ऊर्जा प्रवाहों को अपने विशिष्ट कार्य में उपयोग कर यज्ञ
प्रयोग को परम समर्थ एवं सार्थक बना देते हैं। यज्ञ से पर्जन्य
पर्यावरण परिशोधन का रहस्य भी इसी में समाविष्ट है। मह्रर्षि
याज्ञवल्क्य की वाणी से अभिव्यक्त यज्ञ विज्ञान की गूढ़, सूक्ष्म
व्याख्या श्रोताओं को अभिभूत कर रही थी। सभी अभिभूत थे। बस ऋषि गृत्समद के अन्तर्मन में अन्तर्यज्ञ की जिज्ञासा यदा- कदा कौंध जाती थी।
तत्त्ववेत्ता, अन्तर्ज्ञानी एवं महान् योगी याज्ञवल्क्य इस पर हल्के से मुस्कराए और कहने लगे बाह्य यज्ञ प्रयोग की भांति
आन्तरिक यज्ञ प्रयोग भी विशिष्ट हैं। इन्हें सम्यक् रीति से
करने पर असामान्य एवं असाधारण आध्यात्मिक ऊर्जा का विकास होता
है। थोड़ा ठहर कर वह बोले- हमारा अस्तित्त्व, हमारा व्यक्तित्व स्वयं में एक विशिष्ट यज्ञकुण्ड है। इसमें भी बाह्य कुण्ड की ही भांति मन- प्राण एवं देह वाली तीन मेखलाएँ
हैं। इनमें से संकल्प से सृजन करने वाली मन मेखला के अधिष्ठाता
ब्रह्मा, पोषण करने वाली प्राण मेखला के अधिष्ठाता विष्णु एवं
स्वयं के सत्कर्मों एवं दुष्कर्मों से भगवान् महेश्वर के शिव एवं
रूद्र रूप को प्रकट करने वाली देह मेखला के स्वामी रूद्र- महेश्वर हैं। इस श्रेष्ठतम यज्ञ प्रयोग के भागीदारों की चर्चा करते हुए श्रुति कहती है- ‘तस्यैवं विदुषो यज्ञस्यात्मा यजमानः श्रद्धा पत्नीः उरो वेदी वेद शिखा, वाग् होता, प्राण उद्गाता, चक्षुरध्वर्यु, मनोब्रह्मा, श्रोतमाग्रीध्र मन्यु रवं तथा ह्वनीयः उद्गाता’- इस आध्यात्मिक यज्ञ में आत्मा यजमान, श्रद्धा यजमान की पत्नी, हृदय वेदी, वेद शिखा, वाणी होता, प्राण उद्गाता, चक्षु अध्वर्यु, मन ब्रह्मा, कान आग्रीध्र, मुख आवाहनीय अग्रि है। इस यज्ञ विशेष में प्रज्वलित कुण्डलिनी की महाज्वालाएँ, संस्कारों की आहुतियों को स्वीकार कर आत्मा को परमात्मा का स्वरूप प्रदान करती हैं। महर्षि की इस वाणी ने ऋषि गृत्समद
को गहरी सन्तुष्टि दी। परन्तु ऋषि याज्ञवल्क्य को अभी कुछ और
कहना था- वह बोले यज्ञ के इन वैज्ञानिक प्रयोगों में मुझसे भी
कहीं अधिक निष्णात वैज्ञानिक अध्यात्म के वैदिक द्रष्टा- ऋषि
विश्वामित्र हैं। उनके निष्कर्षों का अवलोकन इस सन्दर्भ में
महत्त्वपूर्ण होगा।