आध्यात्मिक ऋषियों की वैज्ञानिक देन- योग विज्ञान के अध्ययन, अनुशीलन, अनुसन्धान- अन्वेषण में मह्रर्षि
ने स्वयं को भुला दिया था। पूरे विश्वविद्यालय में ही नहीं
बल्कि समूचे भारत देश में इसकी चर्चा होने लगी थी कि मह्रर्षि योगविज्ञान
पर विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण प्रयोग इन दिनों कर रहे हैं। उनके
कठिन तप, विलक्षण मेधा, असाध्य को साधने वाली उनकी योग साधना और
सबसे बढ़कर उनके सत्य संकल्प से सभी परिचित थे। यह सर्वविदित था
कि यदि मह्रर्षि ने कुछ कहा है तो वह अवश्य घटित होगा। उनका अमोघ संकल्प कभी विफल नहीं हो सकता। अभी पिछले वर्षों में जब वह पाणिनी के व्याकरण सूत्रों पर अपना महाभाष्य लिख रहे थे, तो उन्होंने पाणिनि के सूत्र ३/१/२६ के भाष्य में उदाहरण दिया- पुष्यमित्रो यजते, पुष्यमित्रो या जयाते तथा एक अन्य सूत्र ३/२/१२३ के भाष्य में उदाहरण दिया- इह पुष्यमित्रं याजयामः।
इस वर्तमान कालिक क्रिया प्रयोग तथा उत्तम पुरूष
के बहुवचन में किए गए इस प्रयोग की उन दिनों व्यापक चर्चा
हुई। क्योंकि तब पुष्यमित्र उनके गुरुकुल से विद्याध्ययन सम्पन्न
कर मौर्य सम्राट बृहद्रथ की सेना में सामान्य पद पर नियुक्त हुए थे। उन दिनों सम्राट बृहद्रथ की कायरता के कारण यूनानी यवनों ने भारतभूमि को पदाक्रान्त कर रखा था। ऐसे में भला पुष्यमित्र क्या यजन करेंगे? मह्रर्षि उन्हें किस महायज्ञ का यजमान बनाने वाले हैं? इन प्रश्रों को जब उनकी शिष्य कृतयशा ने पूछा, तो उन्होंने कहा- अश्वमेध यज्ञ के। वत्स पुष्यमित्र शीघ्र ही भारतभूमि से यूनानी यवनों को खदेड़कर अश्वमेध का यजन करेंगे। भला यह किस तरह से सम्भव होगा देव? इस प्रश्र की प्रतिक्रिया में मह्रर्षि के वचन थे- जब देश पर शासन करने वाली शक्तियाँ, कर्त्तव्यविमुख, निस्तेज एवं अकर्मण्य हो जाती हैं, तब आध्यात्मिक शक्तियों को तो सचेष्ट व सचेत होकर अपने कर्त्तव्य पूर्ण करने होते हैं।
इसके बाद मह्रर्षि पतंजलि ने कुछ नहीं कहा- बस वर्तमान से लगभग ३२०० वर्ष पूर्व काल की कलाओं के साथ घटनाक्रम प्रवर्तित परिवर्तित हुए। सम्राट बृहद्रथ के पतन के साथ यवनों का पलायन हुआ। और यह सब किया मह्रर्षि के प्रिय शिष्य पुष्यमित्र शुंग ने। जिन्होंने भारत सम्राट होने के तुरन्त बाद अश्वमेध यज्ञ का यजन किया, जिसमें मह्रर्षि पतंजलि ने आचार्य पद सम्भाला। इन्हीं मह्रर्षि ने आचार्य अग्रिवेश द्वारा अपने गुरु आत्रेय पुनर्वसु के नाम से लिखे शरीर चिकित्सा के ग्रन्थ ‘आत्रेय संहिता’ का भी संशोधन, परिमार्जन किया था। और उसे नाम दिया- ‘चरक संहिता’। उनके शिष्यों ने जब उनसे पूछा- देव! आपने इस ग्रन्थ का नामकरण चरक संहिता क्यों रखा? तो वह हंस कर बोले थे- इस नाम में वेदों के महर्षियों के ज्ञानोपदेश- चरैवेति! चरैवेति!! की अनुगूंज है। जो गतिशील रहता है, वह निरोगी होता है, ज्ञानी बनता है, समृद्धि प्राप्त करता है।
वही मह्रर्षि अपने जीवन के इस उत्तर काल में योगविज्ञान पर गहरे अनुसन्धान में लगे थे। उनके इस अनुसन्धान कार्य में उनके सहयोगी थे- गविष्ठिर, विश्वसाम, कृतयशा एवं पौलोमी। ये सभी मह्रर्षि के शिष्य थे। इनमें से गविष्ठिर एवं विश्वसाम गुरुकुल स्थापना के दिनों से ही मह्रर्षि के साथ थे। कृतयशा एवं पौलोमी राजकन्याएँ
थी। इन्होंने विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात्
दीक्षान्त के अवसर पर यह संकल्प किया था कि वे दोनों अपना
सम्पूर्ण जीवन योग साधना के लिए समर्पित करेंगी। भला मह्रर्षि से श्रेष्ठ मार्गदर्शक उन्हें और कहाँ मिलता। इन शिष्यगणों के साथ मह्रर्षि विश्वविद्यालय के केन्द्र में बने कुलपति कुटीर में अपने अन्वेषण कार्य में संलग्र रहते थे। पर्याप्त विस्तीर्ण क्षेत्र में बना उनका यह कुटीर आवास से कहीं अधिक प्रयोगशाला व ग्रन्थागार था।
व्याकरण शास्त्र- ध्वनिशास्त्र में विशेषज्ञ होने के साथ ही मह्रर्षि
शरीर शास्त्र व चिकित्सा शास्त्र में प्रवीण थे। व्यवहार विज्ञान
एवं मनोदशाओं की सूक्ष्मताओं को समझने में भला उनसे अधिक और
कौन कुशल हो सकता था। उनकी इन सभी विशेषज्ञताओं का प्रभाव उनके इस शोध अध्ययन में झलकता था। उन्होंने ऋग्वेदकाल
से लेकर महात्मा बुद्ध एवं तीर्थंकर के सम्पन्न हुए योग
सम्बन्धी कार्यों को सूक्ष्मता से परखा था। उनकी यह जाँच- परख
केवल बौद्धिक एवं तार्किक
नहीं थी। उन्होंने इस पर अपने शिष्यों के साथ जटिल- कठिन प्रयोग
सम्पन्न किए थे। व्यवहार पर, शरीर- आरोग्य पर, प्राण की
प्रक्रियाओं पर, मन की सूक्ष्म संवेदनाओं पर, संस्कारों, कर्म समुदाय
पर यहाँ तक कि प्रकृति एवं सृष्टि की व्यापकता में इसके
प्रभावों एवं परिणामों को परखा था। इस क्रम में उनका कहना था कि
योगविद्या व्यवहार- विचार एवं संस्कारों को क्रम से परिशुद्ध कर
कैवल्य बोध देती है। स्वयं के स्वरूप में प्रतिष्ठा प्रदान करती
है।
योग के प्रायः सभी ग्रन्थों में वर्णित , योग के प्रायः सभी मतों- पन्थों
द्वारा सुझाए, सिद्ध योगियों, साधकों, सिद्धों द्वारा कथित योग के
सम्पूर्ण सत्य एवं तत्त्व को अब उन्होंने सूत्रों में लिखना
प्रारम्भ कर दिया था। इस कार्य को वह सच्चे विज्ञानवेत्ता की तरह
कर रहे थे। इसमें किसी के किसी भी तरह के आग्रह, मत, विश्वास,
श्रद्धा, आस्था का कोई स्थान न था। बस प्रयोगों ने जिसे प्रामाणिक
कहा वही उनके लिए प्रामाणिक था। समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद एवं
कैवल्यपाद के इन चार चरणों में विभाजित उनके इस ग्रन्थ में
क्रमशः ५१, ५५, ५५ एवं ३४ अर्थात् कुल १९५ सूत्र हो रहे थे। उनके द्वारा प्रवर्तित यह योग का वैज्ञानिक विधान उनके लिए था, जो आस्तिक है, ईश्वर परायण है, उनके लिए भी था, जो नास्तिक निरीश्वरवादी है। इसके क्रियान्वयन में जाति, वर्ण, क्षेत्र, स्त्री- पुरुष का कोई प्रतिबन्ध न था।
मह्रर्षि का यह ग्रन्थ पूर्ण हो चला था। इसकी पूर्णता वाले दिन सांझ
के समय वह कुलपति कुटीर में टहल रहे थे। ढलते हुए सूरज की
किरणें सरोवर मे खिले कमलों से लिपटकर सम्भवतः विदा मांग रही थी। उद्यान में खिले हुए सुगन्धित पुष्प अपनी सुरभि बिखेर रहे थे। मह्रर्षि मौन हो सधे कदमों से टहल रहे थे। उनके मुख पर असीम सन्तोष था। कुटीर के द्वार से मह्रर्षि के सहयोगी- शिष्यों ने उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ उठा दिया। इनमें से पौलोमी ने तनिक हिचक के साथ पूछा- आचार्यवर! आपके द्वारा रचित १९५ सूत्रों में प्रमुख एवं प्रधान सूत्र क्या है? वह प्रथम सूत्र है पुत्री- ‘अथ योगानुशासनम्’ क्योंकि योग विज्ञान उन्हीं के लिए है जो योगविज्ञान के वैज्ञानिक प्रयोग का अनुशासन स्वीकारते हैं। और ये मूल वैज्ञानिक प्रयोग क्या हैं मह्रर्षि? ये आठ हैं पुत्री। यह प्रयोग मूलतः अष्टांगिक हैं। १. व्यवहार के परिष्कार के लिए यम जिसमें सदाचार के सूत्र हैं। २. चिंतन् के बिखराव- भटकाव के नियमन के लिए नियम, ३. शरीर को दृढ़- निरोग करने के लिए आसन, ४. प्राण के परिमार्जन के लिए प्राणायाम, ५.चिंतन चेतना के साथ प्राण प्रवाह को अन्तर्लीन करने के लिए प्रत्याहार, ६. तत्त्व को, सत्त्व को एवं सत्य को धारण करने की शक्ति प्राप्त करने के लिए धारणा। ७. धारणाओं में निमग्र होने के लिए ध्यान। एवं ८. ध्यान के द्वार से प्रवेश कर सत्य में, स्वयं के स्वरूप में प्रतिष्ठित होने के लिए समाधि।
हम सब आपका सान्निध्य पाकर धन्य हैं। सभी शिष्यों के समवेत स्वर में ऐसा कहने पर मह्रर्षि ने कहा- मेरे बच्चों! मैं तुम सबके प्यार भरे सहयोग के लिए आभारी हूँ। तभी उन सबने मह्रर्षि को चकित करते हुए ये पंक्तियाँ पढ़ी-
योगेन चित्तस्य पदेन वाचा,
पातञ्जलिमहाभाष्य चरक प्रति संस्कृतै।
मनोवाक्यायदोषाणं हन्त्रे ऽहिवतये नमः॥
जिन्होंने योग से चित्त के, सूत्रों के पदभाष्य से वाणी के, वैद्यकशास्त्र की रचना से शरीर के मल को दूर करने का विज्ञान रचा है, उन मुनिश्रेष्ठ पतंजलि को हम सभी हाथ जोड़कर नमन करते हैं। पतंजलि सूत्र, महाभाष्य एवं चरक संहिता की शोध कर जिन्होंने मन, वाणी एवं काया के दोषों का निवारण का विज्ञान रचा है, उन शेषावतार मह्रर्षि पतंजलि को नमन है। इन पंक्तियों को सुनकर मह्रर्षि
ने अपने शिष्यों को स्नेह भाव से देखा और कहा- अभी आवश्यकता
तन्त्र के वैज्ञानिक रहस्यों को उद्घाटित करने की है।