वैज्ञानिक अध्यात्म के क्रान्ति दीप

प्रबन्धन में अध्यात्म की महती भूमिका

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         ‘अध्यात्म में वैज्ञानिक दृष्टिकोण समावेशित हो तो प्रबन्धन में उत्कर्ष के नवीन क्षितिज छुए जा सकते हैं।’ विनोबा ने बड़े शान्त स्वर में श्री कृष्णदास जाजू से कहा। जो अभी थोड़ी ही देर पहले जमनालाल बजाज के साथ वर्धा आश्रम आए थे। जमनालाल बजाज देश के प्रतिष्ठित व्यवसायी एवं बड़े धनपति होने के साथ महान् देशभक्त थे। देश के लिए उनका सम्पूर्ण धन ही नहीं समूचा परिवार और स्वयं वे पूरी तरह से समर्पित थे। महात्मा गांधी में उनकी अनन्य निष्ठा थी। बापू भी उन्हें पाँचवा पुत्र मानते थे। कुछ वर्षों पहले उन्होंने बापू से आग्रह किया था- बापू! साबरमती की ही भांति एक आश्रम वर्धा में भी होना चाहिए। महात्मा गांधी ने उनका प्रस्ताव मानकर रमणीक लाल को वर्धा भेजा। परन्तु स्वास्थ्य कारणों से वह वहाँ अधिक दिन रह न सके और तब गांधी जी को अपने सबसे प्रिय शिष्य विनोबा को वर्धा भेजना पड़ा। अप्रैल १९२१ को विनोबा अपने साथियों के साथ वर्धा आए।

इसी के साथ शुरूआत हुई वर्धा में धामनदी से कुछ ही दूर सत्याग्रह आश्रम की। सन् १८९५ ई. में जन्मे विनोबा यूं तो अभी युवक थे, परन्तु उनका व्यापक ज्ञान, लगभग तेईस भाषाओं में उनकी प्रवीणता, कर्मठ तपस्वी जीवन, अविराम आध्यात्मिक साधना और सबसे बढ़कर निश्छल देश प्रेम उन्हें महामानवों की श्रेणी में रखता था। गांधी जी उनके लिए कहते हैं कि विनोबा मेरे पास आशीर्वाद लेने नहीं बल्कि मुझे आशीर्वाद देने आए हैं। वर्धा आने के थोड़े ही समय बाद विनोबा जमनालाल बजाज के मार्गदर्शक और उनकी पत्नी जानकी देवी बजाज के छोटे भाई बन गए। जानकी देवी विनोबा से पथ प्रदर्शन तो अवश्य पाती थी, पर वह उन्हें अपना छोटा भाई ही मानती थी। इन देशभक्त दम्पत्ति ने अपने दोनों पुत्रों कमलनयन बजाज एवं राधाकृष्ण बजाज को विनोबा जी के संरक्षण में आश्रम में रखा था। वे चाहते थे कि विनोबा के ऋषिकल्प जीवन के सान्निध्य में रहकर उनके दोनों पुत्र देशभक्ति और ऋषि जीवन के संस्कार पा सकें।

          आज बहुत दिनों के बाद वह श्री कृष्णदास जाजू के साथ आश्रम आए थे। सोचा था कि विनोबा के दर्शनों के साथ बच्चों से भी मिलना हो जाएगा। यहाँ आने पर उन्होंने दूर से देखा कि उनके दोनों पुत्र आश्रम में अन्य विद्यार्थियों एवं विनोबा व उनके सहयोगियों के साथ कड़ी धूप में खेतों में काम कर रहे हैं। जब तक वे पास आए तब तक खेतों का काम खत्म हो चुका था। और विनोबा सभी को साथ लिए आश्रम की अमराई में आ चुके थे। विनोबा के हाथों में गीता की पुस्तक थी। अब वह गीता की कक्षा शुरू करने वाले थे। जाजू जी ने तनिक परिहास के साथ विनोबा से कहा- विनोबा जी! बजाज के बेटों को आगे चलकर बहुत बड़े व्यावसायिक साम्राज्य का प्रबन्धन करना है। गीता की कक्षाएँ क्या उन्हें प्रबन्धन सिखा सकेंगी। विनोबा ने एक नजर कमलनयन एवं राधाकृष्ण पर डाली, जिनके चेहरों से अभी भी पसीना टपक रहा था। फिर उन्होंने गम्भीर स्वर में जाजू जी से कहा- श्रीमद्भगवद्गीता जीवन प्रबन्धन का ग्रन्थ है। जो अपने जीवन का प्रबन्धन कर सकता है, वह जगत् का प्रबन्धन भी कर सकता है।

           विनोबा हृदय से आध्यात्मिक एवं मस्तिष्क से वैज्ञानिक थे। उन्होंने गीता की पोथी को माथे से लगाया और बोले- गीता अध्यात्म का वैज्ञानिक ग्रन्थ है। इसमें परम्पराओं की लकीरें मिटाकर प्रयोगों के प्रतिमान स्थापित किए गए हैं। वैदिक ज्ञान की परम्परा में पहली बार गीता ने सत्य के अन्वेषण के लिए वेदों के भी पार और परे जाने की बात की। त्रैगुण्यविषयावेदानिस्त्रैगुण्यो भवार्जुन‘‘हे अर्जुन! वेद त्रिगुण विषय का प्रतिपादन करते हैं, तुम त्रिगुण के पार हो वेदों के भी पार चले जाओ।’’ क्या यह गीता की वैज्ञानिक अभिवृत्ति की अभिव्यक्ति नहीं है? गीता में तो जीवन एवं जगत् की संरचना- क्रिया, इनकी अन्तर्क्रियाओं व इनके परिणामों का बड़ा सूक्ष्म वैज्ञानिक विवेचन है। अब रही गीता में व्यावसायिक प्रबन्धन की बात तो चलो आज इसी पर चर्चा कर लेते हैं।

       कृष्णदास जाजू ने जमनालाल बजाज एवं महात्मा गांधी से अनेकों बार विनोबा के बारे में सुना था। कई बार उनसे मिलना भी हुआ, पर आज इस तरह उन्हें सुन पहली बार रहे थे। इस समय विनोबा के मुख, नेत्रों एवं वाणी से ऋषि प्रज्ञा की पावनता एवं प्रखरता प्रकट हो रही थी। वह कह रहे थे- गीता में जीवन प्रबन्धन के द्वारा चार परिणाम प्रत्यक्ष होते हैं। १. तप एवं युक्त आहार- विहार के द्वारा शरीर से स्वस्थ एवं सक्षम, २. प्राणायाम व ध्यान आदि की क्रियाओं से- मानसिक, बौद्धिक रूप से प्रखर प्रतिभावान्, ३. सम्पूर्ण जगत् में परमेश्वर को अनुभव कर- भाव संवेदनाओं से ओत- प्रोत- सामाजिक समरसता- कोमलता एवं सभी के प्रति भातृभाव से परिपूर्ण एवं ४.गीता में दी गयी विविध आध्यात्मिक साधनाओं को करके आध्यात्मिक रूप से उर्वर एवं ऊर्जा से भरपूर।

        इसकी समर्थ अभिव्यक्ति व्यावसायिक प्रबन्धन में भी सम्भव है। गीता में बतायी स्थितप्रज्ञता की ओर बढ़ते हुए व्यक्ति में दूरदर्शिता, सूक्ष्मदर्शीतासम्पूर्णदर्शीता का विकास होता है। इसी के साथ उसमें सन्देह रहित, आग्रह रहित व उद्देश्यनिष्ठ ज्ञान प्रकट होता है। ऐसे व्यक्ति द्वारा बनायी गयी व्यावसायिक योजनाएँ कभी असफल नहीं होंगी। उसकी विकसित अन्तर्प्रज्ञा के बल पर लिए गए साहसिक निर्णय कभी विफल नहीं होंगे। और अपनी रचनात्मकता के द्वारा सदा कुछ नया करता रहेगा। गीता में प्रतिपादित कर्मयोग को अपनाकर व्यावसायिक योजनाओं का सफल क्रियान्वयन सम्भव है। कर्मयोगी बिना रूके, बिना थके, बिना हारे श्रेष्ठतम कर्म करता है। उसका ध्यान फल में न होकर कर्म में होता है- इसलिए उसके कर्म भी श्रेष्ठता- प्रखरता एवं ऊर्जा के शिखर को छूते हैं। और जैसा कि भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- न हि कल्याणकृत्कश्चिद् दुर्गति तात गच्छति। हे तात्! कल्याण कर्म करने वाले की कभी दुर्गति नहीं होती। अर्थात् श्रेष्ठ का परिणाम श्रेष्ठ होगा, तो व्यवसाय में भी समृद्धि आएगी।

          ज्ञानयोग के द्वारा व्यक्ति स्वयं के संज्ञान की सदा नवीन संरचना करता है। नवीन जानकारियाँ, प्रतिभा के नवसृजित आयाम उसमें चुनौतियों एवं नए प्रश्रों का समाधान ढूँढने की क्षमता पैदा करते हैं। इन सबके साथ भक्ति के द्वारा परिष्कृत भावना उसमें दूसरों को समझने की, उनके दिलों को छूने, उन्हें अपना बनाने की ताकत देती है। इसी के साथ पैदा होती है नेतृत्व क्षमता, जो बड़े से बड़े व्यावसायिक साम्राज्य को शिखर तक ले जा सकती है। और जब गीता में भगवान् ईश्वर शरणागति की बात कहते हैं, तो उसका मतलब है दिव्यता के साथ दिव्य होकर दिव्यता में निवास करना। ऐसा व्यक्ति सर्वदा काल की चुनौतियों के अनुसार परिवर्तित एवं प्रसन्न रहेगा। उसमें स्वयं के साथ सभी को भावनात्मक रूप से प्रेरित करने की जबरदस्त क्षमता होगी। और उसकी कार्यक्षमता एवं कर्म सम्पूर्णता तो असाधारण रहेगी। और मेरे विचार से अपनी व औरों की क्षमता को प्रकट करने तथा स्वयं में और सभी के साथ सामञ्जस्य स्थापित करने का नाम ही तो प्रबन्धन है।

          कृष्णदास जाजू ने इस तरह की बातें पहली बार सुनी थी। आज उन्हें पहली बार अहसास हुआ कि श्रीमद्भगवद्गीता वैज्ञानिक अध्यात्म का ग्रन्थ है। उन्होंने सुना विनोबा कह रहे थे- गुणों का विकास, गुणों की परख और स्वयं के तथा ओरों के गुणों का सही नियोजन यही गीता की सीख है और यही प्रबन्धन है। विनोबा की ये बातें सुनकर जमनालाल बजाज पुलकित थे। वह सोच रहे थे कि विनोबा के रूप में गांधी जी ने उन्हें ईश्वर का वरदान किया है। रही बात कमलनयन एवं राधाकृष्ण की तो वे अपने बाबा विनोबा के साथ पुलकित थे। चलते- चलते जमनालाल बजाज ने उनसे पूछा, बेटा तुमने क्या सीखा तो उन दोनों ने ही उत्साहपूर्वक बताया कि बाबा ने मुझे सिखाया है कि जो अपने व्यवहार को सुधार लेता है वह अपने व्यवसाय को भी सुधार लेता है। स्वयं विनोबा इन क्षणों में देख रहे थे भविष्य की झलक, जब वैज्ञानिक अध्यात्म नवयुग के नवीन दर्शन एवं नवीन विज्ञान के रूप में प्रतिष्ठित होगा। 
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